डिग्री चुग गयी खेत
डिग्री चुग गयी खेत
वो भी एक जमाना था, जब महीने भर की फीस बस एक या दो रुपए दे कर लोग सरकारी स्कूलों से बारहवीं पास कर लेते थे। फिर कुछ सौ रुपए में सरकारी कॉलेज से ग्रेजुएशन भी हो जाता था। बस फिर एक नौकरी मिल ही जाती थी और जीवन यापन शुरू हो जाता था।
अब तो भाई बच्चों की पढ़ाई माने की तराजू के एक पलड़े में पैसे डालते ही जाओ, डालते ही जाओ।
बेचारे मंगल जी भी जीवन पर्यन्त, अपनी कमाई अपने इकलौते बेटे की पढ़ाई पर लुटाते रहे। पहले स्कूल की डोनेशन, फिर फीस, ट्यूशन , कोचिंग, किताबें, स्टडी टूर जाने क्या- क्या नहीं किया।
बेटा अपने ऊपर इतना खर्च होते देख, शायद यही मान गया की मंगल जी के पास जरूर कोई गड़ा खजाना है। बस फिर क्या, भला रईस लोग भी नम्बरों के चक्कर में पड़ते हैं ? नहीं न। तो वो भी चैन की बंसी बजता रहा और गिरते पड़ते किसी तरह अगली कक्षा में जाता रहा।
बारहवीं पास की तो फिर आगे की पढ़ाई की चिंता सामने खड़ी थी । बेटा जो नंबर लाया था उसमे किसी सरकारी या प्राइवेट पर ठीक से कॉलेज में दाखिला होना नामुमकिन था। किसी तरह मंगल जी ने अपने प्रोविडेंट फण्ड के पैसे निकाल कर उसे कहीं दूर किसी छुटके से इंजीनिरिंग कॉलेज में दाखिला दिला ही दिया।
पढ़ाई लिखाई तो वहां धेले भर की भी न हुयी ; पर हाँ चार साल बाद एक चमकती से डिग्री जरूर मिल गयी।
पर अब बेटा जगह जगह नौकरी के लिए धक्के खा रहा है। उस डिग्री की कोई कीमत नहीं है। इंटरव्यू लेने वाले उस डिग्री को देख हंस देते हैं। कहते कुछ नहीं, पर उनकी नजरें सब कह देती हैं की वो डिग्री मिट्टी का मोल भी नहीं रखती।
हताश हो कर, उनका बेटा अब अपना खुद का व्यवसाय करने की सोच रहा है पर मंगल जी तो अब तक की जमा पूंजी उस डिग्री पर ही खर्च कर चुके हैं।
आज दोनों पछता रहे हैं कि काश उस तराजू में पैसे उड़ेलने की शुरुआत ही न की होती। शायद तब बेटा ज्यादा मन लगा कर पढ़ा होता। या ऐसे ही भी पढ़ा होता तो भी सारी जमा पूंजी पढाई के यज्ञ के नाम स्वाहा तो नहीं होती।
जो पैसे डिग्री खरीदने में लगाए वो बचाये होते तो कम से कम, आज व्यवसाय शुरु करने के लिए कुछ पूंजी तो पास होती।
पर अब पछताय क्या होत जब डिग्री चुग गयी खेत।