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शहतूत

शहतूत

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"मैंने कहा था न आपको, इस बार इस पेड़ को बरसात के मौसम से पहले कटवा देना, लेकिन तुम्हें तो मेरी कोई बात माननी ही नहीं।......"आँगन में शाम के समय शहतूत के पेड़ के नीचे बैठ चाय पीते हुए शरबती ने अपने लेखक पति चंद्रेश्वर को झिड़की दी।

".....इतना समय बीत गया इस पर एक बार भी फल नहीं लगा। उल्टे इसके पत्तों से आँगन में कूड़े की भरमार हो जाती है सो अलग।..... देखो.... देखो अब भी मेरी बातों से इनके सिर पर जूं तक नहीं रेंग रही। पता नहीं कौनसे काग़ज काले करते रहते हैं। घर का तो एक भी काम नहीं करना।...."

शरबती बड़बड़ाए जा रही थी। जब चंद्रेश्वर ने उसकी बातों को हाँ-हूकर में टाल दिया तो आख़िर वह भी थक-हारकर, असल में उसकी चाय ख़त्म हो गयी थी, बर्तन उठा जाने लगी।

"....ध्यान रहे इस बारओ यह शहतूत का पेड़ जरूर कटवाना है। इसकी जगह कोई अच्छा-सा फलदार पेड़ लगाएंगे।"

पत्नी के जाने के बाद चंद्रेश्वर अपने आपसे कहने लगा, "अब इस नादान स्त्री को कौन समझाए। हर साल पतझड़ के बाद इस पेड़ पर कई चिड़िया अपने घोंसले बनाती हैं। गर्मियों में इसके गहरे पत्ते अपनी छाया से घर को शीतल रखते हैं। फिर इस शहतूत को हमने अपने बेटे के पहले जन्मदिन पर ही तो लगाया था। इसको भी उसकी तरह ही खूब देखभाल कर पाला है। बेटा तो बड़ा होकर अपने परिवार में खोकर हमें भूल-सा गया है। यह शहतूत फल भले ही न देता हो लेकिन आज भी हमें भरी दोपहरिया में ठंडी छाँव और अनेकों चिड़ियों को आसरा तो दे ही रहा है।"

चंद्रेश्वर की आँखों के कोर गीले हो गए। उसने अपना मोटा सा चश्मा उतारा और हाथ से आँख पोंछकर चश्मा साफ़ करने के लिए कुर्ते की जेब में रुमाल टटोला, रुमाल नहीं मिला तो आवाज़ लगायी, "सुनती हो भाग्यवान !'


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