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Sunita Mishra

Abstract

1.0  

Sunita Mishra

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निष्प्राण

निष्प्राण

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मेरी निष्प्राण देह जमीन पर पड़ी थी। कोई नहीं रो रहा था, न कोई शोक मना रहा था। न मेरे माँ बाप थे, न भाई बहिन न रिश्तेदार। मैं अचंभित था, नहीं पता किसी की वासना या जननी की भूल, नाले के पास पाया गया मैं। कुत्ते नोच रहे थे, कुछ दूरी पर चर्च था। वहां की एक बूढ़ी नन ने बचा लिया मुझे। मैं उसकी देख रेख में पलने लगा। बूढ़ी मदर ज्यादा जिन्दा नहीं रही। प्यार की उम्र चार साल तक ही रही मेरी। मेरे दुबले कन्धों पर चर्च के छोटे बड़े काम डाल दिये गये। जब थक जाता तो मदर की कब्र पर जाकर खूब रोता। इस तरह चार साल मैंने किसी तरह बिता दिये। अब मैं आठ साल का हो गया और एक दिन मौका पाकर वहाँ से भाग निकला।

बिना टिकट ट्रेन में बैठ गया। नहीं जानते हुए की ये गाड़ी जा कहाँ जा रही है।

शौचालय के दरवाजे से टिका बैठा रहा। डरता रहा की चर्च के लोग मुझे ढूंढ़ न रहे हो। जेब खाली, पेट भी खाली, क्या करता ? आँते कुलबुला रही थी। गॉड जीजस, दया कर, गले मे लटके क्रास को हाथों में ले प्रेयर करने लगा। उसी समय पेनट्री कार का वेटर सबके लंच की प्लेट इकट्ठी कर वहाँ लाकर रख, चला गया। मैंने मौके का फायदा उठाते हुए प्लेट्स में शेष बचा खाना जल्दी जल्दी खाना शुरु किया, यहाँ तक की उन्हें चाट कर साफ कर दी। भूख का ये रूप मैंने पहली बार जाना। फिर तो जो नींद आई, कि जब टी टी ने हाथ खींच कर उठाया और गाड़ी से नीचे उतार दिया तब होश आया।

अब फिर मैं निपट अकेला, अनजान शहर, अंधेरा छाने लगा। मैं डरा नहीं । ज़िन्दगी के अनुभवों ने आठ साल की उम्र ही बहुत पाठ पढ़ा दिये थे। चुपचाप स्टेशन की बैंच पर बैठा आगे की योजना बनाता रहा।

पेट की आग तो बुझी हुई थी, बैठा शून्य में ताक रहा था और जन्मदाता, माँ पिता को गालियाँ दे रहा था मन ही मन। आवाज सुनी कोई मुझे आवाज दे रहा है। पहले तो भ्रम लगा, लेकिन नहीं, पचास कदम की दूरी पर हाथ से इशारा कर एक लड़का मुझे बुला रहा था। मैं उसके पास पहुँचा, वो बोला- दादा बुलाया तेरे को, बात कर।

सामने मजबूत कदकाठी का बड़ी-बड़ी दाढ़ी मूछें काला रंग, आदमी बैठा था। उसने पूछा- भाग कर आया "मैंने हां में सिर हिलाया।" काम करेगा, रोटी पानी, छत सब मिलेगा, "मैंने फिर हां में सिर हिला दिया।

अब मैं छैला (यही नाम था उसका) दादा का चेला हो गया। मेरे जैसे आठ दस लड़के थे सबके अलग अलग डेरे थे। शाम को कमाई दादा के हाथ में, बदले में रोटी साग, और साथ में थोड़ा हाथ खर्च कमाई के हिसाब से।

मुझे भी डेरा एलाट हो गया। शहर के बीच बनी एक पुरानी मस्जिद पर। पैरों को ऐसा मोड़ कर ऐसा बैठना की लगे पैर टूटे हुए हैं। पैरों में कपड़ा बाँध लेना, हाथ से चलाते हुए दो पहियों की लकड़ी की गाड़ी पर बैठना। प्रेक्टिस में एक हफ्ता लगा। मुझे अल्सुबह एक कप चाय और दो टोस्ट खिला, शुभकामनायें दे काम पर विदा किया गया। "अल्ला के नाम पर दे दो।"

"मौला के नाम पे दे दे, "मालिक तेरा भला करेगा-

मेरी दुकान चल निकली। दादा भी मेहरबान हो गया, नमाज़ी भी मुझ पर दया करते। भीख नहीं लगती थी, इज़्ज़त की रोटी लगने लगी।

बाल खिचड़ी होने लगे। दादा मे भी पहिले सा दम नहीं रहा। मेरा ट्रांसफर एक मन्दिर की ओर अन्धा बना कर कर दिया गया। गला मेरा सुरीला था। भजन गाता था। "राम जी भला करेंगे अंधे को कुछ दे दे बाबा" राम जी ने भी मुझे यहाँ गले लगा लिया। दुकान दिन दूनी रात चौगिनी चल रही थी।

दादा की तबियत बिगड़ती गई और एक दिन उसने इस दुनिया से विदा ले ली। मुझे दादा की गद्दी पर बिठा दिया गया। मेरे सभी चेले मुझसे खुश थे।

हाथ खर्च बढ़ा दिया था। समय समय पर पार्टियाँ (लज़ीज़ व्यंजन) भी देता था। किसी किस्म का उनमें बंधन नहीं था।

मेरा भी शरीर थकने लगा। रोग शरीर में पसरने लगे। गद्दी से मैंने सन्यास ले लिया। डेरा भी मैंने छोड़ दिया। शहर में मैं मस्त मौला घूमता, जो मिलता, खाता जहाँ ठौर मिलती सो जाता। हालांकि चेलों ने मुझे बहुत मनाया कि मैं डेरे में आराम से रहूँ पर फकीरी मुझे भा गई थी।

एक रात पेड़ के नीचे मैं ऐसा सोया की फिर नहीं जागा।

लोग मेरे चारों ओर खड़े थे। जानते थे वो मुझे फकीर बाबा के नाम से। कोई कह रहा था मुझे दफनाया जाय, कोई कहता- नहीं दाह संस्कार होगा। मेरी जाति कोई जानता ही नहीं था।

अरे अपनी जाति तो मैं भी नहीं जानता। नाले के पास पड़ा नाजायज।

अब हाड़ माँस का नहीं, एक आत्मा हूँ मैं, आत्मा की कोई जाति होती है भला।


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