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Renu Gupta

Drama

2.5  

Renu Gupta

Drama

मैं हूँ ना

मैं हूँ ना

16 mins
733


मैं हूँ ना

बसंत ने कालिंदी की आंखों में झांकते हुए बेहद भाव विह्वल स्वरों में उससे कहा था, ‘‘कालिंदी, मैं तुम्हें अपनी पत्नी बनाना चाहता हूं, तुमसे विवाह करना चाहता हूं। वायदा करता हूं, कभी तुम्हारी इन आंखों में आंसू नहीं आने दूंगा, तुम्हारे सूने जीवन को बेइंतिहा खुशियों से भर दूंगा। बोलो, अप्पू की मां बनोगी?,’’ बसंत का यह विवाह प्रस्ताव सुनकर कालिंदी की कुछ समझ में न आया था कि वह उससे क्या कहे? फिर क्षणभर में तनिक सोच कर उसने उससे कहा था, ‘‘बसंत थोड़ा रुक जाओ, मैं तुम्हें ना नहीं कह रही, लेकिन मुझे थोड़ा समय दो अपनी पिछली अस्त व्यस्त जिन्दगी से उबरने के लिए। अभी मेरा तलाक हुए छह माह ही तो बीते हैं। मुझे थोड़ा वक्त और चाहिए अपनी पटरी से उतरी जिन्दगी को ट्रेक पर लाने के लिए।’’ 

‘‘ठीक है, अब मैं अपना यह प्रस्ताव फिर से ठीक एक साल बाद दोहराऊंगा। पिछले कुछ दिनों से मैं तुम्हें बहुत पसन्द करने लगा हूं, जिन्दगी के सफर में तुम्हारा साथ चाहता हूं, थक सा गया हूं इतने दिनों से अकेले चलते चलते। अब मैं तुम्हें किसी कीमत पर खोना नहीं चाहता,’’ बसंत ने कालिंदी का जवाब सुन तनिक निराशा से कहा था और फिर वह वहां से चला गया था।

                                                   बसंत को विदा दे फ्लैट का दरवाजा बंद कर कालिंदी बीते दिनों की खट्टी मीठी यादों के सैलाब के साथ बह निकली थी। शीतल के साथ बीते दिनों की मीठी स्मृतियां तो अंगुलियों पर गिनने लायक भर थीं। शीतल से विवाह के बाद शुरूआती पांच छह माह ही अच्छे बीते थे। उसके बाद तो शीतल ने अपने अंदर की रिक्तता और कड़वाहट से उसकी सारी जिंदगी बदरंग बना दी थी। और अनायास वह शीतल के साथ बिताई जिंदगी के बियाबान वीराने में एक बार फिर से घिर गई थी और पुराने दिनों को जीने लगी थी। शीतल बेहद असंवेदनशील, रूक्ष और झगड़ालू प्रवृत्ति का इंसान था। पांच वर्षों पहले उसका विवाह कालिंदी से हुआ था। विवाह के बाद मात्र वर्षभर ही वह शीतल के साथ सुकून के साथ रह पाई थी। साल बीतते बीतते उसके साथ आए दिन लड़ाई होती। अपने कलह प्रिय, गर्म मिजाज के चलते वह मामूली सी बातों पर कालिंदी से तुनक जाता और उस पर बेहिसाब गुस्सा करता।

                                                             उसे आज तक याद है, तब उसके विवाह को मात्र वर्ष भर हुआ था। उसे शुरू से बच्चे बहुत अच्छे लगते थे। विवाह की पहली वर्षगांठ पर वे एक बढिय़ा होटल में खाना खाने गए थे। वहीं कालिंदी ने उससे कुछ झिझकते हुए पूछा था,‘‘शीतल, अब तो अपने विवाह को एक वर्ष होने आया, अब हमें अपना परिवार बढ़ाने की दिशा में सोचना चाहिए।’’ कि उसकी इस बात पर वह अप्रत्याशित रूप से आग बबूला हो गया था और उसने उससे कहा था, ‘‘ आज तो यह बात तुमने मुझसे कह दी, लेकिन फिर कभी यह बात मुझसे मत कहना। मुझे बच्चों से सख्त नफरत है। बच्चे किसी काम के नहीं होते। इतनी मुश्किल से उन्हें पालो पोसो, और फिर वो अपनी जिंदगी में मसरूफ हो जाते हैं। मुझे अपनी जिंदगी में बच्चे नहीं चाहिए। याद रखना। जिस दिन तुमने बच्चे के बारे में सोचा, उसी दिन तुम्हारे मेरे रास्ते अलग।” शीतल की यह बात सुनकर वह जीते जी मर गई थी। वह स्वयं एक सुखी परिवार के दो बच्चों में बड़ी संतान थी। उसे याद नहीं कि उसके माता पिता कभी उसके सामने जोर से लड़े हों। घर में सदैव सुख शांति रहती। माता पिता के बेहद शांत, सुलझे हुए व्यक्तित्व के अनुरूप वह स्वयं भी बेहद शांतिप्रिय और मेच्योर युवती थी। शीतल का क्लेशी स्वभाव देख उसने भरसक उसके साथ सामंजस्य बैठाने प्रयास किया था। जब भी वह क्रोध के अतिरेक में उस पर चिल्लाता वह मौन हो जाती। अपनी ओर से जानबूझ कर कभी शीतल को मौका नहीं देती कि वह किसी बात पर गुस्सा करे। लेकिन अपने अशांत स्वभाव के कारण शीतल कभी संयत नहीं रहता। बहाने बहाने से उससे लड़ता। यूं ही उसके दिन घोर उद्विग्नता में बीत रहे थे। फिर विवाह से पहले से ही उसने अपने विवाहित जीवन में कम से कम दो संतानों की कामना की थी। लेकिन शीतल की बच्चों के प्रति घोर वितृष्णा देख वह बेहद क्षुब्ध हो उठी थी। विवाह की पहली वर्षगांठ के बाद उसने एकाध बार उसे और समझाने का प्रयास किया था कि बच्चों के बिना विवाहित जीवन अर्थहीन है, बेमकसद है। लेकिन उसके बच्चों का मुद्दा उठाने पर वह बुरी तरह झुंझला उठता, उसे अपशब्द बोलने लगता। सो अब वह डर के कारण उससे बच्चों की बात ही नहीं करती। भीतर ही भीतर घुटती रहती।                                                                     विवाह के पहले से उसे कविताएं लिखने का बेहद शौक था। कॉलेज के जमाने में इतनी भावपूर्ण कविताएं लिखती कि उसकी सहेलियां उसे महादेवी के नाम से छेड़ा करतीं। शीतल के साथ रहकर वह सदैव विकल रहा करती थी। और घोर उद्विग्नता के इस दौर में उसके अंतरमन का सारा संताप अक्षरों की राह बाहर निकलता। अन्त:करण का सारा विषाद उसकी कविताओं में अभिव्यक्त होता। जिंदगी के थपेड़ों की आंच से उसके लेखन में एक ऊष्मा भरी गहराई आ गई थी और देश के प्रसिद्ध पत्र पत्रिकाओं में उसकी कविताएं प्रकाशित होने लगी थीं। गाहे बगाहे शहर में होने वाले कवि सम्मेलनों से निमंत्रण आने लगे थे। 

                                                          शीतल को उसका यह साहित्य प्रेम फूटी आंखों न सुहाता। कवि सम्मेलनों से उसका बुलावा आने पर वह चिढक़र उसे जली कटी सुनाता। लेकिन जीवन के इस कटु मोड़ पर कविता सृजन उसे इन प्रतिकूल परिस्थितियों में भी उसकी जिजीविषा की अगन को सुलगाए रखता। उसे हिम्मत से जीने के लिए राह दिखाता। वह शहर के एक नामी गिरामी स्कूल में वरिष्ठ शिक्षिका के पद पर कार्यरत थीं सो स्कूल से बचा सारा समय वह कविता लेखन में लगाती। वक्त के साथ एक सशक्त कवियत्री के रूप में उसकी पहचान बन रही थी।                                                                             एक बार उसे अपने ही शहर में राष्ट्रीय स्तर के प्रतिष्ठित आयोजकों द्वारा आयोजित कवि सम्मेलन का आमंत्रण आया था। इस उपलब्धि पर वह खुशी से नाच उठी थी। उसके पांव जमीं पर नहीं पड़ रहे थे। उसे यूं महसूस हो रहा था मानो वह सातवें आसमान पहुंच गई थी। शीतल के घर आने पर जब उसने उसे इस निमंत्रण के विषय में बताया, वह क्रोध से फट पड़ा था, “इन कवि सम्मेलनों में क्या रखा है, महज समय की बर्बादी के अलावा? घर गृहस्थीदार औरतों को क्या आधी आधी रात तक इनके बहाने घर से बाहर रहना शोभा देता है? तुम इस कवि सम्मेलन में नहीं जाओगी। चुपचाप घर में बैठो ओर घर के काम करो।’’

                                          कालिंदी उस समय तो शीतल को गुस्से में आग बबूला देख चुप्पी साध गई थी। लेकिन शांत मन से इस मसले पर सोचने पर उसने निर्णय लिया था कि शीतल की इस गलत मांग के सामने वह घुटने कतई नहीं टेकेगी। काव्य रचना उसके बेरंग जीवन का एकमात्र अवलंब था जो उसे भरपूर खुशी और संतुष्टि देता था। इसलिए उसने सोचा था कि उसे शीतल की इस अनुचित मंशा का हर हाल में विरोध करना ही होगा। 

वह कवि सम्मेलन अगले ही दिन था, जो शाम के पांच बजे शुरू होने वाला था। सो वह हिम्मत जुटा कर शीतल के आफिस से लौटने से पहले वहां के लिए रवाना हो गई थी। वह शीतल के लिए एक पत्र लिखकर छोड़ गई थी,‘‘ मैं तुम्हारी हर बात नहीं मान सकती। बहुत मुश्किल से मैने यह मुकाम पाया है जो मैं तुम्हारी बेवजह जिद की वजह से नहीं गंवा सकती। में कवि सम्मेलन से करीब बारह बजे तक लौटूंगी।’’

                                          वह एक दृढ़ इच्छा शक्ति और मजबूत इरादों वाली युवती थी। जो ठान लेती, वह करके रहती। शीतल की गलत मांग के सामने उसने हथियार नहीं डाले थे ओर वह कवि सम्मेलन के लिए रवाना हो गई थी। लेकिन शीतल के संभावित क्रोध के विषय में सोचकर वह पूरे वक्त तनिक विकल रही थी। कवि सम्मेलन खत्म होते होते रात के साढ़े बारह बज गए थे। और इतनी देर से घर लौटते वक्त वह बेहद बेचैन महसूस कर रही थी। शीतल का संभावित क्रोध उसे रह रहकर सहमा रहा था।

         घर के सामने पहुंचकर तनिक डरते हुए उसने अपने घर का दरवाजा खटखटाया था। आशा के अनुरूप पहले दस मिनिट तो शीतल ने दरवाजा ही नहीं खोला। फिर किवाड़ खोलते ही वह उस पर अदम्य क्रोध से चिल्लाया था, ‘‘रात भी वहीं बिता लेती। अभी भी घर आने की जरूरत क्या थी? शरीफ घरों की औरतों के ये लक्षण होते हैं कि रात के एक एक बजे तक घर के बाहर रहें?’’ इस पर कालिंदी ने अत्यंत शांत और सधे हुए स्वरों में उसे जवाब दिया था,‘‘ शीतल, बेवजह बात का बतंगड़ मत बनाओ। मुझे कोई शौक नहीं है बिना बात के आधी रात तक घर के बाहर रहने का। लेकिन कान खोलकर सुन लो, तुम मुझे कवि सम्मेलनों में शिरकत करने से हर्गिज नहीं रोक सकते, किसी भी हालत में। कविता लेखन मेरा शौक है, मेरा पैशन है, और यह मैं किसी भी कीमत पर नहीं छोड़ सकती।’’

‘‘कविता लेखन नहीं छोड़ सकती तो इस घर में तुम्हारे लिए कोई जगह नहीं है। मैं हर्गिज यह बरदाश्त नहीं कर सकता कि मेरी बीवी रात के एक एक बजे घर लौटे।’’ और यह कहते हुए शीतल ने उसके मुंह पर भड़ाक से दरवाजा बंद कर दिया था।                                 रात के एक बजने आए थे। इतनी रात को अपने आपको यूं घर के बाहर खड़ा देख कर कालिंदी की आंखों में बेबसी के आंसू छलक आए थे। लेकिन तत्क्षण ही उसने कुछ सोचा था ओर अपनी गाड़ी में बैठ उसने उसे अपनी बुजुर्ग सहेली दिशाजी के घर की ओर मोड़ दिया था। उसने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि शीतल उसके साथ ऐसा बर्ताव करेगा। कॉलेज के जमाने में दिशाजी उसकी हिंदी की प्रोफेसर रह चुकीं थीं और उन्होंने सदैव उसे कविता लेखन के क्षेत्र में प्रोत्साहित किया था। शुरू शुरू में वह जब भी कोई कविता लिखती, उसे दिशाजी को दिखाती और दिशाजी उसकी कविताओं के लिए सदैव उसकी पीठ थपथपातीं। वह हमेशा उससे कहतीं थीं कि उसे सदैव अपना कविता लेखन जारी रखना चाहिए क्योंकि वह बहुत अच्छा लिखती हैं और वह दिन दूर नहीं जब वह बहुत नाम कमाएगी।

दिशाजी उसकी परम हितेषी थीं और उन्होंने हमेशा प्रतिकूल परिस्थितियों में अपनी प्रेरणास्पद बातों से उसका मनोबल ऊंचा किया था। वह उससे बहुत ममता करतीं थीं। और आज रात कवि सम्मेलन में वे दोनों साथ साथ ही बैठीं थीं। शायद वही इस समस्या का कोई तोड़ बताए, यह सोचते हुए उसने दिशाजी के घर की घंटी बजाई थी। 

                                उसे यूं अप्रत्याशित रूप से अपने दरवाजे पर खड़ा देख दिशाजी चोंक गई थीं। फिर उन्होंने उसे बेहद अपनत्व से घर के भीतर बुलाकर अपने कमरे में बैठाया था और उससे सारी बातें पूछीं थीं। वे दोनों सुबह के पांच बजे तक बातें करते रहे थे और इस बार कालिंदी ने उन्हें शीतल के बारे में एक एक बात विस्तार से बताई थी। उसकी बच्चों के प्रति वितृष्णा के बारे में खुलासा किया था। उसके स्वभाव, उसके व्यवहार के बारे में कुछ भी नहीं छिपाया था उनसे। और फिर उसने उनसे पूछा था, ‘‘मैम आप ही बताइये, इन परिस्थितियों में मैं क्या करूं? एक तो शीतल की बच्चों के लिए अनिच्छा ने मेरा दिन रात का सुकून छीन लिया है। अपने बच्चे का मुंह देखने के लिए मेरा मन तरसता है। बच्चे के बिना मुझे अपनी जिंदगी बेमानी लगने लगी है। फिर भी मैंने भरसक कोशिश की है उसकी हर जायज, नाजायज बात को मानते हुए घर में शांति बनाए रखने की। लेकिन शीतल तो बेहद गुस्सैल, झगड़ालू और असंवेदनशील बंदा है जिसे मेरी हर बात पर आपत्ति है। वह मामूली बातों पर अपना आपा खो देता है और गुस्से में चीखने चिल्लाने लगता है। अब उसने रट लगा रखी है कि मैं कवि सम्मेलनों में नहीं जाया करूं। लेकिन मैम बरदाश्त करने की भी हद होती है। कविता लेखन मेरा पैशन है। इसी ने मुझे आज तक इन कठिन परिस्थितियों में भी सामान्य बने रहने की ताकत दी है। मेरी जिजीविषा को जिंदा रखा है। कोई और होती तो जिंदगी से हार मान चुकी होती। मैने अब निश्चय किया है कि मैं उसकी यह बात कतई नहीं मानूंगी। मैने बस घर में हर कीमत पर सुख शांति बनाए रखने के लिए आज तक उसकी हर जायज नाजायज बात मानी है, लेकिन बस अब और नहीं। अब आप ही बताइये, क्या में कहीं गलत हूं?’’ “नहीं नहीं कालिंदी, इसमें तुम्हारी बिल्कुल गलती नहीं हैं। बच्चों के लिए मना कर वह तुमसे तुम्हारा मातृत्व पाने का मूलभूत अधिकार छीन रहा है, तुम्हारे साथ बेहद ज्यादती कर रहा है। तुम्हारी बातों से मुझे लगा कि शीतल तुम्हारे समक्ष इनफीरियरिटी कांप्लेक्स से ग्रस्त है। तुम इतनी सुन्दर हो, जहीन हो, बुद्धिजीवी हो, समाज में तुम्हारी प्रतिष्ठा है। लोग तुम्हें तुम्हारी क्रिएटिविटी और प्रतिभा के लिए भरपूर सम्मान देते हैं। यह बात शीतल को हजम नहीं होती। वह तुम्हारे सामने हीनता की भावना से ग्रस्त है और कुछ नहीं। और उसमें तुम्हें लेकर असुरक्षा की भावना घर कर गई है जिसके चलते वह तुम पर हर समय रौब जमाने की कोशिश करता है, तुम पर चीखता चिल्लाता है। तुम अगर उसके साथ रही तो तुम्हें उसका चीखना चिल्लाना जिंदगी भर सहना पड़ेगा और तुम्हारा व्यक्तित्व खत्म हो जाएगा। अब इन परिस्थितियों में तुम्हें मजबूत होकर निर्णय लेना है कि तुम उसके साथ अपनी पूरी जिंदगी बिताना चाहती हो या नहीं। मेरी अपनी सोच यह है कि तुम्हें ऐसे गुस्सैल, असंवेदनशील छिछली मानसिकता वाले तानाशाह स्वभाव के इंसान के साथ जिदंगी नहीं बितानी चाहिए जो तुम्हारे व्यक्तित्व को कुचलना चाहता है, जो तुम्हारी अस्मिता के लिए एक खतरा बन चुका है। उसकी वजह से तुम कभी हंसी खुशी भरा सामान्य जीवन नहीं जी पाओगी। इसलिए तुम्हें सोचना है कि तुम उसके साथ जिंदगी बिताना चाहती हो या नहीं।’’ 

“मैम, आपकी बात तो सही है, शीतल के साथ मैं सुकून से नहीं रह पा रही हूं। में उसकी वजह से हर लमहा परेशान रहती हूं। मैने भी इस बारे में बहुत सोचा है और मैं भी इस निष्कर्ष पर पहुंची हूं कि उस जैसे इंसान के साथ मेरा कोई सार्थक भविष्य नहीं है। अब मुझे हिम्मत से काम लेना ही होगा और उससे रिश्ता तोडक़र जिंदगी की नई शुरूआत करनी ही होगी। उसके साथ जिंदगी बिताना वाकई में बहुत मुश्किल है।’’ “ठीक है, शीतल से अलग होकर तुम्हें जिन्दगी को एक मौका और देना ही चाहिए। अब तुम्हें वापिस शीतल के पास घर जाने की कोई जरूरत नहीं है। तुम तसल्ली से यहां रहो, जब तक तुम्हारा मन चाहे। तुम्हारा अपना घर है। मुझे बहुत अच्छा लगेगा अगर तुम मेरे पास रहोगी।’’                                           कालिन्दी कुछ दिन दिशाजी के आग्रह पर उनके घर पर रही थी। उनके घर पर वह उनके बेटे बसंत और उसके पांच वर्षीय बेटे अप्पू के सम्पर्क में आई थी। एक ही छत के नीचे रहने पर उनका परिचय बढा था। बसंत की पत्नी की मृत्यु कुछ वर्षों पहले कैंसर से हो गई थी। मां के लाड़-दुलार को तरसता अप्पू कुछ ही दिनों में कालिंदी के बहुत नजदीक आ गया था। कालिंदी को बच्चे बेहद पसंद थे। अपनी संतान के लिए तरसती कालिंदी अप्पू को पाकर अपनी परेशानियां भूलने लगी थी। वक्त के साथ बसंत से भी उसका परिचय प्रगाढ़ हुआ था। बसंत ने उन मुश्किल दिनों में कालिंदी को भरसक भावनात्मक संबल दिया था। और उससे उसकी सहज मित्रता हो गई थी। दो दुखी आत्माएं एक-दूसरे के सान्निध्य में अपने-अपने गम भूलने लगी थीं।

                               बसंत स्वयं एक संवेदनशील, भावुक एवं साहित्य प्रेमी इंसान था। स्वयं कुछ लिखता न था। लेकिन उसे स्तरीय कविताएं और कहानियां, उपन्यास पढना बेहद पसंद था। वह कालिंदी की लिखी कविताएं बेहद रुचि से पढता और उन पर अपनी बेबाक राय देता। बसंत और कालिंदी का मानसिक स्तर मेल खाता था। बेहद भावुक और संवेदनशाली स्वभाव और अपने साहित्य प्रेम के चलते दोनों धीरे-धीरे एक-दूसरे नजदीक आने लगे थे। और उन दोनों की बढती नजदीकियों के पीछे अप्पू का एक बड़ा योगदान था।

कालिंदी जितने दिन दिशाजी के घर रही, अप्पू का बेहद ध्यान रखती। उसके खाने-पीने, पढाई पर व्यक्तिगत ध्यान देती। अपने बच्चे के लिए तृषित उसका मन अप्पू में अपनी अजन्मी संतान की प्रतिछाया देखने लगा था। और अप्पू के प्रति कालिंदी का बेशर्त झुकाव देखते हुए बसंत के अंतरमन में कालिंदी के प्रति अबूझ कोमल भावनाएं अंकुरित होने लगी थीं। और दोनों एक-दूसरे के निकट आने लगे थे।

                         एक दिन कालिंदी दिशाजी के साथ एक दिन शीतल से मिलने उसके घर गई थी और कालिंदी ने बहुत शांत और संयत भाव से शीतल से कहा था कि वह अब और उसके साथ जिंदगी साझा नहीं करना चाहती और वह उससे तलाक लेना चाहती है। लेकिन इस बात पर शीतल दिशाजी के सामने भी क्रोध से बुरी तरह भडक़ गया था और अपना आपा खोकर चिल्लाने लगा था, ‘तुम्हें क्या दुख है मेरे पास जो तुम औरों के घर जाकर पड़ी हो अपना अच्छा-भला घर छोडक़र? मुझे तुम्हारी कोई जरूरत नहीं है। तुम जहां चाहो, रह सकती हो। मुझे भी तुम्हारी जैसी अड़ियल औरत के साथ रहने का कोई शौक नहीं है जो बेबात अपना बसा-बसाया घर बर्बाद करने पर तुली हुई है। तुम अलग रहना चाहती हो तो बेशक रहो। यह शौक भी पूरा कर लो। लेकिन याद रखना, अगर आज तुमने इस चौखट के बाहर कदम रखा तो फिर इस घर के दरवाजे तुम्हारे लिए हमेशा के लिए बंद हो जाएंगे                                लेकिन कालिंदी शीतल से तलाक लेने का मानस बना चुकी थी। इसलिए वह बिना अधिक कहे-सुने अपने कपड़े आदि लेकर घर से बाहर निकल आई थी।

बसंत ने भागा-दौड़ी करके जल्दी ही कालिंदी को अपने घर के पास ही एक फ्लैट दिलवा दिया था और जल्दी ही कालिंदी दिशाजी के घर से अपने फ्लैट में आ गई थी।

                                 दिशाजी और बसंत के सहयोग से कालिंदी ने एक अच्छे वकील से अपने और शीतल के तलाक के विषय में परामर्श लिया था और घोर मानसिक उत्पीडऩ के आधार पर उसने कोर्ट में तलाक की अर्जी दे दी थी। कालिंदी के माता-पिता की बहुत पहले मृत्यु हो चुकी थी एवं उसका एकमात्र भाई उसकी जिंदगी में कोई रुचि नहीं लेता था। वह अपने जीवन में अपने बीवी-बच्चों में रमा हुआ था।

                                     इस मुश्किल घड़ी में बसंत और दिशाजी ने उसे भरपूर भावनात्मक संबल दिया था और अकेले जिंदगी जीने की हिम्मत बंधाई थी। उन दोनों ने कालिंदी को शीतल से तलाक लेने की भागा-दौड़ी में उसका पूरा-पूरा साथ दिया था। और कदम-कदम पर उसका हौसला बढाया था।

                               वक्त गुजरते देर न लगी थी। शीतल और कालिंदी के एक वर्ष के अलगाव की अवधि के पश्चात् शीतल और कालिंदी का तलाक हो गया था।

आज उन दोनों का तलाक हुए पूरे छह माह होने को आए हैं। आज ही बसंत ने उसके समक्ष अपना विवाह प्रस्ताव रखा था। जबसे बसंत उसे अपना प्रस्ताव देकर गया था, वह उसी के विषय में सोच रही थी और हर कोण से बसंत के व्यक्तित्व का बारीकी से विश्लेषण करने पर उसने पाया था कि वह एक शांत, सरल स्वभाव का बेहद सुलझा हुआ मृदुभाषी इंसान था। उसे उसके संपर्क में आए काफी वक्त हो आया था लेकिन उसे याद नहीं कि उसने उसे कभी ऊंची आवाज में बात करते देखा हो और उसने सोचा था कि एक ऐसे शांत, मृदु स्वभाव के इंसान के साथ जिंदगी निश्चित ही खुशनुमा होगी। लेकिन वह अभी मानसिक रूप से इतनी जल्दी दूसरे विवाह के लिए स्वयं को तैयार नहीं कर पा रही थी। शीतल ने अपने रुक्ष, कठोर व्यवहार से उसे बहुत घाव दिए थे, उसकी आत्मा को लहूलुहान कर दिया था। उसे अभी थोड़ा और वक्त चाहिए था अपनी सामान्य मन:स्थिति में फिर से लौटकर आने में और दूसरे विवाह का निर्णायक फैसला लेने में। अंतहीन सोच के बवंडर में घिरी कालिंदी मानसिक क्लांति का अनुभव करने लगी थी, जिससे निजात पाने के लिए उसने आंखें मूंद ली थीं। लेकिन बंद आंखों के सामने बसंत का मुस्कुराता, सौम्य चेहरा आ गया था। मानो उससे कह रहा हो, “घबराती क्यूं हो? मैं हूं न तुम्हारे साथ”। और अनचाहे ही कालिंदी सोचने लगी थी, “काश, तुम मेरी जिंदगी में पहले आ गए होते, तो मेरी जिंदगी की कहानी कुछ और ही होती”।








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