Unlock solutions to your love life challenges, from choosing the right partner to navigating deception and loneliness, with the book "Lust Love & Liberation ". Click here to get your copy!
Unlock solutions to your love life challenges, from choosing the right partner to navigating deception and loneliness, with the book "Lust Love & Liberation ". Click here to get your copy!

देशभक्त डाकू

देशभक्त डाकू

9 mins
7.8K


 प्यारे जानवरों, तितलियों और प्यारी प्यारी बूंदों की कहानियाँ सुनाने वाली हमारी दादी ने उस दिन कुछ ऐसे ही कहानी शुरू की थी। डाकू की कहानी। हमें थोड़ा डर तो लगा था पर कहानी सुनने ‘एक था डाकू। रौबीला। मूंछों वाला। हट्टा कट्टा। निडर। उसके कई साथी थे। सभी डाकू। बन्दूकों वाले। डर तो नहीं लग रहा न?’

 

परियों, फूलों, प्यारे का मज़ा भी तो लेना था। हमने कहा - नहीं दादी, हम किसी से नहीं डरते। आप सुनाइये न डाकुओं की कहानी।

 

दादी की आँखों में भी हँसी आ गई थी। बोली। तुम जानते हो न कहानी सुनाने की शर्त क्या है?।

 ‘आपका सवाल, हमारा उत्तर’ हमने झट कहा।

 ‘तो बताओ अगस्त के महीने का क्या   महत्त्व है।’

 हम चुप। सोच जो रहे थे।

  ‘बोलो, बोलो’।

  ‘मेरा जन्म दिन’, मेरी छोटी बहन काकू बोल पड़ी थी।

 ‘अरे हाँ, एक अगस्त को तो काकू का जन्म दिन होता है। पर यह बताओ अगस्त में एक और किसका जन्म दिन होता है। दादी ने गर्दन हिलाते हुए पूछा।

 

 ‘हम सब फिर चुप थे। तभी मुझे उत्तर सूझा। मैंने कहा, ‘हमारे देश की आज़ादी का।’

 

 ‘वाह!, ‘दादी ने कहा - ‘15 अगस्त 1947 को हमारा देश आज़ाद हुआ था। जानते हो इस आज़ादी के लिए कितनी लम्बी लड़ाई लड़नी पड़ी थी। अंग्रेजों से। 1857 से लेकर 1947 तक। कितने ही देशभक्तों को कुर्बानी भी देनी पड़ी। और लड़ाई भी कितने कितने ढंग से लड़ी गई। अच्छा वह सब फिर कभी बताऊँगी। पर जानते हो एक देशभक्त डाकू भी था।’

 

हम सब चौंक गए। मुझे तो कुछ समझ ही नहीं आ रहा था। दादी को हो क्या गया था, डाकू को देशभक्त कह रही थी।

 

दादी ने जैसे मेरे मन की बात जान ली हो। बोली, ‘अरे बच्चो लगता है तुम डाकू का मतलब आजकल के डाकू जैसा समझ रहे हो। असल में एक ऐसे देशभक्त थे जिसने डाकू बनकर अंग्रेजों की नाक में दम कर डाला था। वह आम लोगों को कुछ भी नहीं कहता था। बल्कि प्यार करता था। उनकी मदद करता था।

 

‘अच्छा!’ हमनें तो पहली बार किसी भी अच्छे डाकू की बात सुनी थी। अब तो डाकू की कहानी सुनने का और भी मन हो उठा। सो बैठ गए डट कर। और कहानी थी कि धीरे-धीरे उतरने लगी थी दादी के होठों से।

 

डाकू का नाम था गेंदालाल। आगरा का नाम तो सुना है न। वही दुनिया के आठवें चमत्कार वाला शहर। यानी प्यारे-प्यारे सुन्दर सुन्दर ताजमहल वाला शहर। उसी का एक गाँव है - बटेसर। इसी गाँव के थे भोलानाथ दीक्षित। और इन्हीं का बेटा था गेंदालाल। इनका जन्म सन् 1888 में हुआ था।

 

गेंदालाल के पिता के पास पैसा तो था नहीं। सो गेंदालाल मुश्किल से ही इन्टर पास कर सके। आगे की पढ़ाई रोकनी पड़ी। कितने दुःख की बात है न? गेंदालाल को भी बहुत दुःख हुआ। आँखों में आँसू भी आए। पर कम उम्र में भी समझदार थे। पिता की मुश्किल को समझते थे। सो सोचा कि नौकरी ही कर लें। सो एक कॉलेज में अध्यापक बन गए।

 

पर गेंदालाल को देश की पराधीनता हमेशा खलती थी। उन्हें लगता कि अंग्रेजों की गुलामी उन्हें ठीक से सांस भी नहीं लेने दे रही। उन्होंने आज़ादी के लिए चल रही क्रांति में भाग लेना शुरू कर दिया। छत्रपति शिवाजी के नाम पर एक सभा बनाई। जानते हो न कि छत्रपति शिवाजी भी बहुत बड़े देशभक्त थे। उनके मन में नए विचार आते थे। सोचा नवयुवकों को एकजुट करके अंग्रेजों से संघर्ष किया जाए। पर कैसे?

 

 एक दिन बैठे सोचते रहे। सोचते रहे। कुछ सूझ ही नहीं रहा था। तभी उन्होंने एक अद्भुत दृश्य देखा। सपने में।

 

एक उजाड़ सी जगह। दूर दूर तक कुछ नहीं। न सड़क, न बिजली। बस थोड़े-बहुत पेड़ और उनके बीच दो-तीन घर। रहने वाले मुश्किल से 20-22 आदमी। एकदम गरीब। एक वक्त का खाना भी मुश्किल से खा पाते। तभी क्या देखते हैं कि दूर से धूल उड़ती आ रही है। आ रही है। धूल जितनी पास आ रही थी उसमें से दो-तीन आकृतियाँ उभरने लगी थीं। घोड़ों पर। अरे यह क्या। पास आते ही वे उन गरीब लोगों को मारने लगे। उनसे उनका थोड़ा-बहुत सामान भी छीनने लगे। वे रोते रहे लेकिन घोड़े वालों पर कोई असर नहीं हुआ। वे मार रहे थे और हा हा हा कर हँस रहे थे। साथ ही बोल रहे थे - ‘गुलामों, अगर कभी भी सिर उठाने या यहाँ से भागने की कोशिश की तो हम तुम्हें काट डालेंगे।’ गुलाम क्या बोलते। घोड़े वालों के पास तो बन्दूकें थीं, और कितना ही सामान था। ऐसे ही कितने ही छोटे-छोटे गाँव उनके गुलाम थे। और इन गरीबों के पास तो लड़ने को न अपनी ताकत ही थी और न लड़ने के हथियार ही। खाना तक तो ठीक से मिलता नहीं था और कपड़ों की तो पूछो ही मत। बस रो ही सकते थे वे। घोड़े वाले आगे बढ़ गए।

 

तभी घोड़े वालों की दिशा में ही फिर धूल उड़ती दिखाई पड़ी। दिल धक धक कांपने लगा। वे भी ज़रूर इन घोड़े वालों के साथी होंगे। ज़रूर इन गरीब लोगों को मारेंगे और उनसे सामान भी छीनेंगे। डर भी लगने लगा। पर गुस्सा भी आया। धीरे-धीरे धूल में से आकृतियाँ उभरने लगीं। ये ऊँट वाले कुछ लोग थे। अरे यह क्या! इन्होंने तो घोड़े वालों से ही लड़ना शूरू कर दिया। लो अब उन्हें पीटने भी लगे। उनका सामान भी छीन लिया। घोड़े वाले तो दुम दबा कर भाग गए। बड़ा मज़ा आया। पर यह क्या? ऊँट वाले इधर ही आ रहे थे। गरीब लोगों की ओर। क्या ये भी इन्हें पीटेंगे? कौन हैं ये। पर देखें कैसे? इन्होंने तो अपने मुँह ढक रखे थे। केवल आँखे दिख रही थीं। बिल्कुल डाकुओं जैसे लग रहे थे। डाकू ही थे। पर यह क्या। इन्होंने तो पास आते ही सबको गले लगाना शुरू कर दिया। घोड़े वालों से लूटा हुआ सामान गरीबों को देना शुरू कर दिया। गरीबों के चेहरे खिलने लगे थे। जैसे सरसों के फूल खिलते हैं। जैसे बच्चों के चेहरे खिलते हैं। ऊँट वाले कह रहे थे - ‘तुम सब अपने को गुलाम मत समझो, गुलामी के खिलाफ़ लड़ो। आज़ाद होकर खुशी से जीओ। सबने कहा, ‘हाँ, हम गुलामी के खिलाफ़ लड़ेंगे। बताइये हम क्या करें।’

 

 ‘ठीक है।’ ऊँट वालों के सरदार ने कहा - ‘तो जो नौजवान हैं वे हम डाकुओं में मिल जाएँ। ज़्यादा और एक होकर ही तो हम गुलामी के खिलाफ़ लड़ सकेंगे। हम दुष्ट घोड़े वालों का सामान लूटेंगे और उन्हें अपने लोगों में बाँटेंगे। लोग ताकतवर हो जाएँगे। फिर एक दिन आएगा जब सब घोड़े वाले यहाँ से भाग जाएँगे। बोलो ठीक है।’

 

‘हाँ हाँ ठीक है।’ सब गरीब ज़ोर ज़ोर से बोले। पता नहीं कहाँ से उनमें ताकत आ गई थी!

 

सपना खत्म हो गया। गेंदालाल थोड़ी देर सोचते रह गए। कैसा दृश्य था यह! पर धीरे-धीरे उनकी समझ में कुछ आ गया। उन्हें लगा कि देश को गुलाम बनाकर रखने वाले अंग्रेज घोड़े वाले हैं, पूरा देष गरीब लोग हैं। उन्हें बचाने के लिए ऊँट वाले डाकुओं की ज़रूरत है। देशभक्त डाकुओं की। गेंदालाल को जैसे राह मिल गई थी। उसने तभी तो डाकुओं का अच्छा और मजबूत संगठन बनाने की ठानी। जो अंग्रेज़ों को लूट सके। उन्हें परेशान कर देश से भगा सके। जो क्रांतिकारी हैं उन्हें, अंग्रेजों से लूटा धन-माल देकर उनकी मदद कर सके।

 

बस अब क्या था। चल निकले गेंदालाल दीक्षित अपनी राह पर। उन्होंने जेल में बंद देशभक्त डाकू कैदियों को छुड़ाया। उन्हीं में उन्हें एक सूझ बूझ वाला डाकू मिल गया। नाम था - ब्रह्मचारी। ब्रह्मचारी को बन्दूक आदि भी चलानी आती थी। उसने डाकुओं के संगठन को अस्त्र-शस्त्र चलाने सिखाए। ये सब चंबल और यमुना के बीच बीहड़ों में छिप कर काम करते थे। ब्रह्मचारी के किस्से अंग्रेजों तक भी पहुँचे। वे उसे पकड़ना चाहते थे। देश के कुछ ऐसे धनी लोग भी थे जो अंग्रेजों का साथ देते थे। डाकू गेंदालाल देशभक्त क्रांतिकारियों के लिए उन्हें भी लूटते थे।

 

पर एक बार उनके गिरोह में एक भेदिया भी घुस गया। वह उनकी सारी गुप्त योजनाओं की जानकारी अंग्रेजों को दे देता था। एक बार तो हद ही हो गई। वह सबको खिलाने के लिए पूरियाँ लाया। सब पूरी खाने लगे। देखते ही देखते सबका जी मिचलाने लगा। असल में उसने पूरियों में ज़हर मिला दिया था। पानी लाने के बहाने वह वहाँ से खिसकने लगा। पर ब्रह्मचारी की तेज आँखों ने उसे पहचान लिया। उसने भेदिए पर गोली चला दी। गोली की आवाज सुन पहले ही से पास छिपी पुलिस वहाँ आ गई। जमकर लड़ाई हुई। कितने ही क्रांतिकारी डाकू मारे गए। गेंदालाल और ब्रह्मचारी हार गए। पकड़ लिए गए। पर वे मन से नहीं हारे। कैद में भी आगे की योजना बनाने लगे।

 

गेंदालाल के साथियों ने उन्हें कैद से छुड़ाने की खूब कोशिष की।  अंग्रेजों की नाक में दम किया। पर अंग्रेज काफी ताकतवर थे। उन्होंने देशभक्तों को गिरफ्तार करने की गति बढ़ा दी। वे लालच देकर कुछ नवयुवकों को अपनी ओर कर लेते थे। और उनसे भेदियों का काम लेकर क्रांतिकारियों को पकड़ लेते थे। ये गद्दार थे।

 

गेंदालाल कैद में ही बीमार हो गए। सूख कर काँटा हो गए। उन पर मुकदमें चलाए गए। अंग्रेजों के ही जज थे और उन्हीं का कानून था। उन्हें आजीवन कारावास या फाँसी की सजा मिल सकती थी। गेंदालाल ने सोचा कि यदि ऐसा हुआ तो क्रांति आगे कैसे बढ़ेगी। उन्हें एक तरकीब सूझी। अंग्रेजों को उल्लू बनाने की। उन्होंने पुलिस को सूचना दी कि वे सरकारी गवाह बनना चाहते हैं। यानी पुलिस के अपने आदमी। यह भी कहा कि वे क्रांतिकारियों को पकड़वाने में मदद भी करेंगे। अंग्रेजों की पुलिस के पास अपना दिमाग तो कम ही था। गेंदालाल की चाल में फँस गई। गेंदालाल को सरकारी मुखबिर बना लिया। पर गेंदालाल तो भारत माँ के सच्चे सपूत थे।

 

एक दिन मौका पाकर एक दूसरे मुखबिर रामनारायण के साथ गायब हो गए। कोटा पहुँच गए। पर रामनारायण भी उस्ताद निकला। एक दिन गेंदालाल को कोठरी में बंद कर सारा समान ले चंपत हो गया। पर उसने पुलिस को गेंदालाल के बारे में कुछ नहीं बताया। गेंदालाल तीन-चार दिन, भूखे-प्यासे कोठरी में पड़े रहे। बीमार तो थे ही। पर साहस नहीं छोड़ा था। हर क्षण देश को आज़ाद कराने की ही सोचते। किसी तरह कोठरी से निकले। पैदल ही आगरा की ओर चल पड़े। इधर पुलिस ने गेंदालाल के परिवार को तंग कर डाला था। यहाँ तक कि परिवार भी गेंदालाल को गिरफ्तार कराने की सोचने लगा।

 

बीमारी की गंभीर हालत में ही दिल्ली पहुँचे। छिपने के लिए एक प्याऊ पर नौकरी षुरू की। पर बीमारी थी कि बढ़ती चली गई। उन्हें एक ही अफ़सोस सताता कि क्रांति के लिए वे जितना काम कर सकते थे, नहीं कर पा रहे। अब तो उन्हें बेहोशी भी आ जाती थी। किसी ने उनकी पत्नी को  सूचित कर दिया।

 

पत्नी आ गई। उनकी खूब सेवा की। मौत उन पर छा चुकी थी। पर वे जीना चाहते थे। वे मोक्ष भी नहीं चाहते थे। दूसरे जन्म में भी क्रांतिकारी डाकू ही बनना चाहते थे। उन्होंने चाहा कि बच्चे उनकी पसन्द का गीत सुनाएँ। बड़ों ने इशारा किया। बच्चों ने उत्साह से गाया ---

 

अरे गुलामी! ना ना ना ना

हो आजादी हाँ हाँ हाँ हाँ

 

उछल उछल कर कूद कूद कर

कहते बच्चे हाथ उठाए

सुन ले सुन ले दुनिया सारी

आजादी हम सबको भाए

 

अरे गुलामी! ना ना ना ना

हो आजादी हाँ हाँ हाँ हाँ

 

तुम भी गाओ हम भी गाएँ

हाथी गाए चिड़ियाँ गाएँ

पर्वत गाए नदियाँ गाएँ

आज़ादी के गाने गाएँ

 

अरे गुलामी! ना ना ना ना

हो आजादी हाँ हाँ हाँ हाँ

 

झूम झूम कर बादल गाएँ

चली झुलाती उन्हें हवाएँ

तुम भी गाओ हम भी गाएँ

आजादी के गाने गाएँ

 

अरे गुलामी! ना ना ना ना

हो आजादी हाँ हाँ हाँ हाँ

 

उन्होंने 21 दिसम्बर 1920 को भारत माँ की गोद में प्राण त्याग दिए।

 

सबकी आँखों में आँसू थे। लेकिन जुबान पर थी - ‘पंडित गेंदालाल दीक्षित की जय।’ भारत माता की जय।

 

 

 

 

 

 

 

 

 


Rate this content
Log in

Similar hindi story from Children