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ज्ञान का प्रकाश

ज्ञान का प्रकाश

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नेहा और रेहाना अच्छी मित्र हैं। उनकी प्रिपरेशन लीव चल रही है। पढ़ाई की वजह से उनका मिलना नहीं हो पा रहा है। आज रेहाना नेहा से मिलने के साथ-साथ पढ़ाई से संबंधित कुछ मैटर डिस्कस करने आई है। अभी वे पढ़ ही रहे थे कि घण्टी बजने की आवाज़ के साथ नेहा बाहर आई, उसके साथ रेहाना भी। नेहा के बाहर आते ही एक व्यक्ति ने उसे चाबी पकड़ाई तथा चला गया।

'कौन है यह सज्जन ? आज से पहले इन्हें नहीं देखा। ' पूछते हुए रेहाना के नेत्रों में आश्चर्य मिश्रित उत्सुकता थी।

 'हमारे पड़ोसी सुशांत है। अभी कुछ दिन पूर्व ही यहाँ रहने आए हैं। पेशे से इंजीनियर हैं। पत्नी अपर्णा एक प्राइवेट कंपनी में प्राइवेट सेक्रेट्री है। वह अक्सर देर से घर आती है। दो छोटे बच्चे हैं ...वह बच्चों को लेकर चिंतित रहते हैं इसलिए हमें चाबी देकर ऑफ़िस जाते हैं जिससे कि बच्चे उनकी अनुपस्थिति में आयें तो चाबी लेकर घर जा सकें।' नेहा ने कहा।


'सच पति पत्नी अगर दोनों सर्विस करते हैं तो सजा बेचारे मासूम बच्चे ही भुगतते हैं। जरा सोचो हम घर पहुँचे और एक बड़ा सा ताला हमारा स्वागत कर रहा हो तो कितना मूड ऑफ होगा। स्वयं जाकर खाना निकालो खाओ ..कितना अकेलापन महसूस होता है। मैं तो जब तक कॉलेज की एक एक बात मम्मी को ना बता दूँ, चैन ही नहीं पड़ता है। इस मामले में मैं अत्यंत ही खुशनसीब हूँ। बहुत अच्छी है मेरी अम्मी। मेरी प्रत्येक जरूरत का आवश्यकता से अधिक ख्याल रखती हैं। ' रेहाना ने नेहा की बात सुनकर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की। 


'तू वास्तव में खुशनसीब है इस अकेलेपन की त्रासदी को मैंने भोगा है। अपर्णा तो फिर भी सर्विस करती है किन्तु मेरी मम्मी तो सोशल वर्क के लिए सुबह से निकल जाती हैं और देर शाम तक ही घर लौटती हैं। समझ में नहीं आता है ऐसे सोशल वर्क क्या लाभ जब वह पति और बच्चों को ही समय न दे पाए तथा पूरा घर भर भी अस्त-व्यस्त रहे ? डैडी तो इसलिए सदैव असंतुष्ट ही रहते हैं पर ममा तो समझना ही नहीं चाहतीं। अकेलेपन की पीड़ा की भुक्तभोगी होने के कारण अनचाहे ही मुझे दोनों बच्चों से प्यार हो गया है। बहुत ही प्यारे और मासूम है वे दोनों। 'नेहा ने कहा।


'समझ में नहीं नहीं आता कि अपनी -अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूर्ण करने की दौड़ में शामिल स्त्री पुरुष आखिर विवाह ही क्यों करते हैं ? यदि विवाह करते भी हैं तो कुछ पलों के सुख से उत्पन्न फूलों को संसार में लाने का दुस्साहस कैसे कर लेते हैं यदि उनको सहेजने और संवारने के लिए उनके पास वक्त ही नहीं है ? 'नेहा की बातें सुनकर रेहाना आवेश में बोल उठी थी। 

घंटी बजने पर नेहा ने दरवाज़ा खोला। उसे देखते ही दोनों बच्चे दीदी दीदी कहते हुए नेहा से लिपट गए।

' अरे ! तीन बजे गये । समय का पता ही नहीं चल । संभालो अपने बाल गोपालों को । अब मैं चलती हूँ ।' रेहाना ने मुस्कुराकर कहा ।


 रेहाना चली गई और नेहा आशु और जूही के साथ व्यस्त हो गई। उनकी बाल सुलभ चपलता, चंचलता, भोली मुस्कान तथा तोतली बोली में उनके लबों पर तैरते प्रश्न उसका मन मोह लेते, तब लगता था कि उसका बचपन लौट आया है। उसके व्यवहार में छलकते बचपन को देखकर उसकी माँ अक्सर कहती,' कॉलेज चली गई है किंतु हरकतें अभी भी बच्चों जैसी हैं।' 

'कैसी निभ रही है बच्चों के साथ …?' एक दिन रेहाना ने बातों बातों में नेहा से पूछा।

'बच्चों के साथ लग जाती हूँ तो पढ़ाई की ओर ध्यान ही नहीं दे पाती। परीक्षा के सिर्फ पंद्रह दिन ही रह गए हैं, समझ में नहीं आ रहा है कि क्या करूँ।' नेहा रुआंसे स्वर में कहा ।


'स्वयं आफ़त मोल ले ली है तुमने !! वे दोनों तुम्हें बच्चे सौंप कर निश्चिंत हो गए हैं। तुम्हारे कैरियर का सवाल है साफ-साफ क्यों नहीं कह देती कि बच्चों के कारण पढ़ाई का नुकसान हो रहा है अतः परीक्षा तक बच्चे वे स्वयं संभाले। ' प्यारी सखी को परेशान देखकर रेहाना ने उसे सलाह देते हुए कहा।

'लगता है कहना ही पड़ेगा। अपर्णा जी तो कभी दिखती ही नहीं है। सुशांत ही चाबी देकर जाते हैं। एक दिन मौका देख कर बातें करूँगी।'

दूसरे दिन सुशांत चाबी देने आए तो नेहा ने अपनी समस्या बताई तो वह उदास होकर बोले ,'कोई बात नहीं बच्चों को आपके पास छोड़कर निश्चिंत हो जाता था। आप पढ़ाई में ध्यान लगाइये, कुछ ना कुछ इंतज़ाम हो ही जाएगा।'

परीक्षाएं पास आती जा रही थी। वह परीक्षा की तैयारी में लगी थी। बीच-बीच में बच्चे आते, सहमे-सहमे लगते लेकिन मजबूरी के कारण चाहते हुए भी समय नहीं दे पाती थी। वह कुछ समय उसके पास बैठकर चले जाते थे। 

कभी-कभी झगड़े की आवाजें भी आतीं। एक दिन ऐसी ही आवाजें सुनकर पापा ने ममा की और देखते हुए शायराना अंदाज में कहा ,''पता नहीं कैसे पढ़े लिखे लोग हैं जो बच्चों की तरह झगड़ रहे हैं ? एक हम हैं जो धड़कते ज्वालामुखी को सीने में छुपाए सदियों से जिए जा रहे हैं।' 


'क्या मैंने तुम्हारे और बच्चों के लिए अपनी आकांक्षाओं का दमन नहीं किया ? याद है जब हमारी शादी तय हुई थी तब मेरी थीसिस पूरी होने में कुछ काम बाकी था। मैं विवाह थीसिस पूरी होने के बाद करना चाहती थी पर उस समय तुम्हारे घर वालों के दबाव में मेरे घर वालों को घुटने टेकने पड़े क्योंकि तुम्हारी बीमार दादी तुम्हारा विवाह अपनी आँखों से देखना चाहती थीं। हार कर अपनी समस्या जब तुम्हें बताई तो तुमने मेरी समस्या को सुनकर थीसिस पूरी करवाने का वायदा किया। मैंने तुम पर भरोसा कर विवाह कर लिया था पर मेरी थीसिस पूरी भी नहीं हो पाई थी कि तुमने चारु को गोद में डाल दिया और दूसरे वर्ष नेहा को। घर, बच्चे और तुम्हारी इच्छाओं की पूर्ति करते -करते वर्षों तक त्रिशंकु की तरह जीती रही। अब जब बच्चे बड़े हो चले हैं आप अपने बिजनेस में व्यस्त हैं तो अपने खाली समय को मैं अपने ढंग से जीना चाहती हूँ तो आपको बुरा क्यों लगता है।' शैला ने रुआंसे स्वर में कहा।


 'हाँ भाग्यवान, उसी गलती की सजा तो मैं अभी भुगत रहा हूँ और ना जाने कब तक करता रहूँगा।' आलोक नाथ ने पेपर में आँखें बढ़ाते हुए कहा। 

माँ पाप के बीच इस तरह की बहस आम थी किन्तु मम्मी के बड़बोलेपन और पापा की रहस्यमय चुप्पी का राज, उम्र के साथ अब धीरे-धीरे समझ में आने लगा था। 

चारु दीदी का पिछले वर्ष इंजीनियरिंग में सलेक्शन हो गया था। उनके जाने के पश्चात वह बेहद अकेली हो गई थी। तभी सुशांत का परिवार यहाँ आ गया और उसका अकेलापन बच्चों के चुलबुलेपन मासूम अदाओं पर कब कैसे समर्पित हो गया पता ही नहीं चला। यही कारण था कि परीक्षा समाप्त होते ही वह सीधे बच्चों से मिलने गई तो वे दोनों उसे देख कर खिल उठे। 

'दीदी क्या आप की परीक्षाएं समाप्त हो गई हैं ? हमें आपकी बहुत याद आती है। आपके बिना सचमुच हमें अच्छा नहीं लगता था। ' नन्हीं जूही आँखों में आँसू भर कर बोली। 

'हाँ दीदी जूही ठीक कह रही है। हम सचमुच आपको बहुत मिस करते थे। ' आशु ने जूही की बात का समर्थन करते हुए कहा।


 बच्चे नेहा को बचपन से ही बहुत प्रिय थे। बड़ों के व्यवहार में उसे सदा ही बनावटीपन, कृत्रिमता नजर आती थी जबकि बच्चों की मासूम अदाएँ, निश्चल मधुर मोहनी मुस्कान एवं निस्वार्थ प्रेम उसके तन मन को आत्मिक सुकून पहुँचाते थे। क्षण भर के लिए वह स्वार्थी दुनिया से दूर अन्य लोक में जा पहुँचती थी जहाँ छल कपट का नामोनिशान न हो बस प्रेम ही प्रेम हो सिर्फ निस्वार्थ प्रेम।


'दीद , पिछले यूनिट टेस्ट में मेरे कम नंबर देखकर मम्मी पापा ने मुझे खूब डाँटा। मैं उनसे कैसे कहती कि आप दोनों को तो ऑफ़िस से ही फुर्सत नहीं है और दीदी की परीक्षाएं चल रही हैं आखिर मैं किस से पढ़ती। अब आप पढ़ाएंगी तो अगले टेस्ट में फिर अच्छे नंबर लाऊंगी।' जूही की आवाज़ सुनकर विचारों की श्रंखला भंग हुई।

केवल छह वर्ष की उम्र में इतनी परिपक्वता…. शायद उसके मम्मी पापा के अप्रत्याशित व्यवहार ने उसका बचपन असमय ही छीन लिया था। 

जूही को गले लगाते हुए नेहा अनायास बोल उठी, ' हाँ बेटा, अब मैं तुम्हें पढ़ाऊंगी। तुम अवश्य अपनी कक्षा में प्रथम आओगी।' 

नेहा जी जान से बच्चों को पढ़ाने लग गई। कभी बच्चे उसके घर आ जाते तो कभी वह उनके घर चली जाती। 


एक दिन अपर्णा उसके पास आकर बोली, ' नेहा तुम मेरी छोटी बहन के सदृश हो। तुमने मेरे बच्चों की जिम्मेदारी लेकर मुझ पर बहुत बड़ा एहसान किया है। पिछले दिनों बच्चों को लेकर मुझ में और सुशांत में जो टकराव होता रहा था उससे मैं अत्यंत विचलित हो गई थी। अब फिर सामान्य हो चला है। समझ में नहीं आ रहा है कि मैं तुम्हें कैसे धन्यवाद दूँ।'

'दीदी, अभी आपने मुझे छोटी बहन भी कहा और धन्यवाद देने की बात भी कह रही हैं। अपनों में यह फॉर्मेलिटी क्यों ? अब व्यर्थ परेशान हो रही हैं। मैं भी अकेलेपन की त्रासदी चुकी हूँ अतः दोनों बच्चों को प्यार देकर अनजाने में स्वयं को ही संतुष्ट कर रही हूँ।' अपर्णा को भार मुक्त करते हुए हौले से मुस्कुरा कर नेहा ने कहा।

बीच-बीच में सुशांत भी ऐसे ही शब्दों का प्रयोग कर उसके एहसान का बदला चुकाने की कोशिश करते तथा अपर्णा के व्यवहार से हैरान-परेशान चिंतित नजर आते। 


एक दिन सुबह-सुबह नेहा रेहाना के घर गई। उसे हैरान परेशान देखकर रेहाना ने चिंतित स्वर में पूछा, 'क्या बात है नेहा ? मुझे तुमसे अकेले में बात करनी है। 'नेहा उसके कमरे की ओर जाते हुए बोली। 

'घर में कोई नहीं है। अम्मी बाजार गई हैं तथा बाबा ऑफ़िस... लेकिन बात क्या है ?'

'बात ही ऐसी है कि कुछ भी कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही हूँ ।' 

'कहकर तो देख, मन शांत हो जाएगा और शायद मैं तुम्हारी समस्या का कोई उचित हल बता सकूँ।'

'यही सोचकर तो तेरे पास आई हूँ ।'

'फिर संकोच क्यों ? कह दे जो मन में है पर पहले पानी पी।' रेहाना ने उसको पानी का ग्लास पकड़ते हुए कहा।


पानी पीकर व्यवस्थित होकर नेहा बोली, ' रेहाना कल सुशांत ने मुझे अकेला पाकर मेरा हाथ पकड़ लिया तथा बोले नेहा तुमने मेरे बच्चों को माँ का प्यार देकर मेरे ऊपर इतना बड़ा एहसान किया है कि मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि इस एहसान का बदला कैसे चुकाऊँ ? अपर्णा से तो एकदम निराश हो चुका हूँ। अभी तो प्रथम पहर ही है जिंदगी का। ना जाने जिंदगी कैसे व्यतीत होगी ? तुम्हारे स्वभाव, तुम्हारे अपनत्व को देखकर मैं अत्यधिक प्रभावित हुआ हूँ। काश ! तुम मेरे बच्चों की माँ होतीं तो मैं संसार का सबसे सुखी व्यक्ति होता। क्या तुम मुझसे विवाह करोगी ? 


विवाह शब्द ने मेरी शरीर में हलचल मचा दी है। उस स्पर्श में न जाने क्या था कि मैं अपनी सुधबुध खो बैठी किंतु उसने मेरी स्थिति का नाजायज फायदा नहीं उठाया। जाते समय बस धीरे से इतना ही बोले अच्छी तरह सोच कर बताना कि क्या तुम मुझसे विवाह करोगी ? अपनी सांसों को नियंत्रित करते हुए नेहा पुनः बोली, रेहाना यद्यपि मैंने सुशांत को कभी उस नजर से नहीं देखा किंतु वह असाधारण व्यक्ति हैं। उसकी जगह कोई और होता तो मेरी कमजोरी का अवश्य फायदा उठाता। सचमुच वह देव पुरुष है। विवाहित होते हुए भी गृहस्थ जीवन के सुख से वंचित है। पत्नी गैर मर्द के साथ महीने में 10 दिन टूर पर रहती है। यह दुख उसे खोखला करता जा रहा है। उससे नौकरी छोड़ने को कहते हैं तो वह तैयार नहीं होती। क्या जवाब दूँ उसकी बातों का ? समझ नहीं पा रही हूँ । इसलिए तेरे पास तेरी सलाह लेने आई हूँ।


'पागल तो नहीं हो गई है तू। उम्र में वह तुझ से 20 वर्ष बड़ा है। दो बच्चों का पिता है। तू उससे विवाह करने की सोच भी कैसे सकती है ? मुझे तो वह बड़ा चालाक इंसान नजर आता है। बच्चों के प्रति तेरे निस्वार्थ प्रेम को देखकर वह तुझे प्रेम के जाल में फंसाना चाहता है। तूने पूछा नहीं है अपने देव पुरूष से... हिंदू विवाह कानून के अंतर्गत एक पत्नी के होते दूसरा विवाह करना गैरकानूनी है। सर्वप्रथम पहली पत्नी को तलाक देना पड़ेगा उसके पश्चात ही दूसरी विवाह की अनुमति मिल सकती है वरना तुम उसकी विवाहित पत्नी न कहला कर रखैल कहलाओगी। '

'यह तो मैं पूछना भूल ही गई थी। अच्छा बात करके देखती हूँ।'

'और हाँ, कोई भी निर्णय लेने से पूर्व अपने माता-पिता का अवश्य ध्यान रखना।'

'ठीक है।'


चार दिनों से नेहा को कॉलेज ना आता देखकर, रेहाना नेहा के घर गई। बच्चों के साथ उसे अस्त-व्यस्त हालत में देख कर वह बोली,'अपना क्या हाल बना रखा है तूने। इधर कई दिनों से कॉलेज भी नहीं आई'

'थोड़ी तबियत खराब हो गई थी। 'बच्चों को दूसरे कमरे में खेलने के लिए कहकर वह बोली।

'तबियत खराब हो गई थी या पढ़ाई पढ़ाई छोड़कर प्रेम दीवानी हो गई है। क्यों किसी के लिए अपना वक्त और कैरियर बर्बाद करने पर तुली है। तूने अपने उस आशिक मिजाज अधेड़ प्रेमी से पूछा क्या ? '

'हाँ वह कह रहे थे कि सरकारी नौकरी में हूँ अतः एक पत्नी के रहते दूसरा विवाह तो कर नहीं सकता किंतु एक उपाय है जिसके द्वारा तलाक भी नहीं लेना पड़ेगा और विवाह करने में भी कोई दिक्कत नहीं आएगी।'

'क्या उपाय है मैं भी तो सुनूँ।' रेहाना ने पूछा।

'वह कहते हैं क्यों ना हम मुस्लिम बन जायें। मुस्लिम पर्सनल लॉ के अनुसार एक मुसलमान चार शादी कर सकता है चार शादी कर सकता है।

'तो तूने क्या सोचा ?' तीखी नजर से रेहाना ने नेहा की ओर देखते हुए पूछा।

'मैं सोचती हूँ, उनका विचार ठीक ही है। इससे अपर्णा दीदी को भी ठेस नहीं पहुँचेगी और बच्चों को भी माँ का प्यार मिल जाएगा।'  

नेहा कह तो रही थी किंतु शायद मन के किसी कोने में विचारों का अंधड़ उठ रहा था। सही गलत, उचित अनुचित के भँवर में फँसी वह कोई भी निर्णय ले पाने में स्वयं को असमर्थ पा रही थी।


'शायद ऐसी ही स्थिति के लिए कहा गया है कि सावन के अंधे को हरा ही हरा दिखता है अरे पागल, इस कानून के कारण ही हम मुस्लिम औरतें अपना हक पल भर में खो बैठती हैं। दर-दर की भिखारिन बन जाती हैं और आश्चर्य तो यह है कि अब हिंदू लोग भी अपने स्वार्थ के के लिए धर्म परिवर्तन की बात सोचने लगे हैं। धर्म परिवर्तन तो दिल से होता है न कि किसी सुविधा को प्राप्त करने के लिए। जो बदनुमा दाग  हमारे धर्म में हमारी औरत जाति पर थोप रखा है उससे तुम अपने मुँह पर कालिख पोतना चाह रही हो। कैसी पढ़ी लिखी हो ? शर्म आती है मुझे तुम्हें अपना मित्र कहते हुए !! कम से कम अपने माता-पिता को का तो ख्याल कर। वे सुनेंगे तो जीते जी मर जायेंगे। '


'यही बात तो मुझे दंशित कर रही है। फिर भी बच्चों के मोहपाश में बंधी मैं कोई भी निर्णय ले पाने में स्वयं को असमर्थ पा रही हूँ। मुझे माफ़ कर दे मेरी बहन। सच में मैं भावनाओं में बह गई थी। यदि आज तुम मुझे न समझाती तो शायद मैं निज भाल पर एक ऐसा कलंक लगा बैठती जिसे मिटा पाना मेरे लिये कभी संभव नहीं हो पाता। यह तो अच्छा हुआ मैंने ममा पापा से इस बात का जिक्र नहीं किया वरना वह मेरे बारे में पता नहीं क्या सोचते ? 


'जब आँख खुले तभी सवेरा नेकी करो पर इतनी भी नहीं कि अपना भला बुरा भी ना सोच पाओ। मेरा तो यही मानना है कि किसी भी धर्म को खिलौना मत बनाओ। प्रत्येक धर्म में कुछ अच्छाइयां है और कुछ बुराइयाँ.. अगर ग्रहण करना ही है तो सिर्फ अच्छाइयों को ग्रहण करो। मैं तो चाहती हूँ कि सभी धर्मों की अच्छाइयों को सम्मिलित कर एक ऐसे धर्म का निर्माण हो जिसमें सद्भावना, सदविचार एवं सब धर्मों का समावेश हो। जो समस्त विश्व को समानता भाईचारे का संदेश देने वाला मानवतावादी धर्म हो। 'कहते -कहते रिहाना का मुख मंडल दिव्य भास्कर आभा से ज्योतिर्मय उठा। 


नेहा सोच रही थी कि यदि सचमुच वह नासमझी में बच्चों के स्नेह के वशीभूत होकर सुशांत के शब्द जाल में फँस कर कुछ कर बैठती तो क्या अपर्णा के विश्वास को ठेस नहीं पहुँचती जिसने उसे छोटी बहन सदृश समझा। दुनिया को क्या मुँह दिखाती और तो और मासूम बच्चे भी कालांतर में क्या उसे क्षमा कर पाते ? एक अजीब सी सिहरन समस्त शरीर में दौड़ गई। ऐसा लग रहा था कि वह दलदल में गिरने से बच गई ह । रेहाना के सटीक वचनों ने मन के अंधकार को क्षण भर में ही ज्ञान के प्रकाश से आलोकित कर दिया था।



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