सिगरेट की छांव
सिगरेट की छांव
इन वादियों में मुझे अक्सर तेरा अक्स दिख जाता है...
चाहे पहाड़ की चढ़ाई हो या फिर उसकी ढलान...
जंगली पेड़ हो या फिर खूबसूरत फूल...
मीठे फल या फिर नुकीली टहनियाँ...
सुबह की ठंड हो या दुपहरिया की धूप...
तुम अक्सर
उस सूर्य की शीतलता और
चांद की धूप में उतनी ही दिखती हो
जितनी दिल्ली की सुबह में ओस और
सिगरेट की छांव में दिखती...
कभी कभी तो इन वादियों में
बहुत साफ-साफ दिख जाती हो तुम...
यकीं मानो फिर यकीन करने में
कितनी तकलीफ़ होती है बता नहीं सकता...
और सच पूछो तो बताना भी नहीं चाहता...
खैर अब जब मैं मान बैठा हूँ
तो दिल मानने को तैयार नहीं है..
एक काम करो...
तुम्हीं बता दो की तुम कौन हो?
जो तुम हो क्या वाकई वही हो?
उतनी ही हो?
या बहुत कुछ हो जो मैं शायद जान न पाया?
बता दो?
इसी बहाने ये भ्रम तो टूट जाएगा...
मैं तुम्हारे जितना करीब तब था..
अब भी ठीक उतना ही हूँ...
और कल भी रहूँगा...
बस तुम झूठ ही सही पर सच बोल दो
और मैं तुम्हारे हर उस झूठ को
आज तक की तरह एक बार सच समझ
सहेज लूंगा...