बुकस्टोर
बुकस्टोर
थोड़ी भीड़ सी कम रहने लगी है उन किताबों की दुकानों पर।
हर रविवार जब मै कनाॅट प्लेस के पास वाले उस मकसूद भाई जान के बुकस्टोर पे जाता हूं तो अंदर एक पुरानी सी कुर्सी पर बैठें चाचा जान घूरते है, जैसे कोई सवाल पूछने वाले है।
पिछले रविवार चाचा जान ने आवाज लगाई, बोले - “मियां तुम बेशक जवान लगते हो, धूल फांकती पुरानी, जर्जर इस किताब की दुकान में क्यों आते हो? इंटरनेट नहीं है घर में?”
मैंने जवाब दिया - “चाचा जान इंटरनेट से किताबों की खुशबू नहीं आती है।” चाचा मुस्कुरा दिए।
कल जब मै गया तो चाचा की वो कुर्सी खाली थी...
बीते सोमवार को उनका इंतकाल हो गया।
अब किताबों के साथ साथ उनके इत्र की खुशबू भी आती है दुकान से।