मैं....
मैं....
इंसानियत की बस्ती जल रही थी, चारों तरफ आग लगी थी... जहाँ तक नजर जाती थी, सिर्फ खून में सनी लाशें दिख रही थी, लोग जो जिंदा थे वो खौफ़ में यहाँ से वहां भाग रहे थे, काले रास्तों पर खून की धार बह रही थी, हर तरफ आग से उठता धुआँ.. चारों और शोर, बच्चे, बूढ़े, औरत... किसी में फर्क नही किया जा रहा, सबको काट रहे है, लोग अंधे हो चुके दहशत में छुपे इन चेहरों में, कोई अपने दोस्त... यार को नही पहचानता सिर्फ एक ही नारा लग रहा था... मेरा धर्म... मेरा मज़हब
एक तरफ मंदिर जल रहा है... तो एक तरफ मस्जिद जल रहा है... मगर बीच में जलती इंसानियत की शायद किसी को नही पड़ी... सैंकड़ो लाशें, कई सौ घर बर्बाद हो गये, कितने अपने बच्चों से तो कितने लाचार बूढ़े अपने घरों से बिछड़ गये, मगर फिर भी इंसानियत नही जगी तब की ये बात है... जब जब दंगों के नाम पर इंसानियत जली....
ऐसे दिल दहला देने वाले माहौल में... मैं गली से इंसानियत को बचाने जा रहा था, तभी मैंने एक हिन्दू और एक मुस्लिम दोस्त को आपस मे झगड़ते देखा जो कभी जिगरी दोस्त कहलाते थे... आज एक दूसरे की जान सिर्फ इस लिए लेना चाहते थे क्योंकि उनका मज़हब, उनका धर्म अलग है...
जब दोनों आपस में एक दूसरे काटने जा रहे थे तब मैंने कहा....
आखिर क्यों हम लड़ें, क्या सिर्फ धर्म और मज़हब सबकुछ है इंसानियत कुछ नही...
दोनो ने मुझे मारने की धमकी दी... मुझसे मेरा मज़हब पूछा...मैं ने इंसानियत को तब अपनी आँखों से बहता हुआ पाया... और जवाब दिया ना मैं हिन्दू हूँ ना मुसलमान... कोई धर्म नही मेरा मैं बस इंसान हूँ इंसानियत चाहता हूँ ... क्यों आखिर हम ऐसे लड़ें,
क्यों मैं हर दम मरता हु,
कही आतंकवादी हमलों में मरता हूँ ,
कभी जातिवाद में... मैं मरता हूँ,
कही दंगे फसाद में... मैं मरता हूँ,
कही गरीबी में, कभी औरतों की चीखों में... सरहद पर जाती हर उस जान की निकलती आहहह... में, क्यों हर दम मैं क्यों मरता हूँ...
पीछे मुड़ के देखो कभी किसे काटा हमने हिन्दू को, मुसलमान को, देश को... आतंकवाद को, जातिवाद को हमने हमेशा इंसानियत को काटा है...
कब तक मज़हब और धर्म के चक्कर में ... मैं मरूं,
कब तक जात के नाम पर मैं बली चढ़ूँ,
कब तक सरहद के नाम पर मैं बटु
कब तक वासना के नाम पर मैं लुटु....
क्या इंसानियत का कोई मोल नही, क्या गीता मे पांच लोगों का मारना लिखा है... क्या क़ुरान में पांच लोगों को मारना लिखा है...
तब दोनो हिन्दू और मुसलमान भाई ने अपने हथियार नीचे डाल दिये... मगर मातम नही रुका, हथियार हाथों से गिरते ही आँखों में बस आँसू थे... मगर होश में आते ही लोगो की चीख और खून में सनी लाशें देख आँखों के अंगारों को ये आँसू भी नही ठंडा कर पा रहे थे...
तब इंसानियत ने सिर्फ इतना कहा....
इंसान से धर्म नही... इंसान से कोई मज़हब नहीं
धर्म से इंसान बनो... मज़हब से इंसान बनो...
खून से रिश्तों को जोड़ो, जात से नाता तोड़ो... तब ये अंगार बुझेंगे आँखों से तब इंसानियत नही ममता के आँसू टपकेंगे....