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अलीगढ़

अलीगढ़

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वैसे मैं रिश्तों मे ज़्यादा घबराता नहीं हूँ| खासकर उनसे जिनसे मैं प्रेम करता हूँ - उनके समक्ष शब्द कभी कम नहीं पड़े हैं, कभी ढूंढ़ने नहीं पड़े हैं| हमेशा लगा है जैसे इन लोगों के समक्ष अपना दिल खोलने में कोई हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए| ऐसे लोग जिन से हम दिल से प्रेम करते हैं कम ही होते हैं, और अगर इनके साथ भी रिश्तों का गणित लगाना पड़े, तो फिर क्या रिश्ता हुआ| पर दो बार बात ऐसी हो गई कि मैं कुछ कह ना सका, जुबां पर ताले लग गए| वो दो किस्से तुम्हे सुनाना चाहता हूँ|

हम दोनों स्कूल में साथ पढ़ते थे| मैं अकसर स्कूल शुरू होने के एक घंटा पहले पहुँच जाता था| असल में बात ये थी कि मेरे चाचा का दफ्तर मेरे स्कूल के नज़दीक ही था, और सुबह उनके साथ जाने से मैं, सरकारी बस मे सफ़र और उसमे लगने वाली ५ रूपए की टिकट, दोनों से बच जाता था| पर नतीजा यह भी था कि मैं इतनी सुबह पहुँच जाता कि लगभग आधे घंटे तक मेरे सिवाय स्कूल मे कोई और ना होता| इस बीच मैं कभी कोई किताब पढ़ता, कभी स्कूल की छत पर जा कर नज़दीक की सड़क पर चलते लोग और ट्रैफिक देखता, या कभी कक्षा में बैठ कर सपने देखता| उस आधे घंटे मे एक सुकून था| धीरे-धीरे सब आते और अपना बस्ता पटक कर मित्रों को ढूंढ़ने या उनके साथ निकल जाते| पहले ६-७ आने वाले लोगों मे वह भी थी| नज़दीक की कक्षा में उसके अधिकतर दोस्त थे, पर उनसे मिलने जाने से पहले वो मुझे "हेलो" ज़रूर बोल कर जाती| वह "हेलो" मेरे मन मे उसकी पहली याद है|

धीरे-धीरे हम नज़दीक आये| साथ-साथ पढ़ने लगे, दोपहर का खाना बांटने लगे, श्याम में घर आ फ़ोन पर बातें करने लगे| एक बार की बात है - वो मुझ से नाराज़ थी, दोपहर का खाने का समय हुआ, पर वो अपना मुंह फुला कर अपनी कुर्सी पर बैठी रही| मेरा भी कुछ मन नहीं लगा, उसके नज़दीक एक कागज़ ले बैठ गया, और बोला, "ये खेल खेलोगी मेरे साथ?"वह बिना कुछ बोले गुस्से से मेरे साथ खेलने लगी| कुछ ही चालों में गुस्सा स्याही बन कर कागज़ पर उतर आया, और वो मुस्कुरा रही थी|

एक दिन और की बात है| खेल के घंटे में हम सब खेल रहे थे| शायद उसकी तबियत कुछ ठीक नहीं होगी, इसलिए वह मैदान के किनारे बैठ हमें देखती रही| पर शायद उसे वहां अकेला महसूस हुआ, अचानक अपनी सहेली को आवाज़ दे अपने नज़दीक बुलाने लगी| पर सहेली का मन शायद खेल में ज़्यादा था - उसने मित्र की पुकार को नज़रअंदाज़ कर दिया| घंटे के बाद जब हम कक्षा वापस लौट रहे थे तो वो अचानक रोने लगी| मैं उसे रोता देख उसके बगल में गया, और बोला, "रोती क्यों है? देखना! अगली परीक्षा में मैं अच्छे नम्बरों से पास हो कर दिखाऊंगा|" वो रोते-रोते हंसने लगी, और हँसते-हँसते रोते हुए अपना सर मेरे कंधे पर रख दी|

प्यार के ऐसे कई वाकये हुए| स्कूल के बाद हम दोनो एक ही शहर में कॉलेज गए| मिलना-जुलना जारी रहा, और हमें एक-दुसरे के जीवन के हर गुज़रते मोड़ की खबर मिलती रहती| इस बीच हम अलग लोगों से मिले, हमारी दुनिया बढ़ी, हमने दुनिया देखी, दिल औरों को दिए, प्यार में डूबे - इस सब में एक दुसरे को भागीदार बनाया| एक बार की बात है - हम दोनों बैठे बातें कर रहे थे कि उसने अचानक पुछा, "क्या हम दोनो हमेशा सिर्फ दोस्त ही रहेंगे?" प्यार के इस इज़हार ने मुझे अकस्मात् ही पकड़ लिया| मेरे पास सवाल का कोई उत्तर नहीं था| वो आखिरी इंसान थी जिसका दिल मैं तोड़ना चाहता था| सच बोलने में मुझे संकोच हुआ, और मेरी ख़ामोशी मे वो मेरा उत्तर समझ गई|

पर हम दोनो को एक-दूसरे से प्यार था| वक्त ने वह घाव भर दिया, और हम आगे पढ़े| नौकरी के सिलसिले में हम अलग शहरों मे रहने लगे| कुछ समय बाद उसकी मुलाकात एक व्यक्ति से हुई, और दोनो में प्रेम हुआ| बात धीरे-धीरे आगे बढ़ी, और एक दिन मुझे डाक मे शादी का न्यौता आता है| अगले दिन फ़ोन कर बोली, "तुम्हे शादी मे आना ही आना है|" मेरा उसे दुल्हन के रूप मे देखने का बहुत मन था, तो ना जाने का तो सवाल ही नहीं उठता था| तुरंत टिकट कटवाए, और शादी पर पहुँचने का सब इंतज़ाम किया| निर्धारित दिन, तैयार हो कर, बन-संवर कर मैं बाजार शादी का तोहफ़ा खरीदने निकला| मुझे याद है - नीले रंग की कमीज और काले रंग की पैंट पहनी थे मैने उस दिन| तोहफ़े के लिए बहुत घूमा पर पूरे शहर में उसे देने लायक कुछ नज़र नहीं आया| पर मैने हार नहीं मानी - किताबों की एक पुरानी दूकान पर फैज़ अहमद फैज़ की सभी कविताओं का संग्रह मिला| नव-विवाहित जोड़े के लिए किताब खरीद, उस के पहले पन्ने पर उनकी ख़ुशी का एक सन्देश लिख शादी के समारोह के लिए रवाना हुआ|

वहां मुझे कोई नहीं जानता था| स्कूल के जो कुछ एक मित्र थे - उनसे उसका और मेरा - दोनो का नाता कब का टूट चुका था| बाद की ज़िन्दगी का हमारे बीच कोई सामान्य धागा नहीं था| समारोह पर पहुंचा तो वहां का हर्ष, सजावट, और रौशनी देख कुछ अटपटा सा लगा| बाहर वर और वधु के नाम का एक बोर्ड भी लगा था| कदम अंदर लिए तो मन नहीं लगा| एक बेचैनी सी मन में उठी तो वहां कुछ शुरू होने से पहले ही बाहर निकल अपने होटल वापस पहुंचा| रात भर सोचता रहा कि मुझे वहां होना चाहिए, पर मन नहीं माना| बिस्तर के साथ पड़ी फैज़ की किताब मेरे नज़दीक थी| अगले दिन मैं अपनी निर्धारित फ्लाइट ले कर वापस आया|

यह हादसा भी हमें अलग नहीं कर पाया| शादी के कुछ हफ्ते बाद हमारी बात हुई| मैने सच का सहारा लिया और उसे सब सही-सही बता दिया| बोला, "नहीं जानता ऐसा क्यों हुआ, पर जैसा हुआ तुम्हे बता रहा हूँ|" वो समझ गयी| बोली, "मेरा बहुत मन था कि तुम मेरी शादी में आओ| सारी शाम अपना फ़ोन ले मैं बैठी रही कि कहीं तुम राह पूछने के लिए फ़ोन ना करो| मंडप पर जाते-जाते भी फ़ोन अपनी एक बहन को दे कर ये बोला कि तुम्हारा फ़ोन आ सकता है| पर कोई बात नहीं| मैं समझती हूँ|" उसकी समझ और माफ़ी के लिए मैं कृतज्ञ था|

समय का पहिया आगे चलता रहा| वह विवाहित जीवन में खुश थी| उसकी ख़ुशी, जब अपनी उदासी से अलग कर देखता, तो मुझे एक सुकून मिलता| करीब ३ साल बाद की बात है, उसका फ़ोन आया| बोली, "कभी मिलने नहीं आओगे क्या?" मैने जल्दी ही मिलने का वादा किया, और अगले २-३ दिन में टिकट करा डाले| उसे अपने आने की तिथि और समय बताया, और निर्धारित दिन बस्ता बाँधा और हिफाज़त से फैज़ की किताब उसमे रखी| शाम के समय होटल पहुंचा - वहां से उसे अपने आने की सूचना देते फ़ोन किया| बोली, "पहुँच गए तुम! कल दोपहर का खाना साथ में करेंगे|" फ़ोन रखते समय मन कुछ ख़ाली सा था| सोचा, इतनी दूर से आए दोस्त से मिलने का समय नहीं है उसके पास|

अगले दिन दोपहर के खाने के समय वो पहुंची| हमने शहर के नज़ारे देखे, और खूब गप्पें हाँकि| शाम को भोजन के समय उसने मुझे होटल छोड़ा और घर लौट गयी| ऐसा ही सिलसिला अगले २ दिन भी चला| हांलाकि मैं उससे मिल कर बेहद खुश था, पर मन में एक बात खटक रही थी| उसने मुझे इतना कम समय क्यों दिया? यह सोचता वापस जाने की सुबह से पहले की रात में सो नहीं पाया| बहुत अकेला महसूस हुआ| बगल में पड़ी घड़ी में समय देखा तो साढ़े तीन हो रहे थे| बिस्तर से उठा और अपने दिल की तकलीफ एक चिट्ठी पर लिख डाली| उसे समझाया कि उससे मिलने को मैं कितना उत्साहित था, पर उसके मुझे ठीक से समय ना देने के कारण मेरे मन में एक उदासी ले कर जा रहा था| अगली सुबह होटल से निकलते समय बहुत सोचा कि चिट्ठी पोस्ट की जाए या नहीं| अंत मे मैने वो चिट्ठी होटल के एक कर्मचारी को दे दी, और उसे मेरी ओर से चिट्ठी पोस्ट करने का अनुरोध किया| वो फटाफट राज़ी हो गया|

अगले कुछ दिन यही सोचता रहा कि क्या वो चिट्ठी लिखना उचित था| या फिर, क्या वो उस तक पहुंची भी? या फिर, कहीं वो होटल का कर्मचारी उसे डाक में डालना भूल तो नहीं गया? फिर सोचा कि मन की बात को शब्द दिए मैने तो कुछ बुरा नहीं किया| नहीं कहता तो बात केवल मन में रह जाती - कल या परसों बाहर निकलती - इसलिए अच्छा किया कि अभी बोल दिया| कुछ दिन और निकल गए और उसकी ओर से कोई जवाब नहीं आया| फिर अचानक एक दिन मुझे उसकी ओर से एक ईमेल आया:

"तुम्हारी चिट्ठी मिली| मिलने पर मैं बहुत रोई| जवाब देने मे वक्त लगा क्योंकि इसके लिए मुझे कुछ हिम्मत जुटानी पड़ी| तुम्हारे यहाँ होते इतना कुछ दिमाग में चल रहा था - मैं इससे अनजान थी, इसलिए बहुत बेवकूफ महसूस कर रही हूँ| पढ़ कर ऐसा लगा जैसे तुम अलविदा कह रहे हो| पर सबसे दुःख की बात तो ये है कि इतने साल बाद भी तुम ये नहीं जानते कि मैं तुम्हारे लिए कुछ भी कर सकती हूँ|"

पढ़ कर कुछ कहने या करने को नहीं था| चिट्ठी लिखने की अपनी बेवकूफी पर, और उसे इतना दुःख देने पर मुझे अपने आप पर बेहिसाब गुस्सा आया| समझ नहीं आया कि क्या करूँ| सैंकड़ों बार उसे लिखने के लिए कलम उठाई है - चिट्ठियां लिखीं हैं| पर सब शब्द खोखले लगते हैं| उनमे से एक को भी भेज नहीं पाया हूँ| आज उस बात को १५ साल हो गए हैं - ना उसने मुझे उसके बाद कभी कुछ लिखा, ना मेरे पास उसकी चिट्ठी के जवाब के लिए कोई लफ्ज़ थे|


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