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H.k. Seth

Abstract

4.9  

H.k. Seth

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रामजी

रामजी

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सुबह के पाँच बजे थे मैं नहा धोकर तैयार हो गया और रामजी के चरण छूकर बिना कुछ खाए, जाने ही वाला था कि मेरी पत्‍नी उठ गई और बोली, सुनो! आज दीपावली है आज कुछ भी हो मिठाई ज़रूर लाना और हो सके तो पटाखे भी। जब तक तुम नहीं आओगे तब तक बच्‍चे चैन से नहीं बैठेंगे। मुझे भी याद था कल रात को घर में बचा-खुचा दाल व आटा भी खत्‍म हो गया था। आज शायद सारा दिन ये दोनों बच्‍चे कैसे जीयेंगे क्‍या खायेंगे। ये सोचकर मेरा रंग उड़ सा रहा था। मेरी आँखें नम हो गई थी। मेरी आँखों के आँसू पोंछते हुए मेरी पत्‍नी बोली! चिंता क्‍यों करते हो ‘रामजी’ भली करेंगे आज दीपावली है, आज तुम्‍हे बहुत काम मिलेगा।

मैं कोई बहुत बड़ा काम नहीं करता था। रेड़ी खींचता था वो भी एक पट्टेदार रेड़ी वाला, अगर दुकान पर कोई साहब मेज, कुर्सी या अलमारी लेने आता तो उसके घर तक समान पहुँचाकर मैं उससे कुछ रूपये ले लेता और इसमें मेरा यह गुजारा चलता। कभी-कभी तीन-तीन दिन तक कोई काम भी नहीं होता था तब ऐसे ही हालात होते थे। अभी चार दिन पहले ही तो रेड़ी टूट गयी, तो सौ रूपये उस पर खर्च हो गए। बस बचा-खुचा रूपया भी उसमें खर्च हो गया। अब हाथ में पैसा नहीं था और दीपावली का त्‍यौहार। हम कभी-कभी सिर्फ चावल उबालकर भी खा लेते थे पर आज जब बच्‍चे गली में सबको अच्‍छे कपडे़ पहने हुए पटाखे चलाते देखेंगे और मैं उन्‍हें खाना भी नहीं दे पा रहा यह सोचता हूँ तो मेरे सांसें थम सी जाती है और मैं मन ही मन रो देने के सिवाय कुछ भी नहीं कर सकता। बस फिर अपनी पत्‍नी से विदा लेकर मैं चला गया। दो-तीन घंटे तक चौराहे पर खड़ा रहा पर कोई रेड़ी वाले के पास नहीं आया शायद मेरी जरूरत किसी को नहीं थी क्‍योंकि आज सबके पास बड़ी-बड़ी गाडियाँ है और छोटे-मोटे काम तो गाड़ी से हो जाते है।


अब 9 बज चुके थे। दुकान का खुलने का समय ओर मैं दुकान के लिए रवाना हो गया। यहाँ से दुकान पर जाने का एक घंटे का रास्‍ता था। दुकान पर पहुँचा तो अभी मालिक नहीं आया था। मैं इस दुकान पर अकेला ही रेड़ी वाला नहीं था। मेरी तरह दो और ऐसे रेड़ी वाले और थे और उनकी हालात भी मेरी तरह थी। दुकान खुली 11 बजे और शाम के चार बजे तक कोई ऐसा ग्राहक नहीं आया जो बड़ा सामान खरीदता। सारा दिन बच्‍चों की फिक्र में मुझे भूख नहीं लगी। आखिरकार एक ग्राहक आ ही गया। जिसने बहुत बड़ी काँच की मेज़ ख़रीद ली और वह उसे रेड़ी पर अपने घर ले जाना चाहता था। रूपये भी पांच सौ देने को तैयार था पर उसका घर बहुत दूर था इसलिए मैं तैयार हो गया। काँच की मेज़ बहुत बड़ी थी रेड़ी पर ले जाना आसान नहीं था और यहाँ से बीस किलोमीटर जाना कम से कम तीन या चार घंटे का रास्‍ता था। रास्‍ते भर मैं बहुत ध्‍यान से चलता रहा कहीं ये मेज़ टूट ना जाए। अगर ऐसा हुआ तो मैं तो हमेशा के लिए बंधुआ मज़दूर बन जाऊँगा। ये सोचकर मैं काँप जाता था।

आखिरकार रात 9 बजे मैं मेज़ के मालिक के घर पहुँच गया। इस घर का मालिक और मालकिन पूजा कर रहे थे। आज दीपावली जो थी, थोड़ी देर मुझे रूकने को कहा गया। मैं वहीं रूक गया और इंतजार करने लगा। थोड़ी देर में ही मेरा मन अपने घर के बारे में सोचने लगा मैं तो घर में कुछ भी नहीं छोड़ के आया था। बच्‍चे शायद भूख से बिलख रहे होंगे और वो भी दीपावली के दिन, बार-बार मेरे आने की आहट शायद उन्‍हें थोड़ी देर के लिए तसल्‍ली दे देती होगी, मेरी पत्‍नी पूजा के लिए खाली थाली लिए भगवान के सामने बैठी होगी और उसकी आँखें नम होगी ये सोचकर मेरी आँखें भी नम हो गई। जहाँ मैं बैठा था वहाँ से दस मीटर दूरी पर एक ओर बहुत बड़ी लकड़ी की मेज़ थी और वहाँ पर बड़ी-बड़ी थालियों में भरपूर मेवा व मिठाई रखी हुई थी। शायद यह बच्‍चों के लिए रखी हुई थी जिनसे बच्‍चे अपने आप मिठाई का सेवन कर सके और माँ-बाप को कोई कठिनाई ना हो। दो बच्‍चे बार-बार वहाँ से काजू ले जा रहे थे। भगवान भी खूब है कहीं पर ढेरों और कहीं पर एक मुट्ठी चावल भी नहीं, रह-रहकर मैं यह सोच ही लेता था।

रात के 10 बज चुके थे। पूजा खत्‍म होने के बाद मालिक साहब बाहर आए और एक मिठाई का टुकड़ा मुझे प्रसाद के रूप में दिया। मैनें मेज़ रखने के लिए कहा तो वह बोले! थोड़ी देर रूको। मैं नौकरों को भेजता हूँ वह बच्‍चों के साथ पटाखे छोड़ रहे हैं। मेज़ रखवाते-रखवाते रात के 11 बज गए। उसके बाद रूपये लेने में और रास्‍ते में भी दो घंटे और लग गए। रात को 1 बजे मैं घर पर पहुँचा पूरे रास्‍ते मिठाई की और पटाखे की दुकान ढूढंता रहा शायद कोई दुकान खुली हो जिससे मैं भी बच्‍चों के लिए कुछ ले जाऊँ पर दीपावली की रात को दुकानें थोड़ी और जल्‍दी बंद हो जाती है। आखिर मैं घर पर पहुँच गया। दरवाज़े पर पहुँच थककर वहीं बैठ गया मेरी हिम्‍मत नहीं हो पा रही थी घर के अंदर जाने की। बार-बार यह सोचकर कि बच्‍चे भूखे ही सो गए होंगे। पत्‍नी पूरानी साड़ी में खाली थाली लिए आँसू बहाते-बहाते कब तक बच्‍चों को झूठी तसल्‍ली देती रही होगी और मैं यह सोचकर बहुत तेज़ पर बिना आवाज़ के रोने लगा, जितनी तेज़ मैं रो रहा था शायद सभी पटाखे की आवाज़ उससे कम होगी। पर मैनें मुँह पर हाथ रखा हुआ था और सिर्फ हिचकियाँ ही मुझे आ रही थी। तभी मेरी पत्‍नी ने दरवाज़ा खोला और मुझे रोते देख कर वो भी रो पड़ी। अब मुझे यकीन हो गया कि आज का दिन ‘रामजी’ ने हमारे लिए सबसे खराब दिन रखा। तभी मैनें उसे 500/- का नोट दिखाया और कहा कि हम कल दीपावलीमनाएंगे मेरे पास रूपये हैं। हम... ज़रूर... ज़रूर...! बस मैं ये ही कह पाया और उसके साथ लिपट गया।


अब हम अंदर आ चुके थे और मैं रामजी का बार-बार शुक्रिया अदा कर रहा था। रामजी के राज में मैं कौन होता हूँ अपने बच्‍चों को सुख और खुशी देने वाला। वो खुद ही हर इंसान का ध्‍यान रखने वाले हैं। मेरी पत्‍नी ने बताया – मेरे जाने के बाद हमारे पड़ोसी के भाई जिनकी नई-नई शादी हुई थी। वह घर पर आए और मिठाई का डिब्‍बा दे गए। क्‍योंकि वह पक्‍के चपरासी सरकारी नौकरी में हो गए थे। वह बहुत ही खुश थे और उन्‍होंने इतने पटाखे ख़रीद रखे थे कि वह सारा दिन उन पटाखे को नहीं छोड़ सकते थे। इसलिए हमारे बच्‍चों ने दिन भर उनके साथ पटाखे छोडे़ और वहीं पर खाना भी खाया। उनकी दी हुई मिठाई से भगवान की पूजा हुई और दो घरों में मिठाई भी दी और कुछ घरों से पूरी और मिठाई भी आई जिसे मेरी पत्‍नी ने मेरे लिए संभालकर रख दिया। बच्‍चे सारा दिन पटाखे व मिठाई खाते रहे और रात को थक कर गहरी नींद में सो गए। मेरी आँखों से खुशी के आँसू आने लगे। मैं सोचता रहा कि शायद मैं कमाकर लाऊँगा और तब बच्‍चे कुछ मीठा खाएंगे और पटाखे चलाएंगे, पर मुझे ये नहीं मालूम था कि सबका परमपिता परमात्‍मा अपने आप सबके अच्‍छे और बूरे का ख्‍याल रखता है और लोग बेवजह परेशान होते रहते हैं। वाह! रामजी, आँसू मेरी आँखों से आ रहे थे, पर मेरी आत्‍मा खुश थी। मैनें मिठाई का वो टुकड़ा जो मुझे प्रसाद में मिला था अपनी बंधी गठरी से निकाला और आधा अपनी पत्‍नी को दिया और आधा खुद खाया अब मुझे कल की कोई चिंता नहीं थी रामजी है ना। 



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