रेड लाइट
रेड लाइट
"यहाँ औरतें बिकती हैं।"
ये चार शब्द वहाँ सिर्फ़ कन्या के कमरे के बाहर ही नहीं बल्कि वहाँ काम करने वाली हर औरत के कमरे के बाहर चस्पा थे। वैसे इन शब्दों के ना लिखे होने से भी वहाँ का हाल दिख रहा था।
कन्या को इन चार शब्दों से सख्त ऐतराज़ था। उसके अनुसार वहाँ इन शब्दों की जगह ये शब्द होने चाहिऐ थे "यहाँ जिस्म बिकता है" औरत को कौन बेच सकता है और किसकी है इतनी हैसियत उसे ख़रीदने की, लेकिन हैसियत तो किसी की इतनी भी नहीं जो औरत और जिस्म को अलग कर सके। जो जिस्म की बोली लगाते हैं वो इस मुगालते के साथ उस जिस्म को बिछाते हैं कि उस जिस्म को धारण करने वाली आत्मा को भी खरीद रहे हैं।
"क्या हुआ कन्या, आज तेरा कोई ख़रीददार नहीं आया!"
"तेरा भी तो नहीं आया।"
"कोई ना कोई तो आ ही जाऐगा हमें कौन बख़्शेगा!"
"अगर हमें किसी ने बख़्श दिया तो वो हमें नहीं बख़्शेगी कंचन।"
"तू उससे इतना डरती क्यों है, मरने दे साली को वैसे ही कितना जियेगी बुढ़िया।"
"इतनी आसानी से नहीं मरेगी वो, हम सब की चमड़ी उसकी सख़्त मुट्ठी में कैद है।"
"लगता है आज फिर रोटी की जगह चाबुक मिलेगा।"
"कन्या, शाम बीतने को आई, साला कोई भूखा भेड़िया अब तक नज़र नहीं आया, आज क्या साला सभी एक साथ इंसान बन गऐ क्या!"
"हाँ रे लगता तो यही है, वैसे आज तेरा मेकअप कुछ ख़ास नहीं, कौन देखेगा फिर!"'
"तू भी कोई ख़ास नहीं लग रही।"
"चल, मार खाकर सो जाते हैं, रोटियाँ तो मिलनी नहीं, खाली हाथ जो जा रहे हैं।"
"चल।"
जिस दिन उनका जिस्म नहीं बिकता उस दिन खाने को मार और गालियाँ भर पेट मिलती थी। मालूम नहीं उन्हें या उन जैसी बाक़ियों को इससे क्या और कितना फर्क़ पड़ता था या पड़ता था भी या नहीं।
"यार कंचन चल कहीं भाग चले!"
"तुझे क्या हुआ, आज मार का असर दिमाग पर हो गया लगता है।"
"चल ना यार, यहाँ से भाग चलते हैं।"
"पायल का हाल भूल गई क्या, उसने भी की थी ना यहाँ से भागने की कोशिश। मीना बाई से पंगा लेना मतलब मौत को बुलावा देना।"
"तो अभी कौनसा जी रहे हैं यार।"
"तेरा दिमाग सड़ गया है, कुछ भी मत बक समझी।"
"इस मीना बाई का ही काम तमाम कर दें तो!"
"भूख तेरे दिमाग में चढ़ गयी है क्या, अरी चुप हो जा दीवारों के भी कान होते हैं, और पिटेंगे।"
"पिटाई की सारी हदें तो अपन देख चुके हैं अब और किस तरह से पिटेंगे रे, और कौन सी दीवार कौन से कान यहाँ सिर्फ़ शरीर ही दिखता है और शरीर ही बिकता है, और कुछ कहीं नहीं है यहाँ।"
"सो जा यार, मचमच मत कर, मेरा सर भन्ना रहा है, सो जा।"
"अरे क्या, सो जा, सो जा, उठ ना सुन तो!"
"अब मुझसे भी मार खाऐगी तू, चल मर सोती नहीं मुझे तो सोने दे।"
कन्या तो यूँ भी रातों को जागती थी, जब उसका जिस्म बिछता उस वक़्त दैहिक मजदूरी करते समय और जब कोई ख़रीददार ना मिले तब दिमाग के घोड़े दौड़ाते वक़्त, जागती हर हाल में थी।
"ए कंचन.... ए कंचन!"
"हम्म्म्म क्या है...क्या है! सोने क्यों नहीं दे रही!"
"सो गई क्या!"
"हाँ।"
"सुनना! ऐ सुनना!"
"क्या मुसीबत है यार वो खाने को नहीं देती तू सोने को नहीं देती, साला नरक भी अच्छा होता होगा इधर से तो। तुझे मालूम हैं ना मुझे रोटियाँ खाकर वो नींद नहीं आती जो मार खाकर आती है।"
"सुन तो!"
"अब बक भी, क्या बकना है?"
"एक बात बता!"
"अब जब नींद उड़ा ही दी है तो पेट भर के पूछ।"
"मेरे पास चने हैं खाऐगी!"
"ये पूछने के लिऐ जगाया है!"
"ना रे, तू यहाँ कब से है!"
"यार तीन साल होने को आये शायद!"
"तुझे पक्का नहीं पता क्या!"
"अरे हाँ, मतलब तीन साल।"
"तू यहाँ मर्ज़ी से आई क्या!"
"तेरा भेजा तो एकदम ही सड़ा हुआ है, इधर भी कोई अपनी मर्ज़ी से आता है क्या!"
"क्यों, वो नंदा नहीं है क्या, कोने के कमरे वाली, वो तो इधर कितना ख़ुश रहती है मर्ज़ी से आई होगी जब ना!"
"कौन बोला रे, मैं इधर तुझसे पहले की हूँ, मुझसे ज़्यादा मालूम है क्या तुझे!"
"तो फिर!"
"तो फिर क्या, उसका आदमी छोड़ के गया उसको इधर।"
"और तुझे!"
"मेरा बाप।"
"बाप!"
"ज़्यादा आँखें मत फाड़ सौतेला था।"
"मर गया क्या!"
"इतनी आसानी से नहीं मरेगा, मेरे श्राप लगने बाक़ी है।"
"और माँ!"
"वो डरपोक थी, ये अलग बात है कि तीन तीन शादियाँ बेख़ौफ़ होकर की थी उसने।"
"कोई भाई कोई बहन!"
"होंगे....साले कितने हैं? कहाँ कहाँ हैं? मुझे भी नहीं ख़बर।"
"थोक में शादी थोक में बच्चे ..."
"यही समझ ले।"
"कितने साल की है तू!"
"साला आधी रात को उठा के इंटरव्यू ले रही है मेरा!"
"बता तो।"
"कितने साल की हूँ ये तो नहीं पता...लेकिन हाँ उधर मेरे मोहल्ले में एक ताई थी वो मेरे बाप पर चिल्लाती रहती थी.."शादी कब करेगा इसकी सोलह की हो गयी है, कहीं पर लग आऐ और उड़ गयी किसी के साथ तो पूरे गाँव पे कालिख़ पोत के मरेगी" तो मुझे यहाँ आये दो साल हो गऐ हैं उस हिसाब से मैं अठारह की हुई। और तू!"
"मैं सोलह की हूँ।"
"पक्का पता है क्या!"
"नहीं तो क्या, तेरे जैसी अनपढ़ नहीं हूँ दसवीं पास की है मैंने।"
"तो यहाँ कैसे मरी!"
"नौकरी का झाँसा देकर मेरी बहन का देवर इधर ले आया और बेच दिया इस मीना बाई को।"
"इधर से भागना क्यों चाहती है, यहीं पड़ी रह।"
"नहीं, मुझे आगे पढ़ना है, कुछ बनना है।"
"अब क्या बनेगी, जो बनना था वो बन गयी यही लिखा था नसीब में, मान ले।"
"इसमें क्या इज्ज़त है, और तू नहीं चाहती क्या यहाँ से निकलना!"
"मैं इधर से निकलकर कहाँ जाऊँगी, घर जा नहीं सकती।"
"क्यों!"
"यहाँ तो फिर ग्राहक पैसा देकर मेरे साथ सोता है, उधर मेरा सौतेला बाप रोज़ रात को मारता भी और मेरे साथ सोता भी।"
"क्या..!"
"हाँ उसने मेरा रेप कितनी बार किया ये मुझे भी याद नहीं।"
"और तेरी माँ!"
"बोला ना वो डरपोक है, मुझे भी चुप रहने को बोलती थी, अच्छा किया जो मुझे इधर बेच दिया, उस ज़िल्लत से तो ये नौकरी सही। वैसे भी मैं इधर ही सुरक्षित हूँ उधर से तो।"
कंचन की बात पूरी भी नहीं हुई थी कि दरवाज़े पर ज़ोर से किसी ने हाथ मारा।
"खोल... जल्दी खोल साली मर गई क्या!"
"क्या है! इत्ती रात में क्यों मर रहा है, माँ मर गई क्या तेरी साले!''
कंचन के गाल पर चीर देने वाला झनझनाता हुआ चाँटा पड़ा। मीना बाई का स्थायी दलाल गगन शराब में धुत्त गालियाँ बकता बकता दहलीज़ पर गिर पड़ा। नशे में होने पर भी जाने कौन सी दैवीय ताकत उससे बुलवा रही थी।
"ऐ .... चलो नीचे, मीना बाई ने बुलाया है।"
उन्हें लगा उनकी बातें किसी ने सुन ली है और आज उनकी चमड़ी उधेड़ देगी वो बुढ़िया।
"क्यों, हम आज की मार तो खा चुके, अब क्यों बुलाया है इतनी रात में!"
"कन्या....आये हाय तेरी आवाज़ तो मेरे शरीर को कँपा देती है री, ऐ सुनना....सुनना....मेरा दिल आ गया है तुझपे, एक दिन तुझे यहाँ से..तुझे यहाँ से.."
उस शराबी की शराब जितना बोल सकती थी बोलकर पस्त हो चुकी थी, कन्या और कंचन डर से काँपती पहुँची मीना बाई के पास।
"अरे... आ गई मेरी दोनों राजकुमारियाँ!''
"ले कन्या, हो गया बुढ़िया का नाटक शुरू, लगता है कोई ख़ास आया है इसका आज!''
"हाँ वरना ये दे इतनी इज्ज़त! मर ना जाऐ बुढ़िया।"
"अरे... वहाँ क्यों खड़ी हो गई, इधर आओ मेरे पास बैठो। देख लीजिऐ साहेब एक से एक हैं, आपको जो पसंद हो रख दीजिये उसी पे हाथ देर किस बात की!"
"इत्ती रात में ग्राहक कन्या!'
"आदमी की भूख है कंचन, इसका कौन सा वक़्त।"
"कहिये साहेब... कौन सी के साथ जाऐंगे!"
उस बहुत ही रौबदार और पैसे वाले आदमी ने कन्या की तरफ इशारा किया। कंचन ने शांति की साँस ली अब वह आराम से सो सकती थी।
"कौन ये...कन्या...!! मुझे मालूम था साहेब आप इसी को माँगोगे ये तो मेरे यहाँ की रौनक है इसी से तो चल रहा है मेरा सब कुछ। आपकी पसंद ऐसी वैसी तो हो ही नहीं सकती, ये मैं आपको देखते ही समझ गई थी।"
"ये मक्खन लगाना बंद करो मीना बाई और दाम बोलो दाम।"
उस आदमी के साथ खड़ा एक अधेड़ उम्र का डरावना सा दिखता हुआ आदमी बोला जो लग तो उसका नौकर रहा था पर उस समय तो दलाल का काम कर रहा था।
"अब दाम मैं क्या बोलूँ साहेब, कोई और लड़की होती तो जितना आप देते ले लेती लेकिन इसके तो मुँह माँगे लूँगी।"
"क्यों इसमें कौन से सुरख़ाब के पंख लगे हैं!"
"समझ लीजिये वही लगे हैं... जाँच परख लो पैसा फिर दे देना, कहाँ भागा जा रहा है।"
"ठीक है मीना बाई पैसे हम यहाँ से जाते वक़्त दे देंगे...।"
"जैसी आपकी इच्छा साहेब....अरे कन्या...साहेब को ले जाओ कमरे में. ख़ातिरदारी करो इनकी, ये कहाँ रोज़ रोज़ आते हैं। अब तुम ही चलाओ कुछ जादू कि सिर्फ़ यही रास्ता याद रहे बाक़ी सब भूल जाऐं।"
कन्या ने सोचा आज के हिस्से की मार उधार रही इस बुढ़िया पर, आज के हिस्से का काम तो करना ही पड़ रहा है फिर यूँ ही मार भी खा ली। कंचन के लिऐ तो ठीक सौदा रहा, नुकसान में तो मैं रही। जाते जाते कंचन के कमरे के बाहर से निकलते वक़्त नज़र पड़ी तो बड़े आराम से नींद का लुत्फ़ उठा रही थी। कन्या को बड़ी जलन हुई। उस अमीरज़ादे को एक सजे धजे कमरे में ले जाने के बाद उससे बैठने का कहकर कन्या बाहर आई और अपने कमरे में जाकर लीपापोती करके वापस वहीँ पहुँची।
"शुरू करें साहेब.....साहेब...!!!"
तीन चार बार बोलने के बाद भी जब उस आदमी ने सुना नहीं तो कन्या ने उसके कंधे पर हाथ रखकर उसे याद दिलाना चाहा कि वो वहाँ किसलिऐ था।
"साहेब...!'
"हाँ...हाँ... हाँ...क्या!'
"मैंने कहा शुरू करें!"
"पानी मिलेगा!"
"पानी...अभी!!"
"हाँ...पानी मिलेगा!"
"लाती हूँ..लाना पड़ेगा, इधर पानी कौन पीता है!"
"तो क्या पीते हैं!"
"क्या साहेब, पहली बार आये हो क्या!"
"हाँ।"
"सही में!"
"हाँ।"
"ओह! इसलिऐ पानी माँग रहे हो, ठहरो मैं आपको वो पिलाती हूँ जो रिवाज़ है।"
"रिवाज़!"
"हाँ रिवाज़। शराब....शराब पी जाती है यहाँ..."
"लेकिन मैं नहीं पीता।"
"आपने पहले कभी ये सब भी किया है या ये भी पहली बार ही है।"
"क्या सब!"
"वही जो करने आऐ हो।"
"क्या करने आया हूँ मैं!"
"क्या साहेब, वक़्त बर्बाद करना है क्या...अच्छा ठीक है। मैं ही शुरू करती हूँ..."
कन्या के हाथ लगाते ही वह आदमी तेज़ी से उठकर खिड़की की तरफ़ बढ़ा।
"ये क्या कर रही हो!"
"क्या...क्या कर रही हूँ मैं!"
"जो भी तुम कर रही हो।"
"तो और क्या करवाना चाहते हो, जिस काम के लिऐ पैसे दोगे, वही तो कर रही हूँ।"
"ये कौन सी जगह है!"
"क्या...क्या कहा साहेब...ये कौनसी जगह है!! साहेब या तो तुम कोई पागल हो या कुछ ऐसी चीज़ पीकर आऐ हो जिसकी बदबू तो नहीं आ रही लेकिन उसका असर साफ़ नज़र आ रहा है।"
"कहा ना, मैं नहीं पीता वीता।"
"अरे चाहते क्या हो...कौन हो!! हे भगवान!... अरे साहेब कुछ करने के लायक भी हो या..."
"शट अप... जस्ट शट अप....."
"कुछ बोलूँ नहीं कुछ करूँ नहीं... तो पैसा किस बात का दे रहे हो!"
इससे पहले की कन्या कुछ और बोलती वह आदमी अपने दोनों हाथ मुँह पर रखते हुऐ फ़फक फ़फक कर रो पड़ा। ये सब पहली बार हो रहा था कन्या को समझ ही नहीं आ रहा था ये क्या था क्यों था कहीं उस बुढ़िया को पता चल गया कि मैंने किसी को रुला दिया है तो लेने के देने पड़ जाऐंगे। क्या करे...
"साहेब... ओ साहेब... देखो आपको नहीं पीना है तो मत पियो, नहीं करना है तो मत करो, लेकिन ये रोना....."
"मुझे माफ़ कर दो...मुझे माफ़ कर दो...मैंने ये सब क्या कर दिया? क्यों कर दिया? ये मुझसे क्या हो गया...हे भगवान! ये सब मुझसे क्या हो गया...प्लीज़! मुझे माफ़ कर दो...."
"क्या हुआ साहेब, क्या हुआ, आप इधर बैठो...इधर ऊपर, आप बैठो शांति से, मैं पानी लाती हूँ।"
बाहर से पानी लाना भी किसी चुनौती से कम नहीं था, पानी पीता ही कौन था वहाँ...जैसे तैसे छुपती छुपाती कन्या पानी लाई और फटाक से दरवाज़े पर कुण्डी मारी।
"साहेब ये लो पानी...लो।"
"थैंक यू।"
"वो सब की ज़रूरत नहीं, क्या हुआ है तुम्हें...यूँ अचानक किससे माफ़ी माँग रहे हो, क्या हुआ है!"
"तुम्हारा नाम क्या है!"
"कन्या।"
"कन्या......ओह!"
"क्यों क्या हुआ...और तुम्हारा!"
"मेरा नाम इन्दर है।"
"तुम यहाँ क्या करने आऐ हो...अजीब सवाल कर रही हूँ पर और क्या पूछूँ तुम्हारी हालत देखकर समझ नहीं आ रहा!"
"मैं नहीं जी सकता उसके बिना, मर जाऊँगा मैं, वो मेरे साथ ऐसा नहीं कर सकती..उसे अंदाज़ा भी है उसने क्या किया है..."
"हैं!! कौन किसने क्या किया... कौन!"
"मुझे यकीं नहीं होता वो मुझे छोड़कर चली गयी है!"
"साहेब, क्या बोल रहे हो, कुछ समझ नहीं आ रहा...कुछ कहना ही चाहते हो तो पूरी बात बताओ, जिससे तुमको भी आराम मिले।"
"आराम अब मुझे कभी नहीं मिल सकता।"
"तो फिर यहाँ क्यों आये!"
"मेरा दोस्त बोला कि यहाँ आने से मुझे आराम मिलेगा...वो जाकर भी नहीं गई, हर तरफ बस वो ही वो है, मैं पागल हो जाऊँगा..मैं पागल..."
"कौन है..कौन चली गई...साहेब पूरी बात बताओ शायद कुछ हो पाऐ!"
"क्या हो पाऐगा तुमसे...जिस्म बेचने के अलावा और आता क्या है तुम्हें! तुम्हें तो बस अपने पैसों से मतलब है।"
"और कुछ!"
इन्दर को एहसास हुआ कि अपनी कुंठा और तक़लीफ में वो कन्या से बदतमीज़ी कर रहा था।
"सॉरी...लिसन आई एम रियली सॉरी..."
"तुम चाहो तो अपनी तक़लीफ बोल सकते हो।"
"मुझे नहीं पता मैं यहाँ ऐसी जगह क्यों आया, मैंने कभी सपने में भी ऐसी जगह की कल्पना नहीं करी है। यकीं ही नहीं हो रहा मैं यहाँ चला आया और तुमसे बात कर रहा हूँ।"
"और तुम्हें इस बात का अफ़सोस है!"
"नहीं...हाँ मेरा मतलब है हाँ...अफ़सोस क्यों नहीं होगा, मैं एक बहुत ही इज्ज़तदार परिवार से हूँ, ये सब नहीं होता हमारे यहाँ।"
"अच्छा!!! इज्ज़तदार लोगों का एकाधिकार है यहाँ साहेब...तुम नहीं जानते ये अलग बात है।"
"मैं नहीं मानता...चलो होगा। मैं पूरी दुनिया के तरफ़ से दावा नहीं कर सकता..बस अपनी कहता हूँ मैं ऐसा नहीं हूँ।"
"मान लिया..आगे!!"
"वो मुझे छोड़कर चली गई, उसने एक बार भी नहीं सोचा मैं उसके बिना चल भी नहीं पाता, जियूँगा कैसे?"
"कौन थी वो?"
"थी मत बोलो, थी मत बोलो...वो है वो है...देखो देखो...तुमने थी बोला, मेरा दिल कितनी जोर से धड़क रहा है...छूकर देखो..."
हिम्मत नहीं हुई कन्या कि इन्दर को छूने की।
"कहाँ चली गई है वो!"
"मुझसे बोलकर नहीं गई, मैं नहीं जी सकता उसके बिना..देखो मुझे साँस भी नहीं आ रही, उसने मुझे कभी सिखाया ही नहीं उसके बिना जीना, तो मेरी क्या गलती इसमें।"
"क्या नाम है उसका!"
"नाम...नाम उसका ताशी..ताशी नाम है।"
"बहुत सुन्दर नाम है।"
"जब देखोगी तब सोचोगी कि नाम ज़्यादा सुन्दर है या वो ख़ुद।"
"कहाँ चली गई वो!"
"पता नहीं मैं रोज़ की तरह बस उसे ही देखने जा रहा था कि फ़ोन आया और उधर से आवाज़ आई कि जल्दी आइये इनके पास वक़्त नहीं अब...और मैं भागा जैसे ही उसके पास पहुँचा उसे बाहों में लिया और वो मेरे सिर पर हाथ रखकर किसी और दुनिया में चली गई...वो क्या मेरे पहुँचने का ही इंतेज़ार कर रही थी!"
"हे भगवान....क्या हुआ था उसे...!!""
"कैंसर...लेकिन उसने वादा किया था, वो ठीक हो जाऐगी। उसी ने मुझमें भी उम्मीद जगाई थी, कहा था, वादा किया था, ठीक हो जाऐगी ये कहा था, एक बार नहीं हज़ार बार कहा था। उसने कभी कोई वादा नहीं तोड़ा... उसे आता ही नहीं था झूठ बोलना फिर ये क्या किया उसने!"
"कब हुआ ये!"
"कल...हाँ कल की ही तो बात है। मैं उससे कहकर निकला था हॉस्पिटल से कि बस यूँ गया यूँ आया..मैं उसके लिए उसके पसंद के फूल लेने गया था...क्या एक पल दूर होने की इतनी बड़ी सज़ा देगी वो मुझे, मैंने कहा था ना मैं बस अभी लौटा।"
इन्दर की हालत काबू के बाहर थी वो दिल दिमाग सब तरफ से टूट चुका था। उसे नहीं था ये एहसास कि वो कहाँ बैठा था, किसके सामने क्या बोल रहा था, वो बस एक बच्चे की मानिंद अपना दिल खोल रहा था जो कुछ उसके अन्दर उबल रहा था उसे बाहर उड़ेलने की नाकाम कोशिश कर रहा था। कन्या के पास सिवाय सुनने के और कोई रास्ता नहीं था और वो भी सिर्फ़ इंसानियत से कहीं ज़्यादा इस डर के मारे कि वो आदमी इस चीज़ के पैसे देने से मना ना कर दे...लेकिन दिल के किसी कोने से आते सवाल को कन्या ने इन्दर से कर ही लिया....
"एक बात पूछूँ!"
"हाँ।"
"उस वक़्त वहाँ मेरे साथ एक और लड़की थी...जब तुम्हें ये सब करना ही नहीं था तो तूने मुझे ही क्यों चुना!"
"मुझे नहीं पता...लेकिन..."
"लेकिन!!"
"लेकिन मेरी ताशी की आँखे तुमसे मिलती है। एक पल के लिऐ लगा ताशी मुझे देख रही है और हमेशा की तरह इस बार भी वो मुझे आगे बढ़कर थाम ही लेगी अपनी बाहों का सहारा दे ही देगी....मैं होश में नहीं था इसलिऐ तुम्हारी आँखों को मेरी ताशी की आँखें समझने का पाप कर बैठा।"
"पाप!!"
"हाँ..पाप। ये सिर्फ़ पाप ही हो सकता है कि मैं उसके जैसा किसी को समझूँ भी। मैं अब जी ही कहाँ रहा हूँ इसलिए क्या फर्क पड़ता है मैं जिस्मफरोशी के अड्डे पर जाऊँ या किसी मंदिर मस्ज़िद में....."
"मुझे नहीं पता मुझे तुम्हें इस वक़्त क्या कहकर बहलाना चाहिऐ लेकिन इतना ज़रूर कहूँगी, तुम जब चाहे यहाँ आ सकते हो, मैं चुपचाप तुम्हारी ताशी की बातें सुनूँगी और इस तरह से तुम उसे हमेशा के लिऐ ज़िंदा रख पाओगे..."
"उसने मेरी इन्हीं बाहों में दम तोड़ा है मैं कैसे ज़िंदा रह सकता हूँ!"
"प्यार इंसान को ख़ुदगर्ज़ बना देता है लेकिन यही प्यार दो इंसानों को महान भी बना देता है साहेब...कोई तो अधूरा सपना होगा आपकी ताशी का...उसे पूरा करने की ख़ातिर ही जी लो... वो तो आपसे दूर कभी नहीं जा सकती, ये तो आपकी हालत देखकर ही समझ आ रहा है। उसके सपनों के सहारे ही जी लो।"
इन्दर के अवचेतन ने सारे रास्तों को चीरते हुऐ उसके दिमाग में एक विस्फोट किया...एक परदे सी सरसराती उम्र जो उसने ताशी के साथ जन्मों की मानिंद गुज़ारी थी, चारों तरफ से दस्तक देती चली आई उसके दिल दिमाग में....
"इन्दर....इन्दर...सुनो ना.."
"बोलो ना ताशी, सुन तो रहा हूँ।"
"कहाँ सुन रहे हो, हमेशा खोऐ खोऐ रहते हो।"
"तुम हो जब पास तो खो ही जाऊँगा ना..क्या लेना है इस दुनियादारी से मुझे।"
"सुनो ना...मैं कल रेड लाइट जा रही हूँ।"
"क्या...क्या कहा...कहाँ! कहाँ जा रही हो!"
"हम्म... वही जो तुमने सुना। रेड लाइट।"
"दिमाग तो ठीक है, होश में तो हो.. ख़बरदार जो नाम भी ज़ुबान पर लाई।"
"इन्दर सुनो तो.. . मेरी रिसर्च का टॉपिक है ना जाना तो पड़ेगा ना..."
"ये क्या टॉपिक है.. बदलो इसे..."
"क्या इन्दर...ऐसे कैसे, वैसे भी मैं ये जानना चाहती हूँ कि ऐसी क्या मजबूरी होती है इन औरतों कि जो ये सब करना पड़ता है इन्हें!"
"होती होगी, तुम मत पड़ो इन चक्करों में।"
"तुम कितने असंवेदनशील हो इन्दर, ऐसा कैसे कह सकते हो... मैं तो जाऊँगी और इसी टॉपिक पर रिसर्च करुँगी बस कह दिया....और अगर कभी मेरे किसी सपने को पूरा करने का ख्याल दिल में आऐ तो यही सोचना कि ऐसी औरतों को वहाँ से मुक्ति कैसे दिलवाई जाऐ......."
इन्दर का अवचेतन अपनी जगह पर यथावत वापस पहुँच चुका था, कन्या की कही बात और ताशी का अधूरा सपना उसके सामने मजबूत दीवार की तरह खड़े थे।
"कन्या....क्या मैं तुम्हारे हाथ पकड़ सकता हूँ!"
"साहेब...क्या हुआ!"
"कहो तो पहले, मुझे इसकी इजाज़त है क्या!"
"आपकी मर्ज़ी साहेब..अपने पैसा चुकाया है आप जो चाहे वो..."
"नहीं नहीं...गलत ना समझो.."
इन्दर ने किसी धर्मग्रन्थ की मानिंद कन्या के हाथों को होंठों और सिर से लगाकर आँखें बंद की और....
"कन्या...अगर आज मैं यहाँ नहीं आता तो ताशी को हमेशा के लिऐ खो देता..मैं तुम्हारा एहसान तो कभी नहीं चुका सकता लेकिन ये वादा करता हूँ कि ताशी का सपना पूरा करूँगा और तुम्हारा भी....बस अगली बार जब आऊँ तब तुम जैसी जितनी और भी हैं जो यहाँ से निकलना चाहती हैं, उन्हें कह देना उनके यहाँ से निकलने का वक़्त आ गया है।"
इतना कहते ही इन्दर उस परदे की झालर को सरका कर बिजली की भाँति तेज़ी से बहार निकल गया। रात लगभग बीत चुकी थी मंदिरों में घंटियों का शोर तो कहीं दूर से मस्ज़िद में अज़ान सुनाई पड़ रही थी...कंचन भी नींद से जाग चुकी थी। चारों तरफ रौशनी ने अपनी दस्तक दे दी थी।