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Sumita Sharma

Others

5.0  

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ये छुआछूत नहीँ आराम का मामला है

ये छुआछूत नहीँ आराम का मामला है

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"स्नेहा! अरी ओ स्नेहा! सुनती क्यों नहीं? अरे निहाल तू ही आ जा"!

रसोई में दादी अक्सर पापा, निहाल या स्नेहा को पुकार के खिझाती। कभी कोई डिब्बा उतार दे, तो सब्ज़ी काट दे या दूसरे काम करने को। तीन दिन चीख पुकार निहाल, स्नेहा के नाम की घर में गूंजती ही रहती।

"दादी रसोई में जाती ही क्यों है?" स्नेहा अक्सर बड़बड़ाती, पर दादी तो दादी थीं।

उसकी मां, प्रिया को जब भी पीरियड्स आते, पूरा घर दादी रमा देवी की आवाज़ों से गूंजता। दादी मम्मी को रसोई में जाने न देती, सारा काम खुद करतीं और सब की मदद भी लेती थीं, यहां तक कि दादा जी की भी। पर मम्मी! उन्हें तो दादी तीन दिनों तक खाना पानी भी खुद ही देती या स्नेहा से भिजवाती। मम्मी को उधर आने भी न देती, सारा काम होता पर हाय तौबा के साथ। अगर पापा खुद के लिए खाना बनाते तो पूरा किचन ऐसे लगता जैसे खुद मम्मी ने ही काम किया है पर दादी उनको थोड़ा ऊपर नीचे करने में तकलीफ होती और यही सब स्नेहा और निहाल को चिढ़ा डालता।

टीनएज (किशोरावस्था) की स्नेहा अक्सर गुस्से से भर जाती जब भी मम्मी के मुश्किल दिन होते और दादी या पापा किचन संभालते। अक्सर उसे उनके साथ बहुत कुछ निपटाना होता, स्कूल से आकर और साथ में दादी की डाँट भी पड़ती। ऐसा बिल्कुल भी नहीं था कि दादी कोई बहुत पुराने जमाने की थीं, रिटायर्ड टीचर थीं पर उनके नियम वो स्नेहा की समझ से बिल्कुल ही बाहर थे।

मम्मी दो दिन तो रूटीन के जैसे ज़्यादा कपड़े भी नहीं धोती, उनके बिस्तर भी अलग होते। लेकिन उनके दूसरे हल्के-फुल्के कामों को करने से दादी को कोई प्रॉब्लम न थीं। आज स्नेहा ने दादी से बात करने का मन बना ही लिया, आखिर वह और निहाल भी टीनएजर थे और उन्हें इस दोहरे रवैये को जानने का पूरा अधिकार भी था।

स्नेहा तो अपने मुश्किल वक़्त में पूरा आराम करती, उसके रूटीन से तो कोई अंतर नहीं आता था घर में पढ़ी लिखी दादी का मम्मी के साथ अछूतों वाला व्यवहार उसके मन को बहुत कचोटता। निहाल भी नाइंथ क्लास में था और सब समझता था पर दादी, उनसे तो बाबा और पापा भी कुछ नहीं कहते। अक्सर अपना काम खुद कर लेते।

आज दोनों बच्चे मोर्चे पर डट गए अपनी मां के लिए। दादी भी आज फुरसत में थीं, तो बैठ गईं उनकी उलझन सुलझाने।

"दादी, आपका न ये मम्मी या मेरे साथ आउटडेटेड बिहेवियर मुझे पसंद नहीं। हमारे ज्यादातर दोस्तों के घर में ऐसे कोई नहीं करता। मुझे आपकी इन सब बातों की वजह से बहुत टेंशन होती है।"

"हां बेटा, मैं अपनी आदत से मजबूर हूं।"

"दादी क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि आपको आज के हिसाब से चलना चाहिए?" निहाल ने पूछा।

"बिल्कुल भी नहीं" रमा जी ने शान्ति से उत्तर दिया।

"स्नेहा तू बता, जब तेरी तबीयत खराब होती है तो तुझे सब चीज़ें बेड पर क्यों चाहिए होती हैं?"

"वो दादी मुझे पीरियड्स क्रैम्प्स होते हैं तो उठने का मन ही नहीं होता।"

"बिल्कुल सही, जितनी तकलीफ़ तुझे होती है उतनी ही तेरी मां को भी तो होती है न बेटा? पहले औरत के हिस्से में कोई छुट्टी नहीं होती थी, तो बड़े बूढ़ों ने उसे इस मुश्किल समय में आराम देने के लिए कुछ दिनों का नियम बनाया ताकि वह भी तकलीफ़ के वक्त में आराम कर पाए। उस समय या तो घर की दूसरी महिलाएं खाना बनातीं थीं या फिर तेरे दादा जी या पापा अपने लिए ख़ुद ही बना लेते थे। यह एक व्यवस्था थी जिससे घर के मर्द भी खाना बनाना जानें और हम महिलाओं को दो दिन अपने तरीके से आराम का मौका मिल जाए।"

अब स्नेहा और निहाल की आंखे आश्चर्य से चौड़ी हो गईं, उन्हें थोड़ी थोड़ी बात दादी की समझ आ रही थी।

"पहले लोग नदी में नहाते थे तो पानी गंदा न हो और बिस्तर कम गंदे हों इसलिए अलग रखने के नियम थे। और रही बात पूजा पाठ की, तो सिर्फ भगवान की मूर्ति या पूजा की चीज़ें ही छूने को मना करती हूं, बाकी सब नहीं। इस बहाने तेरी मां को थोड़ा आराम मिल जाता है। बेटा ये सारे नियम स्वच्छता और आराम के लिए आयुर्वेद में बनाए गए थे। ये कोई तकलीफ़ नहीं मुझे पता है, पर इस समय जो हार्मोनल बदलाव होते हैं उन्हें थोड़े आराम और परवाह की जरूरत है।"

अब स्नेहा और निहाल को दादी की बातों को सुनने में मज़ा आने लगा था।

"लेकिन दादी ये लड़कियों को सच में प्रॉब्लम होती है या ऐसे ही?" उसने स्नेहा की तरफ चिढ़ाते हुए कहा।

"बेटा रॉ मैटेरियल तो बॉडी से ही लेती है न ये प्रोसेस? तो जब कोई चीज़ कम होगी तो उसे रिकवर होने को भी तो समय चाहिए।"

"दादी रिकवरी कैसे होती है?" स्नेहा ने पूछा।

"बस पौष्टिक खाने से, जो तुम सब नापसंद करते हो। अगर खून आप के लिए ही नहीं होगा तो फेंकने को कहां से आयेगा?" रमा जी मुस्कुरा कर बोलीं।

"हम्म तो ये बात है!"

"जब आप अपना आठ या नौ किलो का स्कूल बैग उठाते हो तो थकते हो कि नहीं?"

"हां दादी, छुट्टी होने तक तो हिम्मत नहीं बचती।"

"ये सब तेरी दीदी तकलीफ़ में भी करती है।"

"ओहह!" निहाल थोड़ा भावुक होकर बोला।

"और क्या इतना ही वजन अपने साथ एक होने वाली मां लगभग नौ माह अपनी सन्तान के लिए सहती है। बेटा गलत वो लोग होते हैं जो फ़िज़ूल की हाय तौबा मचाते हैं, मैं तो ये सब बिल्कुल भी पसंद नहीं करती। अब अगर मैं दो तीन दिन तुम्हारी मां को आराम देकर गलत करती हूं तो नहीं करूंगी" रमाजी ने थोड़ा दुःखी चेहरा बना कर कहा।

"इस बहाने मेरे भी हाथ पांव थोड़ा चल जाते हैं और तुम्हारी मम्मी को मेरे हाथों का खाना मिल जाता है। जो अकेले रहते हैं तो उन्हें खुद काम करने की मजबूरी होती है। बिस्तर को अलग रखने को मैं हाईजीन और ठीक से आराम कर पाओ इस लिए बोलती हूं, एक या दो दिन बाद तो धुल ही जाता है न।"

"अरे नहीं दादी" दोनों तपाक से बोले। "आप कितनी स्वीट हो, ये सब तो हमने कभी सोचा ही नहीं था। अब हम आपकी हेल्प बिना गुस्से के करेंगे।"

कुछ दिनों बाद रमा जी के साथ प्रिया भी सुखद आश्चर्य से भर गईं जब निहाल को स्नेहा का बैग खुद बस से उतार कर घर के अंदर लाते देखा।

देखा दादी अब मैं भी मातृशक्ति को आदर देना सीख गया और रमा जी के हाथ आशीर्वाद की मुद्रा में ऊपर उठ गए।



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