बसन्ती बयार
बसन्ती बयार
बिन्नी, प्रदुम्न , मयंक और वो चारों मिल कर हर होली पर एसी धमाचौकड़ी मचाते कि उधर से गुजरने वाला हर राहगीर बिना रंगों से सरोकार हुये उनकी गली से गुजर ही नहीं पाता। होली के रंगों के साथ ही मयंक के प्यार का रंग उस पर एसा चढा कि भंग की तरंग में वह उसको अपना सब कुछ सौंप बैठी।
बात आगे बढ़ती कि नियति के क्रूर चक्र ने एक भयंकर हादसे में उसको उससे अलग कर दिया । समाज में वह सिर उठा कर जी सके इसलिये भइया भाभी उस आजन्मी सन्तान को अपनी ममता की छाँव में ले कर दूसरे शहर चले गये।
अपना गम हल्का करने के लिये वह भी पलायन कर गयी। होली का त्यौहार ज्यों ज्यों निकट आ रहा था उसकी यादें बरबस ही पीछे गुजरे हसीन यादगार लम्हों और फिर अचानक ही हुए उस दर्दनाक हादसे की ओर खिचे चली जा रही थीं।
जिसको भुलाने के लिये वह अपना सब कुछ छोड़ कर अनजान धरती पर अनजाने लोगों के बीच खुद को सकारात्मक कार्यों की भूलभुलैया में खपा कर तिल तिल हो रोज ही मर मर कर जी रही थी। इतनें सारे अथक प्रयासों के बाबजूद कहाँ भूल पाई थी वह सब कुछ।
माँ की बीमारी की खबर सुन वह उल्टे पैरों से सब गिले शिकवे भुला हवाई जहाज से एक सूटकेस व बैग ले तत्काल ही चल दी। घर की ओर बढ़ती टैक्सी के शीशे से बाहर फ़िजाओं में उड़ते अबीर-गुलाल गुलाल देख उसे खुद की मूढ़ मति पर हँसी आने लगी कि कुछ समय ही विदेश में रहने पर ही वह कैसे भूल गयी कि उसके शहर में तो एक माह पहले ही होली की शुरूआत हो जाती है। तभी झटके से टैक्सी के रूकने से उसकी तन्द्रा भंग हुई सामने नजर पड़ी तो देखा घर आ गया था ।अनुपम छटा बिखेरते फाटक के किनारे लगे अमलतास के झड़ते हुये पीले व गुलमोहर के लाल फूलों को देख कुछ पलों के लिये वह ठिठक सी गयी ।तभी उसकी नजर द्वार पर खड़े भइया भाभी पर पड़ी जिनके पीछे झाँकती नन्ही रिमझिम और साथ में खड़े प्रदुम्न को देख ऐसा लगा मानो उसके जीवन में फिर से बसन्ती बयार आ गयी हो।