स्नेह का मरहम
स्नेह का मरहम
आज फिर रमा को उनकी बहु सृष्टि कड़वा बोल रही थी। जली कटी सुना रही थी। पड़ोस की निर्मला के कानों तक भी बहु की बातें पहुंची। उसे बहुत दुःख हुआ। सृष्टि हमेशा अपनी सास से दुर्व्यवहार करती थी और रमा हमेशा उसपर अपना स्नेह ही बरसाती। कभी उसकी बात का बुरा नहीं मानती।
रमा कपड़े सुखाने छत पर आयी तो निर्मला से रहा नहीं गया। बोली-
"सृष्टि तुमसे इतना बुरा बरताव करती है। तुम्हें कभी गुस्सा नही आता? उसे डाँटती क्यों नहीं हो?"
"अरे अगर अपने किसी अंग में दर्द होता है तो हम उसकी अतिरिक्त देखभाल करते हैं, न कि उससे गुस्सा या चिढ़ते हैं। कितना भी दर्द दे लेकिन हम अपने अंग से हमेशा बहुत प्यार करते हैं और उसका दर्द दूर करने का हर सम्भव प्रयास करते हैं।" रमा ने कहा।
"हाँ वो तो है। भला अपने अंग का दर्द भी कभी सहा जाता है।" निर्मला ने स्वीकार किया।
"सृष्टि भी मेरा ही अंग है। उसके माता-पिता नहीं हैं। रिश्तेदारों ने उसे बहुत प्यार से नहीं रखा, इसलिए अभी वह रिश्तों की कदर नहीं जानती, सम्मान करना नहीं जानती। लेकिन मुझे पूरा विश्वास है कि मेरे स्नेह और सद्व्यवहार का मरहम उसके घावों को भर देगा और उसका दर्द जब दूर हो जायेगा तो वह भी स्वस्थ होकर मुझे ख़ुशी ही देगी। बस थोड़ा धैर्य तो रखना होगा।" रमा आश्वस्त भाव से मुस्कुराती हुई बोली।
निर्मला रमा के विचारों के आगे नतमस्तक हो गयी। हर व्यक्ति परिवार के सभी सदस्यों को अपना अभिन्न अंग मानकर व्यवहार करे तो घरों और जीवन में हमेशा प्रेम की नदिया बहती रहेगी।