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मकर संक्रान्ति

मकर संक्रान्ति

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रामलाल अपनी साइकिल को मास्टर साहब के दरवाज़े पर खड़ा करके घर के बाहर से ही आवाज़ लगाते हैं 'मास्टर जी घर पर है या नहीं ' और फिर पास में पड़ी कुर्सी पर बैठ जाते है। सफेद बालों और मूंछों के साथ पतला दुबला लेकिन स्वस्थ शरीर उनके व्यक्तिव को निखार देता था। वैसे तो रामलाल, मास्टर जी के पुस्तैनी खेतों और जमीनों की देखभाल करते है लेकिन उनको मास्टर जी के घर में परिवार के सदस्य जैसा ही मान मिलता है।

घर के अंदर से मास्टर जी निकलते है और रामलाल के पास दूसरी कुर्सी पर बैठते हुए कहते है कहिए रामलाल जी कैसे आना हुआ ?

"कुछ दिनों से सोच रहा हूं कि बेटा और बहू से मिलने दिल्ली चला जाऊँ।" अरे तो चले जाओ इसमें सोचने की क्या बात है मैं यहां का काम सम्हाल लूँगा, मास्टर जी ने कहा। तभी घर के अंदर से एक लड़की दो कप चाय टेबल पर रखकर चली जाती है। एक कप चाय रामलाल को देते हुए मास्टर जी, रामलाल से पूछते है अखिल ठीक तो है ना ? अखिल, रामलाल का बेटा जो पढ़ने में बहुत ही तेज़ था जिसकी वजह से उसे स्कॉलरशिप मिली और उसने अपनी पढ़ाई पूरी करके, दिल्ली के एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में काम करने लगा था।

"हां अखिल ठीक है, ऑफ़िस के काम की वजह से घर नहीं आ पा रहा तो उसने मुझे ही अपने पास बुलाया है। मेरे वहां जाने से यह भी पता चल जायेगा कि उन दोनों की नई गृहस्थी कैसी चल रही।" रामलाल ने चाय का कप अपने हाथ में लेते हुए कहा।

"अब जब इतने दूर से बहू को ब्याह कर लाए हो तो बहू की देखभाल तो करनी ही होगी, एक तो दूसरे राज्य की बेटी लाए बहू बनाकर और दूसरे एक पैसे दहेज़ भी ना लिए।" अपनी चाय पीते हुए मास्टर साहब ने कहा।

तब रामलाल जी चाय का एक घुट पीकर बोले "अच्छी बेटी दूसरे प्रदेश में मिल गई तो उसे ही बहू बनाकर लाए और जब भगवान की कृपा से घर गृहस्थी चले ही जा रही तो दहेज़ काहे को लेना।" यह सुनकर मास्टर जी ने एक लम्बी सांस लेते हुए कहा "जब अपनी बेटी की शादी में दहेज़ दिए थे तो बेटे की शादी में भी लेना चाहिए था ना" रामलाल ने अपनी चाय खत्म करके कप टेबल पर रखते हुए बोले "बस इसी सोच की वजह से हमारे समाज में दहेज़ की प्रथा खत्म नहीं हो पा रही और ना जाने कितनी बेटियों की आहुति इस दहेज़ रूपी अग्निकुंड में दी जा रही। अब मुझे चलना चाहिए बहू की पहली मकर संक्रान्ति आ रही उसकी भी तैयारी करनी है।" यह सुनते ही मास्टर जी का चेहरा गंभीर हो गया, वो बोले "अरे रामलाल तुम शायद भूल रहे हमारे यहां मकर संक्रान्ति में बेटी के घर खिचड़ी भेजते है जिसमें बेटी के लिए कपड़े, तिल के लड्डू , चावल और सब्जियां होती है। बहू के लिए खिचड़ी नहीं भेजा जाता। वैसे भी आजकल के बदलते परिवेश में लोग अपने से दूर रह रही अपनी बेटियों को खिचड़ी की जगह पैसे ही भेज देते है, जिससे बिटिया अपनी पसंद का कोई भी ड्रेस या गिफ्ट ले लेती है।" यह सुनकर रामलाल मुस्कुराते हुए बोलते है "अरे मैं बूढ़ा ज़रूर हो गया हूं लेकिन भूला कुछ नहीं, बहू दूसरे प्रदेश से आयी है उसके वहां यह सब होता नहीं लेकिन जब उसे ससुराल से खिचड़ी मिलेगी तो उसे हमारे यहां का रस्मो -रिवाज पता चलेगा। मुझे तो वैसे भी अपनी बेटी को खिचड़ी भेजने की तैयारी करनी ही है तो साथ में बहू की भी हो जाएगी। जब मैं दिल्ली में बेटे और बहू से मिलूंगा तो बहू को पहली मकर संक्रान्ति पर साड़ी, मिठाई और कुछ पैसे दे दूँगा।" यह कहकर रामलाल घर जाने के लिए खड़े हो गए। मास्टर जी ने अपने जेब से पैसे निकाले और रामलाल को देते हुए बोले "अब जब तुमने इस साल एक नई परम्परा की शुरूआत कर ही दी है, तो तुम्हें इन पैसों की जरूरत पड़ेगी। बेटी और बहू दोनों के लिए खरीदारी करो।" रामलाल पैसे लेकर बहुत खुश हुए और धन्यवाद बोल कर साइकिल से अपने घर की ओर चल दिए।

मास्टर जी रामलाल को जाते हुए देखकर मन ही मन इस साल से अपनी बहू को भी खिचड़ी देने का फैसला कर चुके थे।


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