मुक्ति की राह
मुक्ति की राह
अब बस, और नहीं !...कब तक अपनी उम्मीदों को जन्म लेते और फिर इंतजार की तेज धूप की तपन में जलते देखती रहूँगी। तिल-तिल कर मरती उम्मीदों को एक आसान मुक्ति देनी ही होगी। अपने ही हाथों से गला घोंटना होगा इनका। इनकी लाचारी मुझसे सहन नहीं होती।
सड़क पर आते-जाते लोगों, गाड़ियों को बालकनी की रैलिंग पर अपनी कुहनियाँ टिकाए वह निर्विकार भाव से देख रही थी। गाड़ियों के शोर, लोगों की बातों से भी उसकी सोच में किंचित मात्र भी खलल पड़ा हो, ऐसा उसकी मुख मुद्रा से नहीं लग रहा था। उसके आस-पास का वातावरण उसके लिए शून्य हो चुका था। वह पूर्ण ध्यान मग्न थी। मगर ध्यान मुद्रा की शांति से परे उसके मुख पर बादल घिरे हुए थे जिनकी रिमझिम इस सर्द मौसम में भी उसे उसके ध्यान से विचलित नहीं कर पा रही थी।
कल रात घड़ी की टिकटिक के साथ उसके मन मे फिर एक उम्मीद ने जन्म लिया था जिसे उसने अपनी निगाहों की गोद मे बड़े प्यार से समेट लिया था। कितनी नन्ही सी थी वो उम्मीद। उसके जन्म लेने के पहले, वह नहीं चाहती थी कि वह इस दुनिया मे आये लेकिन उम्मीद दबे पाँव अपने नन्हे से पाँव और रुनझुन करती नन्ही सी मुस्कान से उसके मन में जन्म ले चुकी थी। घड़ी की सुइयाँ बारह की संख्या की ओर उतनी ही धीमी गति से बढ़ रही थीं।
नए साल के आगमन की उल्टी गिनती शुरू हो गई थी। उस उल्टी गिनती के साथ उम्मीद का कद भी थोड़ा-थोड़ा बढ़ रहा था। धड़कने काबू में होते हुए भी बेकाबू थीं। बारह बज गए थे। उम्मीद का मुख थोड़ा मलिन हो गया था। सामने रखा फोन चुप था।
घड़ी की टिक-टिक के साथ उम्मीद बैचेन हो रही थी। वह भी चुप थी। उम्मीद जब भी फोन की ओर देखती उसकी निगाहों का पीछा करती हुई वह भी वहाँ देखने लगती थी। लेकिन फोन खामोशी से आँखे बंद करे बैठा था। उसे सोता देखते हुए जाने कब उम्मीद के गले से लिपट कर वह भी सो गई थी।
उस वक्त दोनों कितनी मासूम लग रही थी। सुबह फोन के आवाज लगाने के पहले वे दोनों नींद में मुस्कुराई भी थीं।
न जाने किस सपने ने उनको हौले से गुदगुदा दिया था। फोन के जगाने पर सबसे पहले उम्मीद जागी थी। मगर फोन पर किसी और को पाकर चुपचाप दोबारा सो गई थी।
लेकिन कब तक सोती ! आखिरकार उसके साथ वह भी उठ ही गई थी। इंतजार की धूप में जलते- जलते शाम तक वह और उम्मीद दोनों ही निढाल हो चुके थे। फोन चुप नहीं था मगर... वो दिलासा कैसे देता ! बीच-बीच में वह उन दोनों को पुकारता था। लेकिन वे दोनों .... वे दोनों उसे देखकर-सुनकर फिर उपेक्षा से उसकी तरफ से निगाहें फेर लेती थीं।
सड़क पर अंधेरा अपने पैर पसारने लगा था। फोन भी अब गुमसुम था। उम्मीद घुटनों में सिर दिए गहरी साँसें भर रही थी। उसका कद छोटा और भी छोटा होता जा रहा था। आँखों से जीवन के चिन्ह दूर जाने की तैयारी कर रहे थे
तभी वह रैलिंग से पलटी। उसी पल लिया गया निर्णय उसके चेहरे को कठोरता दे रहा था। उम्मीद को सख्ती से हाथ पकड़कर उसने खड़ा किया और उसका चेहरा पकड़कर उसे मुक्ति दिलाने से पहले उसने उम्मीद की आँखों मे आखरी बार झाँका। उसके कानों में सनसनाहट का शोर गूंजने लगा और...और बादल जो बरसना बन्द कर चुके थे अचानक फट पड़े। धुंआधार होती बारिश में कुछ नहीं दिख रहा था। बस बारिश का शोर था।उम्मीद की पुतलियाँ पलटने लगी थीं। बूंदों को वो दोनों ही मुट्ठी में पकड़ने की कोशिश कर रही थीं और फिर.... फिर मुट्ठियाँ खुली ही रह गईं। बादल बरस कर जा चुके थे और फोन.....फोन अब भी चुप उन दोनों को हैरानी से देखे जा रहा था।