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बोलना मना है

बोलना मना है

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"दर्शन जाओ ,सभी अध्यापकों को तुरंत दफ्तर आने को कहो। "

हेडमास्टर साहब दफ्तर में परेशान अपना सर पकड़े बैठे थे। उन्होंने सेवादार को भेजकर सभी कुल जमा पांच अध्यापकों को दफ्तर में मीटिंग के लिए बुलावा भेजा।

आज सुबह सब कितने आराम से अपने अपने कामों में व्यस्त थे। धुप अच्छी खिली हुई थी। हफ्ते का पहला दिन था। यूं तो छुट्टी के बाद बच्चे थोड़ा सुस्त होते है पर आह प्रार्थना सभा बड़ी अच्छी हुई। बच्चों ने कायदो से समाचार पत्र की न्यूज ,आज का विचार ,सामान्य ज्ञान के प्रश्न पूछे थे और उनका उत्तर भी दिया था। राष्ट्र गान के समय भी बच्चों की आवाज ऊंची रही। आज तो लम्बे समय से अनुपस्थित रहने वाले बच्चे भी हाजिर थे। इस सरकारी स्कूल की काम होती गिनती के बावजूद भी स्कूल भरा भरा लग रहा था। हेडमास्टर साहब और सभी अध्यापक भी इस शुभारम्भ से गदगद थे।

" आज तो सर अपने बच्चे पूरे जोश में लग रहे हैं ,आपके अनुशासन वाले नियम वाकई रंग दिखा रहे है। "एक अध्यापक ने हेडमास्टर को मस्का लगते हुए कहा। बाकी भी सर हिला रहे थे

" अरे नहीं वर्मा जी ,अकेला चना क्या भाड़ फोड़ेगा ,आप सब अध्यापकों के सहयोग का ही फल है ,बाकी शिक्षा विभाग की नै नीतियां तो हैं ही। हम तो बस लागू करने का प्रयास कर लेते हैं। " हेडमास्टर साहब ने मन ही मन अपनी ख़ुशी सँभालते हुए कहा।

सुबह के पहले घंटे में अभी सब ठीक ठाक चल रहा था। अचानक स्कूल के गेट पर एक लम्बी सफ़ेद ,चमचमाती गाडी आकर रुकी। चपड़ासी ने दरवाजा खोला और मोबिल से फटाफट हेडमास्टर को सूचित किया कि बड़े अफसर आये हैं। सारे स्कूल में ये खबर एक सन्नाटे को इस तरह फैला गई जैसे गब्बर के आने पर शोले फिल्म में गाँव की हालत।

हेडमास्टर साहब दौड़कर दफ्तर से बाहर निकले। चपड़ासी और क्लर्क को कुछ ताकीद की तथा कार से निकले अफसर की तरफ हाथ जोड़े विनय प्रार्थना की मुद्रा में बढ़ गए।

आफिसर जिला शिक्षा अधिकारी था ,मोटा ताजा तंदरुस्त। उसके पीछे पीछे क्लर्क नुमा दो और आदमी डायरी पकडे कार से बाहर निकले। हेडमास्टर साहब ने उन्हें दफ्तर की और चलने को कहा पर उनोहने स्कूल के चारो तरफ देखते हुए मुआयना सा किया और स्कूल में बने शौचालयों की और बढ़ गए। हेडमास्टर को लगा साहब को लघु शंका की पुकार हुई है इसलिए वे भी उनके पीछे पीछे उसी दिशा में चल पड़े।

"शौचालय वगैरह की नियमित सफाई हो रही है हेडमास्टर साहब। " अफसर ने अचानक चलते चलते पूछा।

" जी सर ,नियमित रूप से ,वैसे तो सफाई कर्मी की पोस्ट खली है पर हमने एक आदमी स्कूल फंड से रखा है ,वही सुबह शाम सफाई करता है।

" ये बाहरी मैदान सारा कच्चा है ,इस पर घास वगैरह लगवाइये। जरा अच्छा लगेगा। और आप जानते नही की पूरे देश मे स्वच्छता अभियान चल रहा है। अफसरों पर इतना प्रेशर है इसे लागू करने का। आप भी अपनी रिपोर्ट बना कर रखिये और स्वच्छता कार्यक्रमों सबंधी सभी फोटो और करवाये प्रोग्राम का रिकार्ड बनाइये।

"जी सर...... जी सर। जरूर बस वो पिछले दो सालों से पेड़ पौधों को सँभालने लगाने वाली ग्रांट आई नहीं है। .पर हम इसके लिए योजना बना चुके हैं ,जल्द ही काम हो जायेगा। "हेडमास्टरne पल्ला झाड़ा।  

"ग्रांट वही यूज कीजिये जो आपको स्कूल के मेंटिनेंस के लिए हर महीने फीस फण्ड आदि से जमा होती है,कोई बहाना नही चलेगा अब। " अफसर अपनी हांक रहा था।

हेडमास्टर साहब ने चुप रहना ही बेहतर समझा।

एक क्लास में शायद मुहावरे पढ़ाये जा रहे थे ,उधर से ही आवाज आई ,"पास में नहीं दाने ,अम्मा चली भुनाने। "

इसी बीच अफसर लघु शंका निवारण और शौचालयों का निरीक्षण करने के लिए व्यस्त हुए तो हेडमास्टर साहब ने क्लर्क से मोबाइल पर जानकारी ली ," देखो आज थोड़ा मिजाज बिगड़ा हुआ है,समोसे के साथ पाव भर खोये वाली बर्फी भी मंगवा लेना और हां... चाय में इलायची जरूर डलवा लेना ,ठीक है रखता हूँ। तैयार रहो आ रहे हैं। "

अफसर ने मैदान में गिर रहे पत्तो के बारे में शिकायत की जो पतझड़ के मौसम के कारण चारों और बिखरे थे। स्कूल में पेड़ों की संख्या बहुत थी ,जिनकी हरियाली के कारण अभी पिछली बार इसी अफसर ने स्कूल के माहौल को शांतिनिकेतन की उपाधी दी थी। ये अलग बात है कि वो मौसम पतझड़ का नही था। फिर आफिसर लाइब्रेरी में गया जिसे स्कूल के हर फंक्शन में बड़े हाल की तरह प्रयोग कर लिया जाता था ,वहां एक दिन पहले ही विज्ञान प्रदर्शनी लगवाई गई थी। इस कारण सामान और मेज कुर्सियों की व्यवस्था थोड़ी बिगड़ी हुई थी। अफसर ये देख कर नाराज हुआ। हेडमास्टर साहब ने प्रदर्शनी वाली बात बताई पर अफसर बोले ,"देखिये जिस दिन सचिव साहब ये देखेंगें ,वे एक न सुनेगे। आपको पता नहीं है की जब हमें उनके साथ मीटिंग में बुलाया जाता है तो किस प्रकार की बाते सुननी पड़ती है।

पूरे राज्य में सचिव साहब सरकारी स्कूलों की कायापलट करना चाहते थे। फर्क पड़ भी रहा था। वरना एक समय सरकारी स्कूल इस तरह बदनाम थे कि अध्यापक स्कूल में खुद आता नही था,अपनी जगह दो तीन हजार में किसी और को स्कूल में भेज देता। कई अध्यापक दारू पीकर स्कूल के किसी कोने में खटिया डाले सोये रहते, पर इन जैसों अधयापकों की गिनती थी बहुत थोड़ी,पर बदनामी पूरे महकमें की हो रही थी। यूनियन और राजनीतिक पहुंच के चलते सब कार्यवाही करने से डरते थे। खैर समय बदला ,नया शिक्षा सचिव एक ऐसे आदमी को बना दिया गया जिस पर सुधारवाद बहुत ज्यादा सवार था। सभी महकमे और मंत्री उसके इस रवैये से बहुत परेशान थे। अफसरों की लाबी भी उसके साथ द्वेष रखती थी। ऐसे समय मे उसे जानबूझ के शिक्षा विभाग दे दिया गया। इसमें मास्टरों की यूनियन ने बहुत आतंक मचा रखा था।  

शिक्षा व्यवस्था और सरकारी स्कूलों के गिरते स्तर को लेकर आये दिन समाचार पत्रों में लानत मलामत होती रहती थी। सरकार के दिमाग मे एक प्लान आया। लोहे से लोहे को काटने वाली बात पर अमल करते हुए सरकार ने मास्टरों को काम लगाने और ईमानदार अफसर के सुधारवाद को आपस मे भिड़वा दिया। सुधारवादी अफसर को राज्य का शिक्षा सचिव बना दिया गया। सचिव ने भी आते ही धर पकड़,कार्यवाही, टर्मिनेशन,औचक निरीक्षण और कारण बताओ नोटिस के हथकंडे दिख दिए। खूब धरने प्रदर्शन हुए पर लॉगिन का समर्थन अफसर सचिब के साथ था। जनता के दिल मे सचिव की सुधारवादी लहर छह गई थी। सरकारी स्कूलों के लचर प्रदर्शन से ज्यादा लोग अधयापकों को मिलने वाले बढ़िया वेतन से दुखी थे।  

धीरे धीरे सचिब का आतंक पूरी तरह शिक्षा विभाग के अध्यापकों पर छा गया। मास्टर टाइम से स्कूल आते,टाइम पर स्कूल से जाते,कायदे से छुट्टी लेते। नए नए साधन और शिक्षण ट्रेनिंग के द्वारा स्कूलों में पढ़ाई और व्यवस्था के स्तर को सुधारा जाने लगा।  

सरकार ने अपना काम करना ही था। राज्य की बजट व्यवस्था खराब हुई तो सरकार ने बहुत सी सुविधाओं पर कट लगाना शुरू कर दिया। ग्रांट,डी ए की किश्ते बन्द कर दी। ठेका आधारित नौकरी के विज्ञापन दिए जाने लगे। स्कूल में अधयापकों के पदों को हटाया जाने लगा। कहीं कहीं एक अधयापक को दी दो स्कूलों में पढ़ाने जाना पड़ा। हेडमास्टरों को दो या तीन से अधिक स्कूलों की जिम्मेवारी दी जाने लगी। सचिब पर नए नए कार्यक्रमों और योजनाएं का प्रभाव छाने लगा। उसका फोन चौबीस घण्टे आन रहता,उसके नीचे काम करने वालीं को भी ऐसा करना पड़ा। पहले जो पावर बढ़िया लग रही थी वही अब निचले अफसरों प्रिंसिपलों और हेडमास्टरों में हाई बीपी,शुगर ,हाइपर टेंशन और अम्लपित्त का कारण बनने लगी। अफसरों को नींद में भी या तो सचिव दिखता या उसके फोन की घण्टी मोबाइल पर सुनाई देती। वे हड़बड़ा कर उठ बैठते,और फिर सो न पाते। नींद की गोलियां भी है बेअसर रहती।

इस पूरे माहौल में सभी कर्मचारियों और अफसरों ने फिर एक बार एक दूसरे के दुख को समझा और वे आपस मे एक दूसरे को ले दे के एडजस्ट करने लगे। उनमे समझौता हो गया कि न तुम आगे बात बढ़ाओ न हम यूनियन में तुम्हारा जुलूस निकाले। पर सचिव के परोपकारी स्वभाव और सरकार की हर जगह कंजूसी ने एक नई समस्या खड़ी कर दी। ये समस्या थी स्कूलों के सौंदर्यीकरण की। इसमें बड़े स्कूलों ने प्रशंसा के चक्कर मे स्कूल की बिल्डिंग को सुंदर रंग रोगन करवा दिया। दीवारों पर सुंदर विचार लिखवा दिए। फर्नीचर वगैरह बदल दिया। सरकार ने इस काम के लिए फण्ड दिया पर इतना जितने में बस रंग खरीदा जा सके,पुताई का काम और बाकी समान खरीदने का काम खुद ही करना था। बड़े स्कूलों या शहर के निकट लगते सरकारी स्कूलों ने तो दानी सज्जनों से गुहार लगाई या फिर किसी ढ़ायोक की रिटायरमेंट,वैवाहिक वर्षगाठ और साझा फण्ड जुटाकर अपना पिंड छुड़ाया।

दिक्कत थी गांव देहात के स्कूलों की जहां दानी कम थे,पढ़ाने वाले भी ज्यादातर ठेका आधारित नौकरी में थे,पक्के थे तो उनका अपने घर का गुजारा ही बस ठीक ठसक चल रहा था। इनमें से एक ऐसा वर्ग था जो कहता कि आखिर सरकारी काम के लिए हम पैसा क्यों दे। सरकार टी हमारी पेंशन योजना भी कहा गई, डी ए की किश्त भी पिछले दो सालों से नही दे रही। हम क्यों पैसा दें।

इस पूरे वातावरण में आज इस स्कूल के हेडमास्टर भी किसी न किसी तरह चाहते थे कि अफसर ठीक ठाक रिपोर्ट लिखकर चला जाये।

स्कूल की सफाई और रंगाई पुताई सबंधी अफसर ने काफी कुछ हेडमास्टर साहब को कहा। दफ्तर में सभी अधयापकों को बुलाया और उनके रिजल्ट की समीक्षा की। उन्हें सौ प्रतिशत रिजल्ट के टारगेट का सचिब साहब का अभियान सुनाया।

अधयापक भी चुपचाप सिर हिलाते और और मन ही मन गालियां बकते रहे।

आखिरकार समोसे और खोये की बर्फी से अफसर और उसके साथ आये कलर्कनुमा आदमियों के मन और पेट शांत हुआ। हेडमास्टर साहब को उन्ही के एक साथी ने एक अन्य स्कूल से फोन करके बता दिया था कि अफसर सचिव की बातों के कारण कुछ परेशान रहते है इसलिए इनका बुरा मत मानना। अच्छा नाश्ता और फर्स्ट क्लास चाय ही इनका एकमात्र उपाय है,वो कर लेना। और अगर इतने से काम बन रहा हो तो क्यो 'आ बैल मुझे मार'कहना है।  

हेडमास्टर साहब ने यही किया। अफसर थोड़ा मुस्कराया। " देखिये आप सबको पता है कि हम सब किन हालातों में काम कर रहे हैं। नौकरी करना भी अब सजा बन गई है। मैं खुद कभी प्रिंसपल था इसलिए मुझे भी जमीनी हकीकत पता है। अध्यापक भी बेचारे क्या करे। सभी को अपना गुजारा किसी न किसी तरह करना है। आप लोग भी किसी न किसी तरह थोड़ा बहुत फंड जुटाए।

सौ दो सौ गांव वालो के घर घर जाकर इक्कट्ठे करें। और कोई चारा नही। बिल्डिंग और छात्र चमकने चाहिए। मैं रिपोर्ट में कोई अनुचित टिप्पणी नही लिख रहा। बस मेरे लिए इतनी सी परेशानी उठाकर अपने स्कूल को सुंदर बनाएं।

अफसर ने इस परामर्श के बाद फूले हुए पेट और बड़ी डकार के साथ विदा ली। हेडमास्टर साहब अपने दफ्तर में लौट आये और कुछ सोचने के बाद सभी अधयापकों को बुलावा भेजा।

"साथियों हमे मालूम है कि चुनौतियां हैं और बहुत मुश्किल हैं। हम आज तक अपने तबादले के लिए भी बड़ी रकम चुकस्ते आये है। अपने घरों के नजदीक नौकरी कर रहे हैं। यूनियन को भी फंड देते रहे हैं। हम सबके दुख साझा है और आज समय की मांग है कि हम एक बार फिर अपनी एकता बनाये रखे। यूनियन वाले भी इसी पक्ष में हैं। अब समझदारी नही दिखाई तो घर से दूर तबादले,डेपुटेशन, कारण बताओ नोटिस और जमाने भर की टेंशन। इसके लिए डॉक्टरों और दवाइयों के बड़े बिल। इससे अच्छा है कि हम अपने या अपनी जान पहचान वालो से चंदा इक्कट्ठा करे और जो थोड़ा बहुत मेकअप विभाग हमसे चेष्टा है वो हम अपनी संस्था का कर ले। इसी में हमारा भला है,बचाव है और बचाव ही सबसे बड़ी सुरक्षा है। सुरक्षित रहें,जीवन का आनन्द उठाये।

अधयापकों को लगा हेडमास्टर साहब उन्हें हर तरफ से घेर चुके हैं और खुद भी घिरे हुए हैं।  

सभी अध्यापकों ने एक दोसरे की तरफ देखा और सहमति में सिर हिलाकर अपनी अपनी क्लास के लिए विदा ली।

अब सब कुछ सुचारू रूप से चल रहा था।


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