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परिवर्तन

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आज लाला अमीरचन्द चल पड़े थे अपने अंतिम सफर पर। लेखा जोखा जो देना था अपने अच्छे बुरे कर्मों का। पता नहीं उसके यहाँ अच्छे कर्मों का पलड़ा भारी होगा या बुरे कर्मों का। फिलहाल वह शांत थे, निर्विकार, चेहरे पर एक आभा दमक रही थी अभी भी। अपने अंत समय को सुधारने की अपनी पूरी कोशिश कर चुके थे। इस समय गाँव में केवल अमीरचन्द ही थे जो प्रसन्न भाव से अपने नियत स्थान को जा रहे थे बाकि पूरा गाँव विलाप कर रहा था। ऐसा विलाप जैसे पिता का साया संतान के ऊपर से उठ जाने पर होता है। काश सच में कोई संजीवनी बूटी किसी को मिल जाती तो तुरंत रोक लेते अपने दाता को। हर कदम भारी हो रहा था उसे ले जाने में जिसके मरने कामना दस साल पहले तक हर कोई करता था।

बिलासपुर नाम का वो छोटा सा कस्बेनुमा गाँव। वहीं का साहुकार था अमीरचन्द। यथा नाम तथा गुण। पैदा होते ही चांदी की चम्मच मुँह में आ गई थी। कई शहरों में फैला बाप दादा का पुश्तेनी व्यापार, बिलासपुर में तिमंजिला कोठी और पास के महानगर के पाॅश एरिया में बंगला, दो बेटे और एक बेटी। क्या कमी रखी थी ईश्वर ने, पर फिर भी थोड़ा और के लालच ने अमीरचन्द को भला आदमी बनने नहीं दिया। गाँव में कई बीघा फैले खेतों में काम करते थे उनके बंधुआ मजदूर। जो कब से बंधुआ थे न मजदूरों के बाप दादा को पता था न अमीरचन्द के बाप दादाओं को। लाला की पूरी कोशिश रहती कि मजदूरों को इतना न मिले कि दो जून की रोटी के बाद उनके पास कुछ बच जाए। लालाकी नज़र में तो वह मजदूरों को जरूरत से ज्यादा देता है पर मजदूर ही जानते थे कि कितनी बार उनको आधे पेट रह कर रात गुजारी पड़ती। शहर की फैक्ट्री में काम करने वाले कर्मचारियों के भी हाल भी ऐसे ही थे। जितनी तनख्वाह देता उससे दोगुना पर हस्ताक्षर करवाता और काम लेता तीन गुना। बेरोजगारी की मार पर मरता क्या न करता इसलिए सब गालियाँ देते रहते और लाला की चाकरी करते रहते। आए दिन लाला की कोठी में शराब और शबाब की पार्टियों का दौर चलता। बेटे भी आला दर्जे के अय्यास। अपने हर काम में हेराफेरी कर ज्यादा से ज्यादा कमाना अमीरचन्द की फितरत थी। अमीरी का नशा शायद कभी न उतरता अगर उस काली रात शहर की फैक्ट्री में लगी आग उसके बडे बेटे को चपेटे में नहीं लेती। वो आग जो इन्श्योरेन्स कम्पनी से क्लेम लेने के लिए उसने खुद लगवाई थी।

लाला अमीरचन्द ने अपने बडे बेटे वरूण के साथ मिलकर अपनी ही फैक्ट्री में आग लगाने की योजना बनाई, जिससे इन्श्योरेन्स का पैसा मिल जाए और वर्कर्स को भी मेहनताना न देना पड़े। होनी को कुछ और ही मंजूर था फैक्ट्री में आग लगाने के चक्कर में वरूण खुद ही उसमें झुलस गया। इस खबर को सुनकर वही पास के फार्म हाउस में पार्टी कर रहा छोटा बेटा अजय और दामाद विपुल वरूण को सम्भालने रवाना हुए। नशे में धुत अजय और और विपुल जो खुद ढंग से चल नहीं पा रहे थे अब कार चला रहे थे। कुछ नशा और कुछ भाई को संभालने की जल्दी में कार की गति बेकाबू थी और इतनी कि रास्ते में एक ट्रक से बचने के चक्कर में कार पास की खाई में गिर गई। इस दुर्घटना में अजय की मृत्यु हो गई और विपुल का एक पैर काटना पड़ा। उधर वरूण आग से जलने बचने के लिए फैक्ट्री से बाहर भागा और किसी चीज से उलझ कर गिरा और उसका सिर किसी पत्थर से टकराया। समय रहते वरूण को आग से बचा लिया गया, पर सिर पर लगी चोट और आग के सदमे से वह कौमा में चला गया। कल तक सबसे अमीर अमीरचन्द के आंगन में आज एक बेटे की लाश रखी थी एक अपाहिज दामाद था और एक बेटा जिसके जीवन मृत्यु का कुछ पता नहीं था। अपने दुख से थोड़ा सम्भलने के कुछ दिनों बाद अमीरचन्द ने इन्श्योरेन्स कम्पनी में क्लेम किया पर जाने कैसे इन्श्योरेन्स कम्पनी को अमीरचन्द की चाल का पता चल गया और उसने अमीरचन्द पर धोखाधड़ी का केस कर दिया। इन सब बातों के बीच अमीरचन्द दूसरे बिज़नेस पर भी ध्यान न दे पाया और उनमें भी नुकसान उठाना पड़ा। चारों और से आई विपदा ने लाला को तोड़ दिया। उन्हें अपने हर और अंधेरा नजर आ रहा था। उनमें जीवन की जिजीविषा भी खत्म हो रही थी। बस रात दिन अपने बडे बेटे वरूण के होश में आने की प्रार्थना करने लगे।

एक दिन वो टीवी पर एक महात्मा के प्रवर्चन सुन रहे थे " कर भला तो हो भला, व्यक्ति को सदैव समाज के लिए काम करना चाहिए। सुख दुःख आते-जाते रहते है मनुष्य को चाहिए कि बीती ताही बिसार के आगे की सुधि ले। अपना किया अच्छा भूल जाओ और अपना किया बुरा सदैव याद रख कर उसका समय पर प्रायश्चित करो।" इन प्रवचनों को सुनने के बाद वो वरूण को सम्भालने हॉस्पिटल के लिए रवाना हो गए। अस्पताल के बाहर रोज एक विकलांग व्यक्ति दिखता, वो अपनी बैसाखियों के सहारे चलकर भी सड़क पर पड़ा कूड़ा कचरा साफ करता रहता था। लाला अमीरचन्द ने आज उससे पूछा कि तुम यहाँ के कर्मचारी नहीं लगते फिर यहाँ क्या करते रहते हो ?

जवाब में उस आदमी ने बताया "मैं एक गरीब आदमी हूँ एक बार मेरा एक्सीडेंट हो गया तो किसी भले आदमी ने मेरा इलाज करवाया। मैं उसकी बराबरी तो नहीं कर सकता पर उस दिन से एक प्रण ले लिया रोजाना एक-डेढ़ घंटा यहाँ आता हूँ। यहाँ रास्ते पर पड़ा कूड़ा उठाकर कूड़ेदान में डालता हूँ। यहाँ आने वालों की अपने स्तर पर थोड़ी बहुत मदद कर देता हूँ। मेरी यही छोटी सी समाज सेवा है।" उन प्रवचनों और उस आदमी की बातों ने अमीरचन्द की जीवन की दिशा ही बदल दी। वो सोचने को मजबूर हो गए कि जब इस व्यक्ति के पास कुछ न होकर भी समाज को अपना योगदान दे सकता है तो मैं तो इससे ज्यादा सामर्थ्यवान हूँ। उस दिन के बाद लोगों को अमीरचन्द का एक नया अवतार देखने को मिला।

अपने सारे बन्धुआ मजदूरों को उन्होंने आजाद कर दिया । अब वो अपना ज्यादातर समय समाज सेवा और पूजा-पाठ में लगाने लगे। कारोबार की बागडोर वरूण की पत्नी के हाथों में दे दी ताकि उसका दुःख थोड़ा कम हो और खुद को व्यस्त रख सके। गाँव और शहर में गरीब बच्चों के लिए वाजिब फीस पर स्कूल खोल दी जिसमें उच्च क्वालिटी की शिक्षा दी जाती। गाँव में युवाओं के लिए रोजगार केन्द्र भी खोला जहाँ उनकी प्रतिभा को और निखारा जाता, इससे उन युवाओं को बाहर अच्छा काम मिलने लगा। कितनी ही गरीब लड़कियों का विवाह उन्होंने अपने खर्च पर करवाया। शहर में एक अनाथालय भी खोल दिया। जितना वो समाज के कामों में खर्च करते उससे दूना उनके व्यापार में वृद्धि होने लगी। इससे लाला के मन में परोपकार की भावना और पक्की हो गई। लाला के परोपकार का ही फल था पांच साल कोमा में रहने के बाद भी वरूण को होश आने लग गया। धीरे-धीरे लोगों की दुआओं ने रंग दिखाया और वरूण पूरी तरह स्वस्थ होकर घर आ गया। वरूण के घर आने की खुशी में लाला अमीरचन्द ने गाँव में एक पोखर का निर्माण करवाया। ऐसी ही समाज सेवा की सीख वरूण को भी देकर वो दुनिया से विदा हो गए।


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