Unlock solutions to your love life challenges, from choosing the right partner to navigating deception and loneliness, with the book "Lust Love & Liberation ". Click here to get your copy!
Unlock solutions to your love life challenges, from choosing the right partner to navigating deception and loneliness, with the book "Lust Love & Liberation ". Click here to get your copy!

आख़िर ये तन ख़ाक मिलेगा

आख़िर ये तन ख़ाक मिलेगा

11 mins
14.9K


''आख़िर ये तन ख़ाक मिलेगा, क्यूँ फिरता मगरुरी में'' कबीर की ये पंक्ति अचानक समझ में आ गई जब 4 नवम्बर 2012 को सुबह-सुबह दिल्ली से फ़ोन आया- 'आपके पापा नहीं रहे।'

2007 से पापा बीमार ही चल रहे थे। 'ब्रेन हम्रेज' की वजह से। वरना तो 70 साल की उम्र  में भी सुरेश भट्ट, शेर की तरह दहाड़ते हुए पूरे देश में घुमा करते थे। घुमंतू का जीवन राहुल सांकृत्यान की तरह (एक बार मुझे 'भागो नहीं दुनिया को बदल डालो' और 'वोल्गा से गंगा तक' पढने के लिए दिया था)। फकीराना अंदाज़। कबीर की तरह। इतना अक्खड़ इन्सान मैंने अपने जीवन में और दूसरा कोई नहीं देखा। उनकी आवाज़ में हमेशा बुलंदी रहती थी। जब भी उनसे कोई पूछता - 'कैसे हैं आप?' हमेशा जोश के साथ कहते - 'मैं एकदम  ठीक हूँ।'  मरने के कुछ पल पहले भी जब 'ओल्ड एज' के देख-रेख प्रभारी ने उनसे पूछा - 'कैसे हैं' उन्होंने उसी गर्म जोशी से जवाब  दिया 'मैं एकदम ठीक हूँ' 

जो मन में वही मुंह पर और जो मुंह में वही मन में।खुदमुख्तार और खुद्दार इंसान। ना छल, न धोखा, ना चालाकी ना होशियारी। मन बिलकुल बच्चे की तरह। खादी का एक झोला ही उनका घर-बार और उनका संसार। उसके अंदर उनका कुर्ता-पायजामा, एक गमछा (उनका एक गमछा आज भी मेरे पास है जिसे मैं सिरहाने अपने तकिये पर रखकर सोती हूँ, ऐसा महसूस होता है जैसे मैं उनके सीने पर सर रखकर सो रही हूँ)। एक-दो किताबें, कुछ पोस्टकार्ड (वो सबको पोस्टकार्ड ही लिखा करते यानी खुला ख़त), कुछ मुड़ा-तुड़ा पुराना अख़बार। वो कहा करते- 'जब तक आपने पूरी खबर नहीं पढ़ी हो, पूरा अख़बार नहीं पढ़ा तब तक कोई भी अख़बार पुराना नहीं होता।'

जेब में दस रूपये भी होते वो अपने आप को बादशाह समझते और उन थोड़े पैसों को भी दूसरों में बाँटने के लिए बेचैन रहते। दो रूपया किसी बच्चे को तो फिर किसी को 'पनामा सिगरेट' पीने के लिए या फिर किसी को खैनी खाने के लिए दे देना या फिर किसी को मूंगफली खाने के लिए बाँट देना। और जब उनके सब पैसे खत्म हो जाते तो अपने किसी कॉमरेड या युवा-नौजवान साथी से कहते- 'लाओ साथी, दो रुपया'  यह वो इंसान थे जो ख़ुद सिनेमा हॉल के मालिक थे और अचानक एक दिन 'बुद्ध' की तरह सब कुछ पत्नी-बच्चे को छोड़कर आम जनता के हक़ के लिए सड़क पर उतर आये, पूरे आत्मसम्मान और गौरव के साथ। ना चटाई पर सोने में उज्र ना झोपड़े में बैठेने से शिकायत। सड़क किनारे ऐसे खाना खाते जैसे लोगों को लगे कि वो किसी पांच सितारा होटल में खा रहे हों। रोटी पर  प्याज़ का दुकड़ा और नमक-मिर्च अख़बार पर रखकर खाने वाले वो इन्सान हमेशा ख़ुश रहते और आम ईमानदार और खुद्दार इंसान के न्याय के लिए सरकार से और सामाजिक व्यवस्था से लड़ते रहते। 

पिछले कुछ सालों से चुपचाप, गुमनाम ज़िन्दगी जीने में भी कोई गुरेज़ नहीं। शांत, भीतर और बहर से पूरी तरह शांत। 

'ओल्ड ऐज' वाले अक्सर मुझे बताते कि - 'आपके पिता जी यहाँ रहने वाले मेंबर में सबसे अच्छे हैं, बहुत खुश और शांत रहते हैं। यहाँ रहने वाले बाक़ी और सब लोग कभी कभी लड़ते हैं, गुस्सा करते हैं। लेकिन आपके पिता जी कभी ऐसा कुछ नहीं करते। 'He is like a saint and we r fortunate he is living with us.'

आज वो इंसान जो मेरी ताकत थे। मेरा आत्मविश्वास थे, मेरी ज़िन्दगी से अचानक चले गए। वो चले गए यक़ीन ही नहीं होता। ऐसा लगता है वो कहीं से अचानक आ जायेंगे, काश ऐसा हो सकता। उन्हें आ जाना चाहिए क्योंकि मुझे उनकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत है। सड़क पर चलते-चलते अचानक जब याद आता है कि पापा नहीं रहे। मैं अनाथ हो गई हूँ, तो  ऐसा महसूस होता है कि पैरों तले से जैसे ज़मीन खिसक गई हो, पैर हवा में, शून्य में झूल रहा हों। पैरों  की शक्ति खत्म हो गई हो, जैसे पांव जड़ हो गए हों, पैर उठाये नहीं उठते। मेरी आँखों के किनारे भींग जाते हैं। किसी तरह अपने आपको संभालती हूँ और ऑटो रिक्शा वाले से कहती हूँ- 'प्लीज़ भैया,  जल्दी से मुझे घर छोड़ दीजिये'। कई  बार तो रिक्शा वाला मुझे पलट के देखने लगता है कि क्या हुआ मुझे। एक बार एक रिक्शे वाले मुझसे पूछा कि- 'मैडम, आप क्या करते हो, आपको देख कर लगता है, आप देवी का अवतार हो। आपके अंदर बहुत असाधारण शक्ति है, आप ज़रूर एक असाधारण  नारी हैं।'

मेरे मुंह से अकस्मात निकला- 'कुछ भी नहीं हूँ, महिना नहीं बीता है, अपने बाप को जलाकर आ रही हूँ।'

जिस सुबह उनकी मौत की खबर आई उससे ठीक आठ दिन बाद (13 नवम्बर को) दीवाली थी और उनके साथ दीवाली मनाने दिल्ली जाने वाली थी। पूरी तैयारी कर ली थी। दीये, कैंडल्स, नए कपड़े, सबकुछ ।

फ़ोन पर उनके ना होने की ख़बर सुनकर कुछ समझ में नहीं आया कि कैसे, क्या कहूँ या करूँ। बस दिल्ली के लिए एअरपोर्ट निकल पड़ी। प्लेन के किराये का पैसे भी मेरे पास नहीं थे। दरअसल पैसे थे लेकिन प्रोडक्शन हॉउस के पास। वो 90 दिनों यानी तीन महीने बाद (अनुबंध के अनुसार पैसे काम करने के 90 दिनों बाद ही मिलता है, चाहे कोई मर जाये) पूरे होने पर ही देते हैं। गले में पड़ा सोने का चेन बेचा और एयरपोर्ट पंहुची। रास्ते भर कुछ समझ में नहीं आ रहा था, न किसी को फ़ोन करना याद था न और कुछ। शायद होशो-हवास में  ही नहीं थी। किसी तरह माँ को फ़ोन किया। फ़ोन स्पीकर पर था और तरु (हमारे चार भाई-बहनों में मात्र ढाई साल की एकलौती बेटी) के शोर मचाने की आवाज़ आ रही थी। मैंने बस इतना कहा - 'तरु! नाना जी चले गए।'  और एक मोबाईल संदेश शायद किसी को भेजा। किसे? वो भी ठीक से याद नहीं। हाँ, वो मेसेज इतने लोगो तक पंहुच गया कि दिल्ली से, पटना से फ़ोन आने  शुरू हो गए। कुछ पत्रकारों के भी फ़ोन आये शायद सबसे पहले 'विनायक विजेता' जी का पटना से और उन्होंने पापा की खबर को विस्तार से जानना चाहा। पटना के अखबार और टी वी पर ख़बरें आने लगी।

दिल्ली एयरपोर्ट पंहुची तो कहाँ जाना है, क्या करना है, कुछ नहीं समझ में नहीं आया रहा था। टैक्सी लेकर सीधे 'निगम बोध घाट' पंहुची। पापा अम्बुलेंस में लेटे थे। हाँ! बिलकुल, उन्हें देखकर यही लग रहा था कि वो सो रहे हैं। किसी छोटे, मासूम बच्चे की तरह।

मेरे वहाँ पहुँचते ही लोगों में कुछ फुसफुसाहट-सी शुरू हो गई। किसी ने आके पूछा। क्या तुम सब क्रियाक्रम (शमशान भूमि में जो होता है) करोगी? मैंने कहा - हाँ।

पंडित ने आकर पूछा - क्यूँ तुम्हारे चाचा या भाई नहीं हैं?

मैंने कहा - सब हैं लेकिन कोई नहीं आया है। मैं बड़ी बेटी हूँ, जो भी करना है, मैं ही करुँगी।

उन्होंने पूछा - तुम्हारी शादी हो गई है ?

मैंने कहा - हाँ।

वो बोले- तो फिर तुम बाप का श्राद्ध नहीं कर सकती।

मैंने कहा - जी, मुझे ही सब करना है। बस आप करायें, कैसे क्या करना है? 

उन्होंने पूछा - दादा जी का नाम याद है?

मैंने कहा- हाँ, प. यमुना प्रसाद कविराज भट्ट

उन्होंने पूछा - गोत्र पता है?

मैंने कहा - हाँ, परासर गोत्र।

पंडित जो बोले - 'तो ठीक है,  करो।'

और फिर वो जो-जो, जैसे-जैसे बताते गए, मैं करती गई।

सब जैसे नींद में, या जैसे गहरे नशे में। बस पापा का चेहरा दिख रहा था। ऐसा लग रहा था वो सो रहे हैं। एक-दो बार उन्हें उठाने की कोशिश भी की। भैया, भैया, उठिए न। (मैं पापा को बचपन से भैया ही बुलाती हूँ क्योंकि पापा अपने सभी भाई-बहनों में बड़े थे। बुआ और चाचाजी जो उन्हें बुलाते थे उनसे सुन-सुन कर वही सीखा था) लेकिन वो उठे नहीं। ऐसा लग रहा था वो गहरी नींद में हों। सोते हुए जैसे कोई सपना देख रहे हों और मुस्कुरा रहे हों। बहुत प्यारे, सुन्दर और मासूम लग रहे थे मेरे पिता। गहरी शांति थी उनके चेहरे पर। उस वक़्त मुझे लगा मौत का मतलब है- गहरी नींद, सिर्फ़ गहरी नींद। मुक्ति ।और कुछ नहीं।

अपने पिता को कन्धा देने से लेकर मुखाग्नि देने की जिम्मेवारी सिर्फ़ मेरी थी। जब मुखाग्नि दे रही थी तब भी वो मुस्कुरा रहे थे। जैसे ही मुख में आग डाला तो मुंह में जो पहले से पंडित जी ने घी और कपूर रखवाया था, वो गैस की सिलेंडर की तहर धधक उठा। 

उससे भी कठिन था पापा की चिता को तीन घंटे तक चुप चाप बैठकर धू-धू कर जलते देखना।

माँ ने कहा था- पापा की अस्थियाँ लेकर घर नवादा (बिहार) आना है। 'अस्थि कलश' को गोद में बच्चे की तरह लेकर पूरे रास्ते दिल्ली से 'गया' तक और 'गया' से 'नवादा' पंहुची। नवादा पहुंचकर पैरों में जैसे किसी ने पत्थर बांध दिये हों। पैर उठ नहीं रहे थे, हिम्मत नहीं हो रही थी कि कैसे यह अस्थियाँ ले जाकर माँ को दूँ?

नियति जो न कराये?

जब पापा की अस्थियाँ समेट रही तो समझ में आया कि हर चीज़ अपनी नियति के साथ उत्पन्न होती है। मृत्यु अंतिम सत्य है और एक दिन सब कुछ ख़ाक हो जाना है। 

ज़िन्दगी के इस इम्तिहान के बारे में जब सोचती हूँ तो आज भी ऐसा लगता है कि यह सब कैसे किया या कैसे कर सकती हूँ। भगवान किसी को इस तरह भी आज़माता है?

फिर याद आया पापा की बातें - क्रांति सब कर सकती है (पापा मुझे क्रांति बेटा बुलाते थे) और ये भी लगता है कि जैसे वो सब जानते थे और उन्हें इस दिन का भी जैसे पता था, और उन्होंने बक़ायदा इस दिन के लिए मुझे तैयार किया था। जब मैं लगभग 13-14 साल की थी। दादा जी की मौत हुई थी। पापा ने अपने साथ-साथ मुझसे भी दादा जी को अग्नि दिलवाया था हालाँकि मुझे अच्छी तरह याद है कि बाकी सारे रिश्तेदार मना कर रहे थे कि- 'क्या कर रहे है आप? बच्ची है! इससे आप यह सब क्या करवा रहे हैं?'

पापा ने सब की बात काटते हुए कहा- 'क्रांति, हमारे लिए बेटे से कम नहीं है। और 'बाबू जी' इसे बहुत प्यार करते थे, इसलिए क्रांति आग देगी।'     

अजीब बात है, पापा इतनी दूर की जानते थे। पर क्या वो यह नहीं जानते थे कि मैं उनके बिना कैसे रहूंगी। जानती हूँ, मौत सबकी आनी है । एक दिन मेरी भी! जाते तो वो हमेशा से थे। पहली बार तब जब मैं सिर्फ़ 7  साल की थी, अचानक उन्होंने माँ से कहा - 'मैं परिवार के लिए नहीं बना हूँ, मेरे समाज का हर इंसान जिस दिन भर पेट खाकर सोयेगा उस दिन मुझे तसल्ली मिलेगी। यह लो 'पावर ऑफ़ एटार्नी' और अपने बच्चे सम्भालो।'  

माँ ने कहा- 'बच्चे मैंने अकेले पैदा नहीं किये हैं' लेकिन उन्होंने कुछ नहीं सुना और चले गए, उनके जाने के कुछ दिनों बाद माँ को पता चला कि वो फिर से गर्भ से हैं। मेरी छोटी बहन 'बॉबी' होने वाली थी। बॉबी ने पापा को पहली बार तब देखा जब वो तीन साल की हो चुकी थी।  

जाना उनकी पुरानी आदत थी। अचानक अंतर्ध्यान हो जाते थे, अचानक प्रकट। ठीक से याद नहीं लेकिन दिल्ली में 2005 में 'त्रिवेणी' में मिले थे और बस औपचारिक-सी बातें हुई थी। उनकी चिंता समाज और सामाजिक व्यवस्था को लेकर बरक़रार रहती थी, चेहरे पर परेशानी साफ़ दिखती थी और कुछ न कर पाने की बैचेनी और थकावट उनके अन्दर मैं महसूस करती थी लेकिन मैं भी कुछ नहीं कर सकती थी। मैं चुपचाप उन्हें सुनती थी। कई बातें मेरी समझ में भी नहीं आती थी, मैं राजनैतिक तौर पर उतनी परिपक्व भी तो नहीं थी। उस शाम 'त्रिवेणी' में मिलने के बाद काफी अरसे तक फिर गुम हो गए, न कोई फ़ोन, न कोई खबर। कुछ दिनों से मेरा मन बैचैन हो रहा था, कई जगह पता किया, कई लोगों से पूछा, पर कुछ भी पता नहीं चला। मेरा डर था कि अचानक उन्हें कुछ हो तो नहीं गया और कहीं लावारिस समझकर लोगों ने और दुनिया से कहीं गुमनाम तो नहीं चले गए? आखिर २००७ में पता चला और जिस हाल में उन्हें पाया वो मेरे लिए खुश होने कि वजाय सदमा ज़्यादा था। उनका ब्रेन हेमरेज हुआ था। सब कुछ भूल चुके थे। होशो हवास में नहीं थे। दाढ़ी-बाल बढे हुए। एक फटी पुरानी लूंगी, मैले से लथपथ। उन्हें देखकर मैं बिलकुल चुप थी, बस उन्हें देखे जा रही थी और वो मुझे। मैंने बड़ी मुश्किल से पूछा - 'भैया! मुझे पहचाना? मैं आपकी क्रांति हूँ।' 

वो कुछ भी नहीं बोले, बस मुझे देखते रहे।

किसी तरह से उनका इलाज शुरू करवाया। 'ओल्ड ऐज होम' में रखवाया क्यूंकि खुद मेरा कोई घर नहीं था। मैं मुम्बई में बतौर 'पेइंग गेस्ट' रह रही थी।

2007 से 2012 तक उनकी देखरेख का मौक़ा मुझे मिला। वो मेरी 'कस्टडी' में थे, ऐसा लोग कहते हैं।  हाँ! मैं भी यही कहूँगी कि मेरी 'कस्टडी' में थे। बचपन से मैंने उनकी कमी महसूस की थी, खोजने पर भी अक्सर उनका पता नहीं चलता था। कभी बीमार पड़ती तो बेहोशी की हालत में भैया! भैया! पुकारती थी और माँ गुस्से में मुझे उस हालत में भी पीट देतीं थी कि - 'सबकुछ करती हूँ मैं और नाम जपती है बाप का।' अब मैं जब चाहती उनसे मिल सकती थी और मैं बहुत खुश थी। लेकिन अब वो  हमेशा, हमेशा के लिए चले गए। 

        एक बात जो उनके चले जाने के बाद बार-बार मुझे सोचने पर मज़बूर करती है, वह, यह कि क्या और कैसा बंधन या कैसा रिश्ता था हमारे बीच, पिता और बेटी के बीच। इसे आज भी नहीं जान पायी हूँ, ना समझ पायी हूँ। आख़िर ऐसा क्यों था या क्यों हुआ कि मेरे पिता के खुद संगे भाई (मेरे चाचा जी), सौतेले भाई-बहन, रिश्ते के कई चाचा, ताया जी कुल मिलाकर लगभग एक दर्जन से ऊपर होंगे ही। और तो और खुद मेरा भाई यानी सुरेश भट्ट का एकलौता बेटा भी है। लेकिन उस अंतिम यात्रा में, शमशान भूमि में, उनमें से कोई भी नहीं थे, सिर्फ मैं थी अकेली। अपने पिता के साथ। बिलकुल अकेली। इस बात को मैं आज तक नहीं समझ पायी हूँ कि आखिर ऐसा क्यूँ ?  

उनके जाने के बाद सचमुच मैं बहुत अकेली हो गयी हूँ। 

कहते है, जो कोई आपको बहुत प्यार करता है, वो हमेशा आपके साथ रहते है। याद बनकर हमेशा आपके दिल में। आपकी आत्मा में।

आजकल आसमान में एक तारा बहुत चमकीला है और जानती हूँ, इतना चमकीला तारा मेरे पिता ही हो सकते हैं, जो मुझे वहां से देखते हैं। मुझसे बातें करते हैं।और मुझे मेरी बाक़ी बची हुई ज़िन्दगी की राह दिखला रहे हैं। दिखाते रहेगे। वो हमेशा मेरे साथ थे और साथ रहेंगे।

मेरी हिम्मत बनकर। मेरी ताकत बनकर। मेरा आत्मविश्वास बनकर। मेरा अभिमान बनकर।


Rate this content
Log in