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जाल

जाल

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मकड़ी भी वहीं अपने शिकार के लिए जाल बुन रही थी जहाँ सात-आठ बच्चों को छोड़ वो भी चुपचाप अपने ठिकाने पर जाकर बैठ गया था।

मकड़ी ने पहले अपने जाल के लिए चारों ओर घेरा बना लिया। वहीं बच्चों ने भी अलग अलग होकर घेरा बना लिया। कोई पास के फुटपाथ पर तो कोई मस्जिद के पास तो कोई मंदिर की सीढ़ियों पर।

उन घेरे के सहारे मकड़ी जाल बुनना शुरु करती है। वो आदमी भी बच्चों के सहारे उनकी लाचारी और मासूमियत से जाल बिछाता है।अक्सर छिपकली जैसे जन्तु जाल में नहीं फसते। ये जाल के किनारे से निकल जाते हैं। बड़े लोग भी अपनी गाड़ियों से इन बच्चों को देख किनारे से निकल जाते हैं। मकड़ी जाले में कुछ स्पंदन करती है। छोटे कीट पतंग आखिर फंस ही जाते हैं।

कटोरे की आवाज सुन हम जैसे लोग भी कटोरे में कुछ डाल ही जाते हैं। मकड़ी अपने बनाये जाल के बीच में बैठ कर फंसे हुए कीड़े पर बराबर नज़र रखती है। जैसे अपने ठिकाने पर बैठा वो आदमी इन बच्चों पर। मकड़ी के जाल बुनने का एक नियम ये भी है कि जब ये जाले पुराने हो जाते हैं जिनमें कीड़े फांसने का आकर्षण खत्म हो जाता है तो ये खुद ही इन्हें या तो नष्ट कर देते हैं या छोड़ देते हैं।


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