काश कुछ बोली होती
काश कुछ बोली होती
हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी गांधी जयंती पर कविता पाठ के लिए नाम पुकारा गया। जैसे ही केवल नाम बोला गया तालियों की गड़गड़ाहट से स्थान गूंज उठा। अतिथि गण बैठे थे उस समय रत्ना कक्षा दसवीं की छात्रा थी। उसकी कविता के बोल थे-
"आधी धोती, हाथ में डंडा चेहरे पर मुस्कान थी
सर्व धर्म का पाठ पढ़ाता आखिर वह कैसा इंसान था ?
धीरे-धीरे कार्यक्रम समापन की ओर बढ़ रहा था कि अचानक से दूसरी बार कविता वाचन के लिए बुलाया गया। कुछ समझ में नहीं आया कि क्या चल रहा है। एक बहुत ही खूबसूरत छवि वाला इंसान मंच पर आकर रत्ना की तारीफ किए जा रहा था। यही नहीं, उसे चाय पर भी आमंत्रण मिला।
रत्ना मन ही मन खुश हो रही थी। काश एक पल इनसे मेरी बात हो जाती। दिन, महीनों में, महीने, साल में बदलता गया। रत्ना तो बस किसी तरह उस इंसान को एक झलक देखने के लिए बेताब रहती थी। एक दिन अचानक पता चला कि वह शहर में आई ए स के पद पर आसीन है। उस वक्त रत्ना बी.ए. प्रथम वर्ष की छात्रा थी। किसी कार्यक्रम में फिर उनसे मुलाकात हुई और आवाज आई- कहाँ थी आप ? बिल्कुल नहीं बदली है, पहचानी मुझे।
रत्ना घबरा कर बोली- जी हाँ, पहचान रही हूँ। आप लेकिन बदल गए हैं।
नहीं, बदला नहीं। आपका हर शब्द अभी भी मेरे जेहन में है।
रत्ना बोली- मुझे भी आपकी हर बात याद है जो आपने मेरे लिए बोला था, मेरी लेखनी के लिए बोला था।
बस मेरी बातें याद है ! और मैं नहीं, कलेक्टर बाबू ने रत्ना से कहा।
तुम्हें कुछ कहना है ? रत्ना बोली, नहीं मैं क्या कहूंगी ? कुछ भी नहीं !
तो ठीक है, मैं चलता हूँ ।
यह शब्द सुनकर रत्ना खामोश हो गई लेकिन कुछ बोल ना सकी...!