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मृग-मरीचिका

मृग-मरीचिका

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तड़के सुबह मौसी की नींद खुल गई। नीम अँधेरे में वे बिस्तर पर पोटली सी दिख रही थीं।

“बिट्टो... उठ गई क्या? प्रार्थना का वक़्त हो गया है। चल, मुझे ले चल।”

वैसे तो मैं भी सुबह चार साढ़े चार बजे तक उठ जाती हूँ। छुटपन की आदत है मेरी पर यहाँ सोने में बड़ा मज़ा आ रहा था। जाड़ों की भोर... लिहाफ़ की गरमाहट से निकलने का मन ही नहीं कर रहा था। लेकिन मौसी के पैर लिहाफ़ से बाहर निकल आये थे। पलंग के नीचे... चप्पलें टटोलती वे बुदबुदा रही थीं- "हे प्रभु... हे मालिक...”

अब मेरा लेटे रहना दूभर था- “मौसी, रात बुखार में आप तपती रहीं। आज तो आराम कर लीजिए।”

“प्राण छूटने की तैयारी में... और आराम? पिछले बीस सालों से एक दिन भी प्रार्थना, सत्संग नहीं छूटा। न जाने किन पापों का फल है जो हफ़्ते भर से गुरूजी के दर्शन नहीं कर पाई। आज तो ले चल बिट्टो।”

उनके इसरार के आगे मैं मजबूर थी। लगभग छै: महीनों से मौसी की ऐसी ही हालत चल रही है। बुखार चढ़ता उतरता रहता है। सूख कर हड्डी हो गई हैं। नाते रिश्तेदार हफ़्ते दस दिन में बारी-बारी से आकर देख जाते हैं। अमेरिका से संजय भी आकर देख गया है। ज़्यादा रह भी तो नहीं सकता। नौकरी पेशा आदमी है। आजकल नौकरियाँ कितनी जद्दोजहद के बाद मिलती हैं। हालाँकि विदेश में रोज़गार के अवसर अधिक हैं पर नौकरी मिलना टेढ़ी खीर। मैं भी ज़्यादा कहाँ रह पाऊँगी। पंद्रह दिन का इंतज़ाम करके आई हूँ घर पे। पति अस्थमा के मरीज़... बेटी कॉल सेंटर में सर्विस करती है। रात बिरात जाना पड़ता है ऑफ़िस। बेटा बहू दोनों बैंक में ऑफ़ीसर। सुबह आठ बजे के निकले रात आठ से पहले कभी लौटते नहीं। ऐसे में पति दिन भर घर पे अकेले रहते हैं। लेकिन यहाँ भी आना ज़रूरी था। मौसी का सबसे ज़्यादा लगाव मुझसे ही है। जब से संजय अमेरिका जा बसा है मौसी मुझे और अधिक चाहने लगी हैं।

काँपते क़दमों से छड़ी के सहारे मौसी स्विच बोर्ड तक पहुँची और लाइट जला दी। कमरा दूधिया रौशनी में नहा उठा। मैंने झटपट उनके मुँह धोने के लिए पानी गरम होने रखा। मिनटों में हम तैयार होकर गेट के बाहर थे। तारों भरी अमावस की बिदा होती रात अपने आगोश में खामोशी सिमटाए आहिस्ता-आहिस्ता ढल रही थी। जल रहे थे सिर्फ़ गलियों में थोड़ी-थोड़ी दूरी पर लगे कोहरे के कारण धुँधलाए बल्ब। रास्ता सूना नहीं था। आश्रमवासियों का समुदाय तेज़ी से प्रार्थना के लिए चबूतरे की ओर जा रहा था। चबूतरा यानी सत्संग हॉल... मौसी के घर से बहुत नज़दीक है चबूतरा। सुबह साढ़े चार बजे प्रार्थना शुरू हो जाती है फिर सब खेतों पर काम करने चले जाते हैं। ठंड हो, गर्मी हो या बरसात। इस नियम में कभी कोई परिवर्तन नहीं होता। माइक खड़खड़ाने लगा था। दूर बगीचों में बड़ी तादाद में रहने वाले मोर बावजूद ठंड के आवाज़ लगा रहे थे। मानो वे भी प्रार्थना में शामिल होने जा रहे हों।

“तबीयत कैसी है माताजी?” मौसी की पड़ोसन सीता बहनजी शॉल ओढ़ती हुई उनके संग-संग चलने लगी। वे तेज़ी से आई थी इसलिए आवाज़ काँप रही थी। आवाज़ मौसी की भी काँप रही थी- “ठीक हूँ... रात बुखार उतर गया था। तब से आराम लग रहा है।”

मौसी ने जैसे अपने कष्टों पर विजय पा ली थी। ग़ज़ब की जिजीविषा है उनमें। आश्रम में रहने वाली सबसे कर्मठ औरत वही हैं। कठोर श्रम करते हुए उन्होंने यहाँ सालों, साल गुजार दिए। चौबीस साल की थीं तब ब्याह हुआ था। मौसीजी प्रख़्यात तैराक थे। बड़ी-बड़ी तैराक़ी प्रतियोगिता जीती थीं उन्होंने... लेकिन उनका शौक ही उनका काल बन गया। अंतर्राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिता में शामिल हो इंग्लिश चैनल पार करते हुए वे लहरों की चपेट में आ गये। तब मौसी गर्भवती थीं। मौसाजी की मृत्यु के तीन महीने बाद संजय हुआ। उन्होंने सिंगल अभिभावक बन संजय के लालन-पालन में कोई क़सर नहीं छोड़ी।

आर्थिक संकट था नहीं, मौसाजी की गिनती शहर के रईसों में होती थी। फिर भी बिना पिता के बच्चे की परवरिश उस ज़माने में एक चुनौती थी। संजय भी होनहार निकला... विज्ञान में थीसिस लिखने वह अमेरिका चला गया और वहीँ बस गया। मौसी ने भी उसके लिए ऐसी लड़की ढूँढी जो न केवल रूप रंग में बेमिसाल थी बल्कि तमाम पथरीली, काँटों भरी राह को अपने अनुकूल बनाती अपने बल पर पढ़ लिखकर ऑफ़िस में लैक्चरर थी। मौसी कहती थीं औरत की ज़िंदग़ी हर हाल में यातना भरी। चाहे कितनी भी सुख सुविधाएँ हों पर न जाने कहाँ से दुःख झन्न से गिरता है और छोटे बड़े सुखों को अपने में समेट लेता है।

इस लड़की... वंदना के संग भी हादसों का सिलसिला लगा रहा। पहले माँ फिर पिता की मृत्यु... छोटी बहन की जिम्मेवारी, वंदना ने खुद को तराशा है... गढ़ा है इतनी सफ़ाई से कि कहीं आड़ी तिरछी आकृति नहीं... साँचे में ढला... मुग्ध करता व्यक्तित्व... मौसी ऐसी लायक वर बहू पा धन्य थीं... छोटी बहन की शादी वंदना ने पहले ही निपटा दी थी। अमेरिका में लैक्चररशिप मिलते ही वंदना मौसी से ज़िद्द करने लगी थी अमेरिका चलकर रहने की... पर मौसी का मन आश्रम की ओर अधिक था।

मौसाजी के बाद वे हर साल होली और बसंत के भंडारे में आश्रम आती थीं। पता नहीं उनका मन सचमुच विरक्त हो रहा था या जीवन की असुरक्षा उन्हें बार-बार यहाँ आने पर मजबूर करती थी। अकेलेपन की पीड़ा, अपने स्वाभिमान की रक्षा कि किसी पर बोझ न बनें लेकिन औरत बेबस तब हो जाती है जब मर्दों के समाज में वह सिर्फ़ मादा के रूप में देखी जाती है। मुझे मौसी के दुःख मथानी की तरह बिलोते रहते।

अम्मा के बाद मौसी ने ही मुझे संभाला था। अम्मा की हूबहू प्रतिमा मौसी ने मुझे कभी माँ की कमी महसूस नहीं होने दी। २४ साल की उम्र से जो वैधव्य धारण किये हैं... रेशम किमख़ाब के रंगीन कपड़े, ज़ेवर, व्रत, त्योहार, मांगलिक उत्सवों से दूर... जब इस तरह समाज में रहना है तो क्यों न आश्रम में रहें। गुरूजी कहते हैं ‘खुद संसार में रहो पर संसार को अपने अंदर मत रहने दो। ईश्वर तेरो नाम, जो ध्यावें सो ही तरे ऽऽऽ

 

“ऐं, मंगलाचरण शुरू हो गया? गुरु महाराज आज जल्दी आ गये। बिट्टो... मुझे ये खंभे से टिकाकर बैठा दे।” विशाल हॉल में जहाँ-तहाँ सुंदर पच्चीकारी वाले खंभे थे। पूरे हॉल में बिछी दरियाँ... पाठियों के लिए थोड़ा ऊँचा स्थान... चादरें, मसनदें... चौकी पर रखी पोथी... सामने गुरूजी का सिंहासन और खचाखच भरा हॉल। मैं भी मौसी की बगल में जैसे तैसे समाई। भीड़ इस क़दर थी कि गुरूजी के चेहरे को साफ़ देख पाना मुश्किल था। सफ़ेद बुर्राक धोती कुरते और टोपी में उनका भव्य व्यक्तित्व हमेशा मेरे आकर्षण का केंद्र रहा है पर आज जहाँ देखो सिर ही सिर... दर्शन मिलना दूभर... मौसी ने हाथ जोड़ आँखें मूँदी और पाठियों की गई हुई लाइनों को जनसमूह के साथ गुन-गुनाने लगीं।

गुरूजी कल नेपाल जा रहे हैं। दस दिन बाद मकर संक्रांति के भंडारे पर लौटेंगे। इस बार भंडारे में बंगाल और उड़ीसा के लोग आयेंगे... आयेंगे क्या, आना शुरू हो चुके हैं। आश्रम लोगों की भीड़ से कसमसा उठा है पर फिर भी कितनी शांति, कैसा अपार सम्मोहन कि मन इधर से खिंचता है। जी चाहता है मोह माया छोड़ इधर ही आ बसूँ... दीक्षा ले लूँ पर सांसारिक जिम्मेवारियों से मुँह भी तो नहीं मोड़ा जा सकता।

प्रार्थना के बाद गुरु वचन हुए और धीरे-धीरे बड़े ही शांतिपूर्वक भीड़ हॉल से बाहर निकल आई। लेकिन बाहर आते ही भगदड़ सी मच गई। कम उम्र की लड़कियाँ पी.टी. ग्राउंड की ओर बढ़ लीं, बाकी गेट की ओर। खेतों पर ले जाने के लिए यहाँ ट्रक तैयार खड़ा था। कुल दो ट्रक और इतने लोग लेकिन पंद्रह बीस मिनट में ही फेरी पर फेरी लगाकर दोनों ट्रक सभी को खेत पर पहुँचा देते। मौसी ने मेरी पीठ पर हलके से दबाव डाला। पचहत्तर वर्षीया मौसी की बीमारी से दुर्बल देह काँप रही थी। वैसे उनका स्वास्थ्य हमेशा अच्छा रहा है। इक्का-दुक्का दाँत ही टूटे हैं। शानदार सफेदी लिए बाल अभी तक रेशम जैसे मुलायम और कमर तक लंबे हैं। बिना चश्मे के अखबार तक पढ़ लेती हैं। आश्रम में नौकर रखने की परंपरा नहीं है, फिर भी वे कभी भंडारघर से खाना नहीं मँगवातीं। अपना खाना खुद बनाती हैं। सिलबट्टे पर ताज़ा पिसा बारीक मसाला और उसमें भुनी सब्ज़ियाँ उन्हें ख़ास पसंद हैं। मैं आती हूँ तो उनकी ख़ास यही फरमाइश रहती है।

मौसी सीता बहनजी का हाथ पकड़े घर की ओर चल दीं। सुबह के छै: बज चुके थे। उजाला धीरे-धीरे फूटने लगा था। मैं ट्रक से लगी लकड़ी की सीढ़ी चढ़ ट्रक में जा बैठी। गेट पर लगे जवाकुसुम के पेड़ पर फुदकती चिड़ियों का शोर ट्रक की आवाज़ में खो सा गया। गेट से बाहर सड़क के किनारे-किनारे आश्रम के खेत ही खेत... ठंडी हवा चुभने लगी। मैंने शॉल में चेहरा नाक तक छुपा लिया। ट्रक में बैठी औरतें एक स्वर में भजन गाने लगीं। एक औरत कान के समीप होठ ला फुसफुसाई- “तुम राधाप्यारी की भाँजी शकुंतला हो न... मुंबई वाली।”

मैंने चकित हो उनके झुर्री भरे साँवले चेहरे को देखा। “राधाप्यारी अब बीमार रहने लगी है। नहीं तो एक दिन भी नहीं छूटता था जब वो खेतों पर न जाएँ। हम दोनों ने साथ-साथ ही आश्रम में दीक्षा ली थी। बीस बरस हो गये। वो पचपन की थी मैं पचास की... पचपन की थीं पर पैंतीस-चालीस से ज़्यादा की नहीं दिखती थीं... वैसे भी पचपन में कहीं बुढ़ापा आता है? पूरा बसंत रहता है औरत पर।”

उनके चेहरे पर जीवन से असंतुष्टि के भाव मैं साफ़ देख रही थी। आश्रम में रहकर भी वे छूट नहीं पाईं मायाजाल से। ट्रक धक्के के साथ रुका। ट्रक की रेलिंग का पलड़ा सटाक से नीचे गिरा। मैं नीचे उतरी तो हरियाली के समंदर में आँखें ताज़गी और ठंडक में गोते लगाने लगीं। कैंची, दरांती, खुरपी और टोकरी के ढेर में से मैंने कैंची और टोकरी ले ली। फिर चाय पीने टंकी के पास चली आई। खेतों से हटकर गुरूजी के लिए गार्डन छतरी लगाई जा रही थी। छतरी के नीचे एक कुर्सी और ज़मीन पर चटाई। यहीं विराजकर गुरूजी लोगों का दुःख दर्द बाँटेंगे। आज मुझे भी सवाल करना है उनसे। मन का बोझ हलका करना है। लेकिन पहले काम... कैंची से मटर की भरी-भरी फलियाँ तोड़कर मैंने टोकरी में भर लीं और बोरे में जाकर उँडेल दीं। तमाम सब्ज़ियों से भरे बोरे ट्रक में लादकर आश्रम पहुँचाये जा रहे थे। पलक झपकते ही बोरे भरते और ट्रक में लद जाते। भक्तिभाव में डूबे आश्रमवासियों को श्रम की ज़रा भी थकान नहीं... क्या बच्चे, क्या जवान, क्या बूढ़े सब जुटे हैं। यह श्रम सेवा कहलाता है। और भी सेवाएँ हैं... लोग आश्रम समिति से हाथ जोड़-जोड़कर सेवा माँगते हैं... समिति के पदाधिकारी न उम्र देखते हैं न ये देखते कि कौन किन पदों में अतीत में था। अध्यापक को आश्रम के बगीचों में झाड़ू लगाने, घास काटने का काम दे देते हैं तो न्यायाधीश को सत्संग हॉल से सटे प्रसाद सेंटर में प्रसाद बेचने का काम... बड़े-बड़े पदों से रिटायर होकर या नौकरी छोड़कर आई औरतें भंडार घर में अनाज बीनती हैं, सब्ज़ियाँ काटती हैं, रोटियाँ बेलती, सेंकती हैं। सब सेवा में गिना जाता है। इसके लिए कोई तनख्वाह नहीं दी जाती। मौसी को प्रसाद बेचने की सेवा मिली थी। आज तक भाग्य सराहती हैं वे... “गुरूजी ने मुझे सेवा का मौका देकर कर्मों का बंधन इसी जनम में काट दिया।”

यह आश्रम एक छोटा-सा शहर ही तो है। जीवन की आवश्यकता के लिए कभी आश्रम से बाहर नहीं जाना पड़ता। पहले यहाँ शमशान था। शमशान के उस तरफ़ नदी बहती है। लोग दाह संस्कार करके नदी में डुबकी लगाकर घर लौटते थे। इस धर्म के संस्थापक गिरिराज महाराज शमशान से लगी सड़क से जब भी गुज़रते, भटकती आत्माएँ उन्हें तंग करतीं। उन्हें तारने के उद्देश्य से और संसार को धर्म और आस्था की राह दिखाने के लिए शमशान भूमि पर यह आश्रम बना... गिरिराज महाराज के बाद मौजूदा गुरु... गुरुओं की सातवीं पीठ के हैं।

साढ़े आठ बजे सबको नाश्ते में गरम पूड़ियाँ और आलू की सब्ज़ी के पैकेट बाँटे गये। सुबह की खुनक के बावजूद अब मौसम गुनगुना उठा था। सूरज की गुलाबी किरनों ने मटर के पौधों को सेंक देकर हवा में उसकी मीठी खुशबू भर दी थी। मकर संक्रांति के भंडारे पर गुरूजी नेपाल से लौटेंगे इसलिए उनकी कुर्सी के पास लोगों की भीड़ थी। कैसा समा रहता है भंडारे पर... पूरा आश्रम पीले फूलों से सज उठता है... गुरूजी के हाथों माथे पर हल्दी रोली का तिलक और बूँदी के लड्डू का प्रसाद पा लोग धन्य हो जाते हैं। फिर भंडारा होता है... सभी लोग घर से बनाकर लाए प्रसाद को मिल बाँट कर खाते हैं। शाम को आश्रम के कॉलेज के विद्यार्थी सांस्कृतिक कार्यक्रम नाच, गाना, नाटक प्रस्तुत करते हैं।

 

“गुरूजी... मन में बड़े दिनों से दुविधा है... पूछूँ?” काम समाप्त कर मैं उनके सामने थी। उन्होंने अपनी तेजस्वी आँखों से पल भर मुझे देखा... उस क्षण मैं दीन दुनिया को भूल उन आँखों में समा गई। मुझे एहसास हुआ कि यह जगत मिथ्या है और अगर सत्य है तो केवल अपनी आत्मा को कर्मों से मुक्त करना।

“भंडारे तक हो न... इंजीनियर कॉलेज के छात्रों द्वारा खेले जा रहे नाटक को देखना, शांति मिलेगी।” उन्होंने मेरे सिर पर हाथ रखा और पास रखे कटोरे से चिरौंजी दानों का प्रसाद मेरी हथेली पर रख दिया। उस क्षण मैं असीम हो उठी। मुझे लगा जैसे मेरा पोर-पोर आत्मा बन मेरे शरीर को भारहीन, रुई के फाहे सा हलका किये डाल रहा है और अब इस भारहीन शरीर में कोई दुविधा, कोई संशय नहीं। मैं गुरूजी के आगे नतमस्तक भाव विभोर हो गई... न जाने गुरुमुख से ऐसी कौन सी वाणी मेरी आत्मा ने सुन ली कि मेरे मन पर रखे पर्वतों का बोझ दूधिया झरना बन बह चला। हवा में उड़ती-सी घर लौटी।

मौसी सीता बहनजी के साथ चाय टोस्ट का नाश्ता करती बतिया रही थीं। देखते ही बोलीं- “थक गईं बिट्टो?”

मुझे लगा कहूँ... मौसी, आज तो आत्मा की थकान उतार आई हूँ। आज थकना कैसा?”

मौसी की तबीयत में काफी सुधार था। दोपहर को खाने के दौरान बोली- “बिट्टो, एक बार बैंक जाकर लॉकर से जेवरों का डिब्बा लाकर दिखा दे... देख लूँ क्या-क्या है? सबका हिस्सा निकाल दूँ... ज़िंदग़ी का क्या भरोसा... बुढ़ापा महारोग होता है।”

जानती हूँ मौसी बेहद शौकीन तबीयत की हैं... लेकिन वैधव्य की कुरीतियों ने उन्हें खुलकर जीने न दिया। मौसाजी के बाद वे खुद को भूल अपनी इच्छाओं को मारकर संजय को होनहार बनाने का तप करती रहीं। अकेली औरत की ज़िंदग़ी चट्टानों और बीहड़ों का सैलाब... ज़रा सा चूके कि लहूलुहान... गोद में नन्हा संजय और मौसी की कमसिन, मोहक देह पर टिकी मर्दों की लोलुप निग़ाहें... उस आँच से खुद को बचाते हुए वे कितनी बार कलपी होंगी, थकी होंगी, भयभीत हुई होंगी, टूटी होंगी... शायद इसी टूटन ने उन्हें चट्टान-सा मज़बूत बना दिया है। कितना बेरहम अतीत होगा उनका जो संजय और वंदना की हज़ारहा कोशिशों के बावजूद उन्होंने सारी दुनिया के आकर्षण का केंद्र अमेरिका को रहने के लिए नहीं चुना... चुनी तो पल-पल मृत्यु का बोध करती यह रूखी सूखी आश्रम की ज़िंदग़ी। कहती हैं ‘मैं यहाँ संतुष्ट हूँ, बड़ी शांति मिलती है यहाँ’ पर जानती हूँ उनका मन अभी पूरी तरह विरक्त नहीं हुआ है।

पूजा, उत्सव उन्हें खूब याद रहते हैं। साल छै: महीने में एक बार अपनी कोठी में लौटकर वे देख आती है, नौकरों ने साफ़ सफ़ाई रखी है या नहीं। हर कमरा चमकता, दमकता मिलना चाहिए। झाड़ फानूस साफ़ सुथरे, शीशे-दरवाज़े चमकते हुए, परदे धुले कालीन पर धूल की पर्त्त नहीं... बगीचे की क्यारियों में घास फूस तो नहीं। मौसम आने पर आम, कटहल, इमली खूब फले होते हैं। जाकर संजय और मेरे लिए अचार डाल आती हैं, पापड़-बड़ियाँ बना आती हैं। ज़िंदग़ी से यह लगाव उनके लिए मकड़जाल सिद्ध हो रहा है या जीने का बहाना... मैं समझ नहीं पाती हूँ।

 

जब आश्रम में आईं थी तो क्वार्टर मिला था रहने को। दस रुपिए महीने का। जैसा उनकी कोठी में सर्वेंट क्वार्टर है। देखकर संजय रो पड़ा था- “माँ, यहाँ रहोगी क्या?” और तुरंत ही भेंट क्वार्टर के लिए एप्लाई कर दिया था। नये नकोर तीन कमरे, चौके, आँगन और छत वाले भेंट क्वार्टर को पा वे उसकी सजावट में जुट गई थीं। आँगन में अनार, पपीते और तुलसी के पौधे रोपे थे। बाहर गेट पर बोगनविला... बैंजनी फूलों पर गौरेयां दिनभर शोर मचाती। मुझे उनका यह घर बहुत पसंद है पर मन में यही दुविधा तो सताती है कि यह भेंट क्वार्टर क्यों है? क्यों नहीं मौसी के बाद संजय यह घर बेच सकता? क्यों इस घर को पाने के लिए उसे दीक्षा लेना ज़रूरी है और साल में कम-से- कम चार महीने रहना भी ज़रूरी है? मौसी कहती हैं- ‘बिट्टो तू दीक्षा ले ले। दामादजी के साथ यहीं रह... उधर कहाँ मुंबई की आपाधापी में पड़ी है। यह घर फिर मैं तेरे लिए गुरूजी से माँग लूँगी।”

अपनी ही संपत्ति की माँग? आख़िर क्यों? क्यों नहीं मौसी के बाद यह घर संजय बेच सकता? आश्रम वासियों से इतना बड़ा अनुदान!!

मेरे सवालों का जवाब गुरूजी ने क्यों नहीं दिया... क्यों मुझे सम्मोहित कर नाटक देखने की राय दी? नाटक मैं ज़रूर देखूँगी, अपने विचलित मन का समाधान शायद पा लूँ। कभी-कभी मन करता है सच में दीक्षा ले ही लूँ... बेटा बहू पे गृहस्थी छोड़ पति के साथ यहीं आ बसूँ। वे भी तो वहाँ बिस्तर ही भोग रहे हैं। यहाँ रहें तो शायद अच्छे हो जाएँ। बेटी अपनी मन मर्ज़ी की है। इतनी जगह शादी की बात चलाई हर जगह मनाही... नहीं करूँगी शादी, मुझे मेरे ढंग से जीने दो... तो जिए... मैं कहाँ तक आड़ बनी रहूँ... यहाँ कितना अच्छा लगता है। न रेडियो, न टी.वी. की बकबक... साफ़ सुथरा, हरा-भरा, खिला फूला आश्रम, सत्संग, भंडारे... खेत, सेवा ही मिल सकती है, अगर गुरूजी की कृपा रही... जन्म सार्थक हो जाएगा... उस पार का किसने देखा, अभी तो शांति से जिएँ।

झाड़ियों में करौंदा खूब फला है। कॉलेज की लड़कियाँ पंजों के बल उचक-उचक करौंदे तोड़ रही हैं और मुँह में, जेबों में भर-भर कर चटखारे ले रही हैं। गुरूजी नेपाल से लौट आये हैं और लड़के-लड़कियाँ मिलकर आश्रम को गेंदे के फूलों से सजाने में जुटे हैं। यहाँ लड़के लड़कियों दोनों के छात्रावास हैं, इंजीनियर कॉलेज, डिग्री कॉलेज, जूनियर कॉलेज भी हैं। जिन्होंने इस धर्म की दीक्षा ली है और वे आश्रम में नहीं रहते हैं उनके बच्चे यहाँ पढ़ते हैं... उनकी शादियाँ भी यहाँ होती हैं। गुरूजी अँगूठी बदलवाकर, एक दूसरे के गले में जयमाला डलवाकर शादी करवा देते हैं। हर चीज़ में सादगी... ज़िंदग़ी की जितनी आवश्यकता उतना ही ख़र्च... बस।

भंडारे के दिन मौसी का उत्साह देखते ही बनता था। समय से काफ़ी पहले वे मेरे साथ चबूतरे पहुँच गई थीं। उन्हें आगे की पंक्ति में बैठने मिल गया था जहाँ से गुरूजी साफ़ दिखाई देते थे। दर्शन भी और सत्संग भी। दोनों पुण्य साथ-साथ। नेपाल से गुरूजी द्वारा लाये गये कंबलों की सेल शुरू हो चुकी थी। सेल के बाद भंडारा... जश्न जैसा माहौल था। सब भक्तिभाव में डूबे, खुद को संसार से विरक्त मानने का भ्रम पाले, जीवन से असंतुष्टि का भाव लिए... आश्रम के अंदर भी उतने ही लालायित जितने कि आश्रम के बाहर।

करीब सात बजे मेरा चिर प्रतीक्षित नाटक शुरू हुआ। मैंने अपने को एकाग्र किया। यह नाटक मेरे लिए मेरी शंकाओं का खुला दस्तावेज था ऐसा गुरूजी ने अपनी भावभंगिमा से मुझे बताया था। मेरा दिमाग अर्जुन की आँख बन गया। मंच पर गहन अंधकार था। अचानक एक मानव पर परछाईं प्रकाश के बिंबों में उभरी जो बेचैनी से शून्य में भटक रही थी। यह परछाई उस अमीर व्यक्ति की आत्मा थी जिसकी कुछ ही घंटों पहले मृत्यु हुई थी। पर वह इतनी बेचैन थी कि न संसार में रह पा रही थी, न ईश्वर की शरण में जा पा रही थी। वह त्रिशंकु की तरह अधर में लटकी अपने ऐशो आराम से भरे घर को निहार रही थी जिसकी एक-एक ईंट उसकी अपनी मेहनत का नतीजा थी... यह घर उससे छूट गया... वह धरती पर अपने घर लौटना चाहती है पर लौटे कैसे, उसका शरीर तो जलकर राख हो गया। तभी उस प्रकाश पुंज से आवाज़ आती है... जब शरीर ही तेरा नहीं रहा तो ईंट पत्थरों का घर तेरा कैसे रह सकता है? सत् गुरु महाराज के वचन हैं... कुछ भी तेरा नहीं, बस आत्मा तेरी है सो उसे मोह माया से मुक्त रख और घर द्वार सब सत् गुरु के चरणों में आने वाली पीढ़ी के लिए भेंट कर दे... मुक्त हो जा... यवनिका गिरते ही मेरी आँखों पर पड़ा परदा भी हट गया। नाटक बहुत सीधा सरल लेकिन गहरे अर्थों से भरा था। मैंने पाया कि मैं तमाम सांसारिक प्रपंचों से अलग आज खुद को पा सकी हूँ, खुद में उतर सकी हूँ।

अगली सुबह मेरे दृढ़ निश्चय की पुख़्ता दीवार ने मेरे बिखरे मन को समेटकर एक सुरक्षा सी प्रदान की। मैंने मौसी से कहा- “मौसी, मैं दीक्षा लेना चाहती हूँ।” वे गद्गद् हो उठीं। मुझे पास बुलाकर खूब लिपटाया, चूमा... पान रचे उनके होठों से मेरे गाल भी लाल हो गये। बैंक से मँगवाया जेवरों का डिब्बा वे उठा लाईं- “अब तू दीक्षा ले रही है तो मुझे फ़िकर नहीं इस लाव लश्कर की... देख ये बाजूबंद, माँग टीका और नेकलेस वंदना को दे देना। मेरी सास ने दिए थे मुझे। ख़ानदानी अमानत है। सही जगह पहुँचे तो अच्छा है। और ये कंगन मुझे मुँह दिखाई में मिले थे, इन्हें तू रख ले। मैंने तुझे जन्म नहीं दिया तो क्या... मैं तो तेरी यशोदा मैया हूँ। कोठी में अलमारी में अलग-अलग खानों में मैं सबके कपड़े रख कर नामों की चिट लगा आई हूँ। लहँगे, बनारसी साड़ियाँ। वंदना, तेरी बहू और बेटी और तेरे नामों की चिट लगी है, सो ले लेना बाद में... हाँ बिट्टो... तू संजय को कोठी मत बेचने देना। तेरे मौसाजी ने बड़े चाव से खरीदी थी। अब मेरा क्या... ज़िंदग़ी की संझा बेला... कब प्राण निकल जाएँ।

मैं अवाक... समझ में नहीं आ रहा था कि विरक्त कौन है... वे जो पिछले बीस वर्षों से ईश्वर को समर्पित रहीं या मैं जो ईश्वर की ओर अभी-अभी उन्मुख हुई हूँ।


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