वैष्णो माता
वैष्णो माता
माँ पोंछा लगाते हुए आँगन में आई, जहाँ राहुल बैठा अखबार पढ़ रहा था। माँ, राहुल से बोली, “राहुल बेटा, जरा मेज पर चढ़कर वो कोने में लटका हुआ मकड़ी का जाला उतार दो।”
राहुल ने बड़े तीखे स्वर में जवाब दिया, “क्या माँ, जब देखो हुकुम ही चलाती रहती हो, कभी बाज़ार जा, कभी कपड़े प्रेस करवा ला कभी कुछ कभी कुछ .............."
माँ ने बड़े ही नर्म स्वर में कहा, "बेटा मैं भी तो पूरे घर का काम करती हूँ, मैं तो कभी नहीं बड़बड़ाती, मैं भी तो थक जाती हूँ, मैं तो बुड्डी हो गई हूँ, तू तो अभी से........"
"ओफ्फो माँ तुम तो .........."
जब राहुल माँ से बहस कर रहा था, तब रोहन, राहुल का दोस्त, जो दरवाजे तक ही पहुँचा था, वो चुपचाप दरवाज़े पर रुककर सब सुन रहा था। राहुल को पता नहीं चला। अचानक आँगन में आकर रोहन, आंटी को चरण स्पर्श करता है और राहुल को कहता है,
"अरे, राहुल वैष्णो देवी जाने का प्रोग्राम बन रहा है चलेगा क्या ?"
राहुल तो घूमने का शौक़ीन था ही झट से हाँ कर दी, “हाँ, कब चलना है ?”
रोहन ने कहा, "लेकिन तू तो वहाँ जा ही नहीं सकता, क्योंकि वहाँ जाने के लिए माता के प्रति श्रद्धा, परिश्रम व लगन की जरूरत होती है, ये सब कुछ तो तेरे अंदर है ही नहीं।"
“क्या मतलब ?", राहुल चिढ़कर बोला।
रोहन बोला, “देख, अनजान मत बन, मैंने दरवाज़े पर सब सुन लिया है जो अभी तू आंटी जी को जवाब दे रहा था। कई बातें हैं, जब तू मेज पर चढ़कर एक जाला नहीं उतार सकता तो वहाँ पर तो इतनी चढ़ाई है, तू कैसे चढ़ेगा ?, दूसरी बात माँ के प्रति श्रद्धा नहीं तो वहाँ माँ को कैसे सिर झुकाएगा ?, तीसरी बात जब काम के प्रति लगन न हो तो पूजा में तू कैसे लगन लगाएगा ?"
बस, बस कर रोहन मुझे मेरी गलती समझ आ गई, मुझे कहीं नहीं जाना, वैष्णो माँ से बढ़कर मेरी माँ है, रोते हुए राहुल ने माँ के चरण पकड़ लिए और माफ़ी माँगने लगा,
"माँ, मुझसे भूल हुई।" माँ ने उसे उठाकर ह्रदय से लगा लिया।