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मुझे इजाज़त नहीं

मुझे इजाज़त नहीं

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आज भी मैं धीरे-धीरे चलती हुई बाहर निकल कर बाल्कनी की रेलिंग का सहारा ले के खड़ी हो गई.. जब भी उसकी आवाज सुनाई पड़ती तो मैं अपने मन को रोक नहीं पाती, न अपनी भावनाओं को...असहनीय पीड़ा के बावजूद भी अपनी वैशाखी को छोड़ दीवार का सहारा लेकर चुपके से रेलिंग पकड़ खड़ी हो जाती,

बहुत देर तक तेज-तेज चलती अपनी साँसें मुझे सुनाई देती, एक झलक उसकी मिलती तो मन में शान्ति महसूस करती,

मुझे अपनी भावनाओं को व्यक्त करने की इजाजत न तो अपना मन देता न अपना समाज न परिवार ...अभी कुछ दिन पहले ही तो माँ ने डाँट लगाई थी कि "बिना वैशाखी के रेलिंग में क्यों खड़ी हो....कहीं गिर- विर पड़ी तो...लेने के देने पड़ जायेंगे।", पर माँ की बात का अर्थ मैं जानती हूं...माँ को शक है कि "आज कल मेरा मन कुछ भटक रहा है।"...जब भी बाल्कनी में जाने के लिये टोकती है तो आवाज भर्रा जाती है, कई बार इनडायरेक्ट वे में कह चुकी है कि मुझे अपनी कमी का भान होना चाहिये...

पर क्या करुँ ? मेरी विकलांगता भी मेरे दिल को धड़कने से रोक नहीं पाती...मेरे सपनों में तो किसी की दखलंदाजी नहीं हो सकती, कभी कभी जी करता है खूब जोर से रोऊँ...पर नहीं....जब कभी अपनी कमजोरी में अनायास ही आँखें भरी हो तो माँ और पापा की आँखें पहले भर आती।

पर आज वह बाल्कनी में अकेला नहीं था, कुछ लड़के-लड़कियाँ खड़े थे, शायद उसके दोस्त रहे होंगे, मुझे आता देख उसने फुसफुसा के कुछ कहा...और सब के चेहरे में व्यंग्य भरी मुस्कान खिल आई...मुझे कुछ सुनाई नहीं दे रहा था..पर सबके चेहरे बखूबी पढ़ पा रही थी, बिना किसी उम्मीद के एकतरफा धड़कने वाले इस मन ने गहरी उदासी ओर तिरस्कार महसूस किया...आज पहली बार अपने आप से, अपने मन से और लोगों से घृणा महसूस कर रही थी, मन चीख-चीख के कह रहा था " किसी को भी चाहने की तुझे इजाज़त नहीं..इजाज़त नहीं..।


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