लघुकथा
लघुकथा
विज्ञापन - नन्हे-नन्हे चमकीले तारे
टीवी की स्क्रीन पर आँखें गढ़ाये सुनीति विज्ञापन देख रही थी…
“अगर आपकी इच्छा के बगैर कोई आपको छूता है तो यहाँ फ़ोन करें !"
“मेरी बस का कंडक्टर मुझे छूता है !"
“मेरे मामा मेरे साथ गन्दी हरक़तें करते हैं और कहते हैं कि तुम्हारी मम्मी की सहमती से ही हो रहा है।"
छि ! अनचाही बूँदें आँखों से छलक गालों तक ढुलक आयीं।
ज़माना कितना ही बदल जाए, कुछ बातें हर दौर में वैसी ही रहती हैं, शायद !
उसकी नज़रों के सामने उसका ख़ुद का बचपन चलचित्र की भांति चलायमान था|
“सुनीति बेटा ! ज़रा ये मिठाई ऊपर वाली बड़ी अम्मा जी के यहाँ दे आ।"
कपड़े धोते - धोते माँ रसोई में आयीं और किसी शादी में मिली मिठाई एक छोटी प्लेट में डालकर रुमाल से ढकती हुई बोली थीं। नादान, घुम्मकड़ छुटकी - सी सुनीति ठुमकती हुई ऊपर पहुँची परन्तु बड़ी अम्मा जी तो दिखाई नहीं दीं। चाचा जी थे, झट गोदी में उठाकर बोले - लाओ मैं ले लेता हूँ मिठाई।
बदन में झुरझुरी - सी छूटी और नन्ही सुनीति हिचकिचाहट में गोदी से उतर भागी, सीढ़ियाँ उतर कर ही चैन की साँस ली। वो दिन और आज का दिन, चाहे कोई बहाना बनाना पड़े, वो फिर कभी अकेले ‘ऊपर’ नहीं गयी।
पाँच साल की बच्ची सिहर गयी थी उस अजीब, शरीर में गड़ती हुई छुअन से। तब से पहले मम्मी ने, कभी पापा ने, दीदी ने, भाई ने निहालाते हुए, गोदी उठाते हुए छुआ था किन्तु इस तरह अजीब कभी नहीं लगा था। नहीं पता था, यह क्या था ? पर इतना तो लगा कि कुछ ग़लत हुआ।
फ्रॉक से कब सलवार - कमीज़ पहनने वाली हो गयी सुनीति, समय का पता ही नहीं चला ! एक बार कोशिश भी की थी माँ को बताने की, पर माँ तो ‘चाचा’ की तारीफ़ करते नहीं थकती थी, तो कहती भी किससे और कैसे ?
गर्मियों की छुट्टियों में नानी के घर जाने की उत्सुकता के बीच भी सुनीति डरी - सी रहती। ख़ुशी की चहक में कहीं एक अन्जाना डर भी रहता था। यहाँ - वहाँ, अड़ोस - पड़ोस के सभी बच्चे छत पर खेलने जाते और रात में वहीं खुले आसमां के नीचे सभी बच्चे - बड़े बिस्तर बिछा कर सोते। रात के गहरे अँधेरे में अचानक एक हाथ आता और उसे अपने लड़की होने का भद्दा एहसास कराता। किन्तु रात का सन्नाटा उसे अपनी सिसकी को निगल, आँखें और ज़ोर से भींच लेने को बाध्य कर देता और दिन ! दिन का उजाला ‘उससे’ नज़रें चुराकर, झुका के चलने को।
माँ से जब ‘चाचा’ के बारे में कह नहीं पाई तो वहाँ ननिहाल में क्या बताती जहाँ सब ‘अपने’ ही थे !
एक दुस्वप्न - सा अतीत आज सुनीति के गले में अटक रहा है और वह टेलीविज़न के सामाजिक सरोकार के विज्ञापन में बोलते हुए उन नन्हे बच्चों में स्वयं को देख रही थी। ये सरकारी एजेंसियाँ तब कहाँ थीं मदद के हाथ के साथ जब लाज, शर्म का पहरा और शीई.ईश.श...!
मुंह पर चुप्पी की टेप लगानी पड़ती थी। एक उबकाई - सी आई पर अचानक डोर - बेल बज उठी - ट्रिन ट्रिन...।
सुनीति की तन्द्रा टूटी। अपने गर्भ में पल रहे शिशु को सहलाने उसके हाथ पहुँच गए। वह लम्बी साँस लेते हुए उठी, आशीष के आने का समय था – वो ऑफिस से आ गए। सोच में खोई सुनीति के पाँव स्वत: ही रसोईघर की ओर बढ़ चले, चाय - नाश्ते के लिए।
उसी हालत में आशीष के साथ यंत्रवत - सी चाय पीती वह अब भी खोई - खोई थी।
आशीष पूछ ही बैठे – क्या हुआ ? कोई परेशानी ?
सुनीति झटके से सीधे बैठते हुए बोली - नहीं तो !
विवाह के दो बरस हो गए थे। आशीष इतना तो समझते थे कि कुछ तो है। वो बोले - किसी ने कुछ कहा क्या ?
सुनीति फूट पड़ी - “कौन देता है अधिकार बिना उनकी इच्छा के बच्चों के शरीर को अपनी गन्दी सोच से मैला करने का, उनके कोमल मन को आहत, आतंकित करने का ! क्यूँ ये इंसान इंसान नहीं रहते, पशु बन जाते हैं ? क्या ये छोटे - छोटे बच्चे ख़ासकर लड़कियाँ सच में फ़ोन कर सकते हैं अपनी परेशानी बताने को, क्या कोई इनकी बात सुनेगा, कोई इनकी हालत समझेगा ?
कौनसे बच्चे, क्या हालत ? हमारा बच्चा तो अभी इस दुनिया में आया भी नहीं। सुनीति तुम किस बच्चे की बात कर रही हो ? -आशीष ने पूछा।
“क्या तुम तब ही कुछ करोगे जब तुम्हारे अपने बच्चे के साथ कुछ होगा ? आखिर आज के समाज को हो क्या गया है जो दूसरे की समस्या को अपनी समस्या नहीं समझता, और यह तो वह समस्या है जो हमारे समाज को जोंक की तरह खाए जा रही है, बचपन को ख़त्म किए जा रही है...”
सुनीति लगातार बोलती जा रही थी।
“पर ! सुनीति मुझे कुछ समझ तो आये कि किसका बचपन छिन गया, समाज पर कौनसा पहाड़ टूट पड़ा| लगता है तुम्हारे अन्दर की समाजसेविका फिर जाग गयी है| याद है, तुम्हे पिछली बार हमने सड़क पर पड़े घायल आदमी की मदद की थी तो अस्पताल वालों ने उसकी मरहम-पट्टी करने से भी मना कर दिया था और कहा था कि जब तक पुलिस नहीं आयेगी तब तक हम हाथ भी नहीं लगायेंगे| फिर तुमने पुलिस ही बुलवा ली थी, उसके बाद पुलिस ने थाने के कितने चक्कर लगवाए थे, मेरी तो नौकरी जाते-जाते बची थी।"
“उस इंसान की जान तो बच गयी थी !” - सुनीति ने तपाक से ऐसे कहा जैसे हर बात का जवाब वो पहले से ही सोच कर बैठी थी और आशीष उसके चेहरे की तरफ देखता रह गया| उसे समझ आ गया था कि सुनीति अब किसी की सुनने वाली नहीं और जो वो सोच रही है कर के ही मानेगी|
“फिर भी सुनीति तुम अपनी हालत तो देखो, क्या इस परिस्थिति में तुम्हे इतना तनाव लेना सही लगता है ?”
पर सुनीति कहाँ कुछ सुन रही थी, वो तो लगातार बुदबुदाती जा रही थी|
आशीष ने सुनीति की बुदबुदाहट को ध्यान से सुनने की कोशिश की| थोड़ी कोशिश करने पर यही कि
"कोई घर का, आस-पड़ोस का, कोई बहुत ही अपना, जाना-पहचाना व्यक्ति इन बच्चों का शारीरिक शोषण कर रहा है, इनके स्वाभिमान के नाज़ुक शीशे पर भद्दी लकीरें डाल रहा है जो शरीर के साथ-साथ इनके दीमाग में ज़्यादा गहरी हो रहेंगी...” - सुनीति अपनी रौ में बोलती जा रही थी|
पर कोई ‘अपना’ ही कैसे बालमन को ठेस पहुँचाना चाहेगा, क्यों उनके कोमल शरीर से छेड़छाड़ करेगा ?
आपको नहीं मालूम, आशीष किन परिस्थितियों से गुज़रना पड़ता है, अपनी माँ तक से कुछ कहना भी असंभव सा हो जाता है| ‘अपनों’ की ये छुअन परायों की गाली से भी बदत्तर अनुभव होती है| और तो और चुपचाप सहने और स्वयं में सिकुड़ने के अतिरिक्त कोई चारा नज़र नहीं आता|
चाय पीते-पीते आशीष किसी गहरी सोच में था। उसके पास सुनीति के द्वारा दिए गए तथ्यों का सच में कोई जवाब नहीं था, साथ ही उसे ये अभी भी लग रहा था कि सुनीति को इस पचड़े में नहीं पड़ना चाहिए| ये सोचते-सोचते वो अपने अतीत में जाता जा रहा था क्योकि कुछ उसे भी अन्दर से झंझोड़ रहा था| वो समझ नहीं पा रहा था ऐसा क्या है जो उसे शांत नहीं होने दे रहा| काफ़ी देर अपने अतीत को खंगालने के बाद, उसे याद आई वो बात जब वो ख़ुद भी पड़ोस के एक अंकल के द्वारा शारीरिक शोषण का शिकार होते-होते बचा था| उसने तो उन अंकल के खिलाफ़ आवाज़ भी उठाई थी और उसके पिता ने बात समझ कर उन अंकल को लताड़ भी लगाई थी| उसके बाद बात आई-गई हो गयी थी पर आज वो नज़ारा उसकी आँखों के चलचित्र की तरह चल रहा था | आशीष अब सोच रहा था कि अगर उसके पिता ने ध्यान नहीं दिया होता तो क्या होता और यह सोचते-सोचते उसकी आँखों के सामने से छाई धुंध अब हटने लगी थी | अब सुनीति की बात उसे समझ आने चाय का कप रख, सोफे से उठ आशीष सुनीति के पास आ गये, उसके कंधे दबाए, हाथ थाम कर बोले – समझता हूँ मैं पर जब एक अच्छी पहल हुई है तो उसका अंजाम भी अच्छा ही होगा| आज के बच्चे मोबाइल का इस्तेमाल हम से जल्दी और बेहतर जान जाते हैं| अगर वे आवश्यकता समझेंगे तो ज़रूर उसकी ख़बर भी इन एजेंसीज़ तक पहुंचेगी| न होने से कुछ होना तो अच्छा है|
बस ज़रुरत है कि उनके अपने भी उनके मौन को सुने, उनके सहमे चेहरों पर डर की छाया को देख पायें| इस भाग-दौड़ की ज़िन्दगी में अपने बच्चों को भी समय दें, उनके दोस्त बने... घर में ऐसा वातावरण दें कि बच्चें उनके साथ खुल के बात कर सकें| और फिर आज के बच्चे हमारी-तुम्हारी तरह चुप बैठने वाले नहीं, सुनीति| ‘जेट–एज’ के बच्चे अपना अच्छा, बुरा जल्दी समझ जाते हैं| माना कि कुछ लोग नहीं बदलते, उनकी हैवानी फ़ितरत नहीं बदलती, छोटी हो या बड़ी उम्र, बड़े-बूढ़े भी ग़लत हरक़तों से बाज़ नहीं आते किन्तु सकारात्मक सोच रख आशा के दीप जलाना है, रोशनी होगी, तम छटेगा ही|
सुनीति की गीली आँखों में भी एक नई चमक थी और अपने भीतर पलती नयी जान को सहलाते हुए वह बालकनी में आ गई| मूसलाधार बारिश के बाद अब आसमान साफ़ हो गया था, काले बादल छंट गए थे...नन्हे-नन्हे चमकीले तारे यहाँ-वहाँ बच्चों-सी खिलखिलाहट लिए आसमानी मैदान में आँख-मिचौनी खेलने निकल आये थे...।