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बिलौटी (दो)

बिलौटी (दो)

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रात-बिरात बेचैन आत्माओं की तरह मंडराने वाला जीव रमाकांत, नशे में धुत उधर से गुज़रा। चांदनी के धुंधलके-उजियारे में महुआ के तले, एक गठरीनुमा आकृति देख कर वह ठिठका। दबे पांव पगली तक पहुंचा।

पगली शराब की भभक और रमाकांत के पैरों की आहट सुन सचेत हुई। रमाकांत पैर से गठरीनुमा चीज़ को टोहने लगा। पगलिया हड़बड़ा कर उठ बैठी। रमाकांत का नशा भाग गया। उसने अपने होंठ पर उंगली रख उसे चुप रहने का इशारा किया और जेब टटोलने लगा।  जेब से तुड़ा-मुड़ा दो रुपए का नोट निकला। रुपया पगलिया की तरफ बढ़ाया उसने। पगलिया हंस दी। रुपया लेकर चांदनी में उसे देखने लगी। रमाकांत ने उसका चेहरा गौर से देखा। वैसे भी वह औरतों का नाम और चेहरा जानने वाला जीव न था। जिस तरह शराब की ब्राण्ड पर बहस किए बगैर उसे पूरी श्रद्धा से वह ग्रहण किया करता था, उसी तरह स्त्री-देह की उपलब्धता ही उसके लिए प्रमुख हुआ करती। नाम, काम-धाम, जात-पात के झमेले सब बेमानी थे।

पगलिया जाड़े से ठिठुर रही थी। रमाकांत कुछ सोचकर पगलिया को सिन्हा बाबू के क्वाटर में दुतल्ला में चढ़ने के लिए बनी सीढ़ी के नीचे की खाली जगह पर ले गया। यहां पगलिया को कुछ राहत मिली। ठंड से बची तो भूख के एहसास ने हमला कर दिया। उसने रमाकांत से कुछ खाने को मांगा। रमाकांत उसे गरियाने लगा। जब इस समय कहां कुछ मिलता। गरियाने के बाद शांत हुआ तो पगलिया के संग मौज करने का इरादा छोड़ना पड़ गया। वह भूखी-प्यासी है। कैसे हो उसकी भूख बुझाने का इंतज़ाम?

रमाकांत को अपने क्वाटर में रखी दाल-भात की पतीली याद हो आई, जिसे रात में खाकर वह सोता। कुछ सोचकर उसने पगलिया के कंधे थपथपाए और पीछे लाइन के क्वाटरों में गुम हो गया।

पगलिया भूख-प्यास से बेहाल थी। गठरी में दो-तीन डबलरोटी थीं। याद आया तो गठरी खोल कर बैठ गई। डबलरोटी में इतनी गंध थी कि उसके देह से उठती दुर्गंध फीकी पड़ गई। डबलरोटी भुसभुसा भी गई थी। एक-दो टुकड़ा मुंह में डालकर चुभला रही थी कि रमाकांत एक पॉलिथीन में दाल-भात लिए आ गया। एक दारू की बोतल में पानी का जुगाड़ भी साथ था। पगलिया दाल-भात पर टूट पड़ी। दारू की बोतल का पानी एक सांस में गटक गईं। रमाकांत उस दृश्य को देख कर स्तब्ध रह गया। पगलिया के सर्वांग दर्शन का अवसर मिला। सफर की गर्द और थकान के बावजूद उसके जवान चेहरे पर चमक बरकरार थी।

लेकिन ये क्या...जैसे ही पगलिया के पेट में भोजन गया, वह रमाकांत को धन्यवाद देने के स्थान पर उसे आन-तान गालियां बकने लगी। रमाकांत का नशा हिरन हो गया। नेकी का उसे ये क्या बदला मिला। वह गालियों की परवाह किए बगैर उस पर चढ़ाई कर बैठा। उसके गाली उच्चारते मुंह को अपने मुंह से बंद कर दिया। उसके हाथों को अपने दोनों पंजों से सख्ती से दबोचे रखा। उसकी टांगों को अपने भारी पैरों तले दबा लिया। आ...ऊं....ई... करती पगलिया जल्द ही शिथिल पड़ गई। रमाकांत को इस नए चैलेंज में अनोखा रस मिला।

 

 

सिन्हा बाबू की धर्मपरायण पत्नी आदतन प्रातः भ्रमण के लिए निकलीं। सीढ़ियों के पास से आती खर्राटे की आवाज़ सुनकर चौंकी। निगाह गई तो अवाक् रह गईं। अस्त-व्यस्त कपड़े में अपनी देह खोले-छितराए पड़ी युवती इधर कहां से आ गई? उन्हें उस युवती पर दया आ गई। उन्हें उसकी दशा पर दया हो आई। पास पहुंची तो दुर्गंध से उनका माथा फटने लगा। नाक बंद कर उस युवती तक पहुंचीं। ठंड से ठिठुरी काया, आहट पाकर भी न जागी। उसकी गहरी नींद भंग न हुई तो वे अपने क्वाटर चली गईं। लौटी तो उनके हाथों में एक पुरानी दरी थी। दरी से पगलिया की देह ढांक कर वह पैदल घूमने-टहलने चली गईं। रास्ते भर उस युवती की स्थिति पर वह विचार करती रहीं। बेशक, युवती के जिस्म से रात में ज़रूर खिलवाड़ किया गया था। उन्होंने ठीक ही किया कि उसके बेपर्दा जिस्म को ढांक दिया।

टहलने के बाद जब वह लौटीं तो रिहन्द जल-सागर पर छाए पूरबी आसमान के प्रभाती सूरज का लाल-मोहक बिम्ब आंखों में बसा हुआ था। वे बेहद उदार हो गई थीं। रिहन्द के अंतहीन जल-विस्तार की तरह उदार या कि प्रभाती सूर्य की सिंदूरी आभा को धरती पर परावर्तित करने वाले आकाश सी उदार...

कोहरोल की पहाड़ी से रिहन्द बांध का पानी समंदर का भ्रम पैदा करता। एक समंदर सोती हुई लहरों वाला। ज्वार-भाटा की अनिवार्यताओं से मुक्त, जिसका एक सिरा पूरबी आसमान की ढलान से सट सा जाता। जहां से दो सूरज एक साथ उगते। एक आसमान की गोद पर और दूजा रिहन्द के कटोरे पर...

इस दृश्य को देख एक नई स्फूर्ति सी वह महसूस किया करतीं।

घर के सामने कुत्तों के लड़ने की आवाज़ से उनकी तंद्रा भंग हुई। उन्हें युवती याद हो आई। सीढ़ी की तरफ निगाह गई तो देखा कि युवती को स्कूली बच्चे घेर कर खड़े हैं और दो कुत्ते डबलरोटी के टुकड़े के लिए लड़ रहे हैं। पगलिया किचड़ियाई निंदासी आंखों से कुतूहलवश ये नया दृश्य आत्मसात कर रही थी। उसे अपनी यात्रा का ये नया पड़ाव सुखद लगा रहा था। वह अपने में मगन थी। उसने गठरी खोल कर एक टूटा आईना निकाला और अपना चेहरा देखने लगी।

सिन्हा बाबू की पत्नी ने पहले बच्चों को डांट कर भगाया, फिर कुत्तों को और उसके बाद पगलिया से पूछना चाहा कि वह कौन है? कहां से आई है? कहां जाना है? क्या यहां उसका कोई परिचित है? तमाम प्रश्न, तरह-तरह के प्रश्न, हर प्रश्न उस पगलिया की बौराई-निंदासी आंखों में गुम जाता। तब भन्नाकर उन्होंने कहा--’’चल भाग यहां से!’’

पगलिया को बुरा लगा।

वह अचानक गालियां बकने लगी।

फिर उसने अपनी गठरी में बिखरी चीज़ों को समेटा। दरी को छोड़ वह उठी।

चलने लगी तो सिन्हा बाबू की पत्नी ने उससे दरी साथ ले जाने को भी कहा। पगली पहले तो दरी को भावहीन निगाहों से ताका और फिर दरी को कंधे पर डाल कर चल दी।

सीढ़ियों के बाहर आकर उसने दाएं-बाएं देखा। ऊपर-नीचे ताका। कुछ समझ न आया। हो सकता है वह कालोनी की एक ही डिज़ाइन और एक ही रंग से रंगी इमारतों को देख विस्मित हुई हो। हो सकता है निर्माणाधीन सड़क के उबड़-खाबड़ स्वरूप, यत्र-तत्र बिखरी हुई भवन-निर्माण सामग्री आदि देख कर उसे असुविधा महसूस हुई हो। बहरहाल, उसने जो भी सोचा-समझा हो, उसके क़दम उठे। महुआ के पेड़ की छाया तले वह रुकी। कंधे की डाली दरी को ज़मीन पर पटका और वहीं ज़मीन पर पसर गई। पल भर बाद उसके खर्राटे गूंज उठे। सिन्हा बाबू की पत्नी ने माथा पीट लिया। जाने कौन बला उनके क्वाटर के आगे आ पड़ी थी।

तब तक शेख़ बाबू की पत्नी आ निकलीं। सिन्हा बाबू की पत्नी ने सुबह की घटना बताई, शेखाईन द्रवित हुईं।

पगलिया सोई तो उठी दिन के बारह बजे। जागती नहीं, लेकिन कुत्तों की लड़ाई से उसकी नींद टूटी। पोटली उधेड़कर कुत्ते डबलरोटी के टुकड़े हज़म कर चुके थे। दूसरे टुकड़े के लिए कुत्तों ने जब पोटली पर धावा बोला तो पगलिया जाग गई। लेटे-लेटे ही चुनिंदा मर्दाना गालियां वह बकने लगी।  उसके लिए आसान था कि पत्थर से या हाथ-पैर से कुत्तों को दुत्कारती-भगाती, लेकिन इतना विवेक होता तो भला वह पागल कहां से कहलाती।

कहा जाता है कि इस क्षेत्र में उसके होंठों से पहले-पहल उच्चारित यही गालियां थीं। ये उसकी गालियों का पहला सार्वजनिक प्रदर्शन था। गालियों के अलावा उसे और किसी तरह के वाक्य बनाना नहीं आता था।

शेखाईन ने पगलिया के लिए अपनी उतरन साड़ी, ब्लाउज़ और पेटीकोट ला दिया। आस-पास के अन्य लोगों ने उसे घर का बचा-खुचा खाना दिया। पगली के चेहरे पर निश्चिंतता के भाव दिखने लगे। वह इत्मीनान से खाना खाने लगी।

कहते हैं कि यदि सिन्हा बाबू की पत्नी और शेखाईन ने उसे आश्रय न दिया होता तो उन ठंड के दिनों में, एक अपरिचित-अनजान जगह में उसका क्या हश्र होता। उसकी स्त्री-देह को भेड़िए झटक लेते या बाघ खा जाता। वह बचती भी या नहीं। किन्तु क्या वह वाकई बच पाई? यह तो कई महीने बाद पता चला कि पगलिया गर्भवती है। सिन्हा बाबू की पत्नी को शक तो पहले से हो गया था, जब उसकी उबकाई और उल्टियों ने रात का सन्नाटा तोड़ा था।

पगलिया गर्भवती क्यों न होती?

पगलिया कोई ‘पवित्र कुंआरी मरियम’ तो थी नहीं, न ही वह कोई राजकन्या कुन्ती ही थी। न दुनिया के ज्योतिषियों, खगोल-शास्त्रियों ने इधर किसी नए नक्षत्र के उदय होने का संकेत ही दिया था। यह तो एक सामान्य सी घटना थी। जिस तरह धरती की कोख फाड़कर, चुपचाप पौधा आ निकलता है, जिस तरह आसमान को चीरकर अलस्सुबह सूरज की किरणें फूटती हैं...

पगलिया पेट से थी। यह एक ध्रुव सत्य था। वह कौन था जिसका बीज उसकी कोख की धरती पर रोपित था, हर कोई जानता था, किन्तु सभी खामोश थे। रमाकात भी चुप मारे रहता। वही रमाकांत, पियक्कड़, दरूआ रमाकांत, जो एक बार सरेआम महुआ तले, पगलिया की झोंपड़ी से बरामद हुआ था।

रमाकांत पकड़ा नहीं जाता, किन्तु उसकी घरवाली को उस पर संदेह था। पीता था तो ठीक था। दारू पीना कोई ऐसी बुरी बात नहीं। कोलियरी-खदान वाले इलाके में वैसे भी दारू की खपत ज्यादा रहती है।

‘‘गौरमिंट खुदै बेचती है तो फिर जनता काहे नहीं पिए!’’

इसी तर्क को वह मानती थी। रमाकांत का पीकर इधर-उधर मुंह मारना उसे बर्दाश्त न हुआ।

पूरी कालोनी जानती थी कि रमाकांत और पगलिया के बीच रागात्मक सम्बंध है। उसके मित्र ‘आंख मारकर’ रमाकांत से उसकी ‘फेमिलि’ का समाचार लिया करते थे। रमाकांत भी ढीठ किस्म और मज़बूत चेसिस का खचड़ा था, ठीक अपनी सन् पचहत्तर मॉडल गोल टंकी वाली काली राजदूत मोटरसाइकिल की तरह। अपनी आवाज़ के कारण सही मायनों में ‘फटफटी’ थी वह! राजदूत फटफटिया की कान फाड़ू आवाज़ से पगलिया जान जाती और रमाकांत की घरवाली भी कि ‘भयल चुड़ियन के भाग, बलम सिंगलौली से लउटे!’’

एक रात की बात है, तकरीबन ग्यारह बजे, अंधियारी पाख में, रमाकांत की घरवाली ने कालोनी के कुछ लोगों को इकट्ठा किया। फिर पगलिया के महुआ तले बनी झोंपड़ी के बाहर सब को ले आई। झोंपड़ी के पीछे तरफ राजदूत मोटर-साइकिल की झलक मिल रही थी। हो-हल्ला सुनकर झोंपड़ी के अंदर जल रही ढिबरी बुझा दी गई। पगलिया टाट का परदा हटा कर, मां-बहिन की गाली बकती बाहर निकल आई। बड़बड़ाती तो वह हमेशा थी, लेकिन इतना ग़लाज़त भरा होगा उसमें, कोई न जानता था।

वह कालोनी की तमाम स्त्रियों को कुल्टा और चरित्रहीन साबित कर रही थी और उस परिमाण में अपने कृत्य को क्षम्य बता रही थी।

उसकी गालियों की परवाह किए बगै़र दो-तीन लोग आगे बढ़े। पुलिस बुलाने की धमकी असरदायक साबित हुई। एक गोल-मटोल मर्दाना साया झोंपड़ी से निकला और बड़ी रफ़्तार से पीछे नाले की तरफ भाग गया। अंधेरा काफ़ी था, फिर भी टार्च की रोशनी में देखा सभी ने, वह रमाकांत ही था....

 

 


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