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गाँव - 1.8

गाँव - 1.8

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ठण्डी, कोहरे से ढँकी सुबह को उजाला होते ही तीखन इल्यिच घर के लिए निकल पड़ा, जब गीले खलिहानों और धुएँ की गन्ध अभी तैर रही थी, उनींदे मुर्गे कोहरे में लिपटे गाँव में बाँग दे रहे थे, कुत्ते पोर्च के निकट सो रहे थे, बूढ़ी बत्तख घर के पास अधनंगे, शिशिर के मृत पत्तों से ढँके सेब के पेड़ के ऊँचे तने पर सो रही थी। खेत में हवा द्वारा खदेड़ी जा रही घनी भूरी धुन्ध के कारण दो कदम की दूरी पर भी कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। तीखन इल्यिच का सोने को मन न हुआ, मगर उसे थकावट महसूस हो रही थी और वह, हमेशा की तरह तेज़ी से हाँक रहा था लाल-भूरे, पूँछ बाँधे गए घोड़े को, जो भीग गया था, दुबला प्रतीत हो रहा था, अधिक काला और छैला नज़र आ रहा था। उसने हवा से मुँह फेर लिया, अपने लम्बे कुर्ते का ठण्डा गीला कॉलर ऊपर को उठाया, जो नन्हीं-नन्हीं बारिश की बूँदों से पूरी तरह आच्छादित, चाँदी जैसा चमचमा रहा था; पलकों पर लटकती ठण्डी बूँदों के पार से दौड़ते हुए पहिए से चिपकी चिकनी काली मिट्टी की मोटी तह को देखा, सामने से उठता हुआ कीचड़ का फ़व्वारा देखा, जो ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था, जिसने उसके जूते के पिण्डलियों वाले भाग को पोत दिया था; घोड़े के गतिमान पुट्ठों, उसके दबे हुए, कोहरे से घिरे कानों को कनखियों से देखा...जब वह कीचड़ के कारण जलते हुए चेहरे से आख़िरकार घर पहुँचा, तो पहली बात जो उसकी आँखों में खटकी, वह था अस्तबल के पास बँधा हुआ याकव का घोड़ा। जल्दी से रास को गाड़ी के सामने वाले हिस्से से लपेटकर वह दुकान के खुले हुए दरवाज़े के पास लपका – और डर के मारे वहीं रुक गया।

“बेवकूSSफ़!” काउण्टर के पीछे खड़ी नस्तास्या पित्रोव्ना, ज़ाहिरी तौर पर, उसकी, तीखन इल्यिच की, नकल करते हुए, मगर दर्दभरी, प्यारभरी आवाज़ में, नीचे झुककर खनखनाते सिक्कों से भरी पेटी में हाथ डालकर चिल्लर ढूँढ़ते हुए और अपेक्षित सिक्का न मिलने पर बोली :

“बेवकूफ़! आजकल, वह, केरोसिन, कहाँ बेचते हैं, इससे सस्ते दामों पर?”

चिल्लर न पाने पर सीधी हो गई, अपने सामने टोपी और मोटा कफ़्तान पहने, मगर नंगे पैर खड़े याकव को, उसकी अजीब-से रंग की नुकीली दाढ़ी को देखते हुए आगे बोली:

“मगर कहीं दुल्हन ने उसे ज़हर तो नहीं दे दिया?”

और याकव ने जल्दी से फ़ुसफ़ुसाहट से कहा;

“हमारा काम नहीं है, पित्रोव्ना...शैतान ही जाने... हमारा काम है – दूर रहना ... एक तरफ़, मिसाल के तौर पर...”

और पूरे दिन इस फ़ुसफ़ुसाहट को याद करके तीखन इल्यिच के हाथ थरथराते रहे। सभी, सभी सोचते हैं कि दुल्हन ने ज़हर दिया!”

सौभाग्य से, रहस्य वैसे ही रहस्य बना रहा : रोद्का को दफ़ना दिया गया। ताबूत को बिदा करते हुए दुल्हन रो पड़ी, इतनी सच्चाई से कि वह असभ्य-सी प्रतीत होने लगी, क्योंकि यह बिसूरना तो भावनाओं का प्रदर्शन नहीं, अपितु रस्म निभाना होना चाहिए और धीरे-धीरे तीखन इल्यिच की घबराहट कम हो गई।

काम तो गले-गले तक थे, और मदद के लिए – कोई नहीं। नस्तास्या पित्रोव्ना से तो मदद कम ही मिलती। भाड़े पर तीखन इल्यिच ने सिर्फ “भगोड़ों” को ही रखा था – शिशिर के लेण्ट तक के लिए। और वे सब चले गए थे। सिर्फ साल भर के लिए रखे गए मज़दूर ही बचे थे, रसोइया, बूढ़ा पहरेदार, जिसका नाम झ्मीख था, और नौजवान ओस्का, ‘पूरा पागल’। और सिर्फ मवेशियों का ही कितना काम था! बीस भेड़ें सर्दियों के लिए आई थीं। बाड़े में छह काले, सदा उदास, और हर चीज़ से नाराज़ सुअर थे। मवेशीखाने में तीन गायें, एक बैल और लाल बछड़ा थे। आँगन में – ग्यारह घोड़े, और अस्तबल में – घोड़े का भूरा बच्चा, दुष्ट, भारी अयाल वाला, चौड़े, उभरे सीने वाला – चार सौ रूबल का : उसके बाप के पास सर्टिफिकेट था, और उसकी कीमत डेढ़ हज़ार रूबल थी। और इस सबके लिए सख़्त निगरानी की ज़रूरत थी।

नस्तास्या पित्रोव्ना कब से शहर जाना चाहती थी – परिचितों से मिलने। आख़िरकार वह तैयार हुई और चली गई। उसे बिदा करके तीखन इल्यिच बेमतलब खेत में घूमता रहा। मुख्य मार्ग पर कन्धे पर बन्दूक लटकाए उल्यानोव्का के डाक विभाग का प्रमुख, साखरोव जा रहा था, जो किसानों से इतनी बदतमीज़ी से बात करने के लिए मशहूर था कि वे कहा करते, “चिट्ठी देते हुए – हाथ-पैर काँपते हैं!”

तीखन इल्यिच उससे मिलने सड़क पर निकल आया। भौंहे तिरछी करके उसने उसकी ओर देखा और सोचा:

“बेवकूफ़ बुड्ढा! ओफ़, बेकार में कीचड़ में घुस रहा है।”

और दोस्ताना अंदाज़ में चिल्लाया:

“इधर खेत में कैसे, अन्तोन मार्किच?”

डाकवाला रुका। तीखन इल्यिच ने उसके पास जाकर अभिवादन किया।

“ऊँ, कहाँ का खेत!” भारी-भरकम, झुके हुए, कानों और नथुनों से भी बाहर निकल रहे घने सफ़ेद बालॉ वाले, कमानीदार भौंहों और गहरी धँसी हुई आँखों वाले डाकबाबू ने मायूसी से जवाब दिया, “यूँ ही जा रहा था, बवासीर के लिए...” उसने आख़िरी शब्द पर ख़ास ज़ोर देकर कहा।

“और, याद रखो,” अप्रत्याशित जोश से तीखन इल्यिच ने उँगलियाँ फ़ैलाते हुए हाथ बढ़ाकर कहा, “याद रखना – हमारी वादियाँ वीरान हो गई हैं। किसी का नामोनिशान तक न बचा – क्या पंछी, क्या जानवर!”

“हर जगह जंगल काट दिए गए हैं,” डाकबाबू ने कहा।    

“और वह भी किस तरह! कैसे काटे हैं? जैसे उस्तरा घुमा दिया हो,” तीखन इल्यिच ने जोड़ा। 

और अकस्मात् आगे बोला :

“बदरंग हो रहा है! सब बदल रहा है!”

न जाने कैसे यह शब्द ज़ुबान से निकल गया, तीखन इल्यिच स्वयम् भी नहीं जान सका, मगर उसने महसूस किया कि वह यूँ ही नहीं कहा गया है। “सब बदल रहा है”, उसने सोचा, “जैसे ये मवेशी लम्बी और कड़ाके की सर्दियों के बाद...”

और डाकिए से बिदा लेकर वह बड़ी देर तक मुख्य मार्ग पर खड़ा रहा, अप्रसन्नता से चारों ओर देखते हुए। फिर से बारिश होने लगी, अप्रिय-सी गीली हवा चलने लगी। लहरियेदार खेतों पर – सर्दियों में बोये गए, जोते गए खेतों पर, डण्ठलों पर, भूरी झाड़ियों के झुण्ड पर – अँधेरा छा रहा था। निराशा से भरा आकाश धरती की ओर झुका जा रहा था। बारिश से धुला रास्ता टीन की तरह चमक रहा था। स्टेशन पर मॉस्को जाने वाली डाकगाड़ी का इंतज़ार हो रहा था, वहाँ से समोवार की गन्ध आ रही थी, इससे एक टीस भरी चाहत उठी, आरामदेही की, गर्माहट की, साफ़ कमरे की, परिवार की...

रात में फिर से बारिश की झड़ी लग गई, घुप अँधेरा था। तीखन इल्यिच को अच्छी नींद नहीं आई, पीड़ा से वह दाँत किटकिटाता रहा। उसे बुखार आ गया था, शायद शाम को रास्ते पर खड़े-खड़े ज़ुकाम लग गया था, ओवरकोट जिसे उसने ओढ़ रखा था, फ़िसलकर फ़र्श पर गिर गया, और तब उसे वह सपना आया, जो बचपन से उसका पीछा नहीं छोड़ रहा था। जब रातों को पीठ में दर्द हुआ करता था : धुँधलका, कोई सँकरी सी गलियाँ, भागती हुई भीड़, भारी-भरकम गाड़ियों पर जाते लोग, गुस्सैल काले घोड़े पर दमकल के सिपाही...एक बार वह जाग गया, दियासलाई जलाकर और सोते-सोते फिर उत्तेजित हो गया : दुकान लूटी जा रही है, घोड़े खोलकर ले जा रहे हैं...

कभी यूँ लगता, कि दान्कोवा की सराय में है, कि रात की बारिश दरवाज़े के सायबान पर शोर मचा रही है और उसके ऊपर लटकी हुई घण्टी हर मिनट खिंच-खिंच कर बज रही है – चोर आए हैं, इस भीषण अँधेरे में उसके घोड़े को ले आए हैं, और अगर उन्हें मालूम हो जाए कि वह यहीं है, तो उसे मार डालेंगे...कभी वास्तविकता का ज्ञान लौट आता। मगर असलियत भी उत्तेजित करने वाली थी। बूढ़ा खिड़कियों के नीचे डण्डा लिए घूम रहा है, मगर वह भी, ऐसा लग रहा था, मानो कहीं दूर-दूर हो, कभी लगता बुयान, उत्तेजना से, किसी को फ़ाड़कर खा रहा है, ज़ोर से भौंकते हुए वह खेत में भाग गया है और अचानक फिर से खिड़की के नीचे प्रकट हो गया है और जगाने लगा है, एक ही जगह खड़ा होकर ज़िद्दीपन से भौंकने लगा है। तब तीखन इल्यिच ने उठकर देखना चाहा कि बात क्या है, सब कुछ ठीक है या नहीं। मगर जब तक वह उठने का फ़ैसला करता, घनघोर तिरछी बारिश, जिसे अँधेरे सीमाहीन खेतों से हवा खदेड़ रही थी, अँधेरी खिड़कियों पर ज़ोर-ज़ोर से आवाज़ करने लगी और माँ-बाप से भी ज़्यादा प्यारी लग रही थी नींद...

आख़िरकार दरवाज़ा खटखटाया, सर्दी, नमी का एहसास हुआ, और पहरेदार झ्मीख, सरसराहट की आवाज़ करते हुए फूस का गट्ठा अन्दर खींच लाया। तीखन इल्यिच ने आँखें खोलीं : धुँधला पनीला सवेरा हो रहा था, खिड़कियों पर पसीना था।

“गरमा, भट्ठी गरमा ले, भाई मेरे,” तीखन इल्यिच ने नींद के कारण भर्राई आवाज़ में कहा। “फिर मवेशियों को दाना-पानी देंगे और फिर तू सो जाना।”

बूढ़े ने, जो रात भर में दुबला गया था, सर्दी, नमी और थकान के कारण नीला पड़ गया था, उसकी ओर मृतप्राय नज़रों से देखा। गीली टोपी, गीला छोटा चोगा, और पानी और कीचड़ से लथपथ भद्दी फूस के स्लीपर पहने, मुश्किल से घुटनों के बल भट्ठी के सामने खड़े होकर, उसमें ठण्डा, गंधाता ईंधन भरते हुए और गंधक में फूँक मारते हुए वह अपने आप से कुछ बुदबुदाया।

“अरे, क्या तेरी ज़ुबान को गाय खा गई?” भर्राई हुई आवाज़ में, पलंग से नीचे उतरते हुए तीखन इल्यिच चिल्लाया, “अपने आप से क्या बड़बड़ा रहा है?”

“पूरी रात घूमता रहा, अब खाने को दे”, बूढ़ा सिर उठाए बगैर, मानो अपने आप से बुदबुदाया।

तीखन इल्यिच उसके नज़दीक आया।

“देखा मैंने, तू कैसा घूम रहा था!”

उसने लम्बा कोट पहना और पेट में हो रही हल्की-सी कँपकँपाहट की परवाह किए बगैर कीचड़ से सनी ड्योढ़ी में, मरियल, बरसाती सुबह की बर्फीली ताज़गी में आया। चारों ओर मटमैले पानी के गड्ढे बन गए थे, सारी दीवारें, बारिश से काली हो गई थीं। हल्की-सी बूँदाबादी हो रही थी, “मगर दोपहर के खाने तक फिर से झड़ी लग जाएगी”, उसने सोचा। और बड़े अचरज से उसने भूरे बुयान की ओर देखा, जो कोने से निकलकर उसकी ओर लपक रहा था : आँखें चमक रही हैं, ज़ुबान ताज़ा-तरीन और लाल, आग जैसी, गर्म साँस – कुत्ते की महक देती...और यह सब रातभर की दौड़धूप और भौंकने के बाद।

उसने बुयान को पट्टे से पकड़ा और कीचड़ में छप-छप करते हुए एक चक्कर लगाकर सारे तालों पर नज़र डाली। फिर उसे खत्ती के नीचे जंज़ीर से बाँध दिया, वापस ड्योढ़ी में आया और बड़ी झोंपड़ी में रसोईघर पर नज़र डाली। झोंपड़ी में उबकाई लाने वाली दुर्गन्ध और गर्मी थी, रसोइन नंगी बेंच पर, एप्रन से मुँह ढाँके, रीढ़ की हड्डी का निचला हिस्सा बाहर को निकाले और पुराने, बड़े, मिट्टी के फर्श पर चल-चलकर मोटी हो गई एडियों वाले जूते पहने, पैरों को पेट के पास मोड़े सोई थी, ओस्का लकड़ी के फ़ट्टों से बनी चारपाई पर लेटा था, आधा कोट, फूस के जूते पहने, चीकट, मोटे तकिए में मुँह छिपाए।

“शैतान ने नौजवान को फाँस लिया,” घृणा से तीखन इलिच ने सोचा। “छिः, पूरी रात मस्ताती रही, और सुबह-सुबह बेंच पर!”

और काली दीवारों, छोटी खिड़कियों, गंदे पानी से भरे तसलों, लम्बी-चौड़ी भारी-भरकम भट्ठी पर नज़र डालकर कठोरतापूर्वक ज़ोर से चिल्लाया:

“ऐ! सेठ साहबों! अब उठ भी जाओ।”

जब तक रसोइन ने भट्ठी तपाई, सुअरों के लिए आलू उबाले और समोवार में फूँक मारकर उसे गरम किया, ओस्का ने, बिना टोपी के, ऊँघने के कारण लड़खड़ाते हुए, घोड़ों और गायों के लिए घसीटते हुए लाकर चारा रखा। तीखन इल्यिच ने ख़ुद मवेशीखाने का चरमराता हुआ दरवाज़ा खोला और वही पहले उसकी गर्माहट और गन्दगी में घुसा, जो छपरियों से, गोशाले से, और बाड़े से आ रही थी। टखनों के ऊपर तक गन्दगी थी अहाते में। गोबर, पेशाब, बारिश – सब मिलकर भूरा, गाढ़ा, कीचड़ जैसा घोल बना रहे थे। सर्दियों में निकल आए मखमली रोओं से ढँके, काले लग रहे घोड़े छपरी के नीचे घूम रहे थे। भेड़ें गन्दे ढेर की तरह एक कोने में दुबकी थीं। मगर बूढ़ा, भूरा, आख़्ता किया हुआ घोड़ा आटे से सनी खाली नाँद के पास ऊँघ रहा था। आँगन के ऊपर के चौकोर, गुस्सैल आसमान से लगातार बूँदा-बाँदी हो रही थी। बाड़े में सुअर बीमारों जैसे, ज़िद्दीपन से रिरिया रहे थे, नाराज़गी ज़ाहिर कर रहे थे।



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