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वैधव्य की पीड़ा

वैधव्य की पीड़ा

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"इस फार्म पर किसी गेज़ेटेड आफ़ीसर के दस्तख़त करवा के लाइये।", बेटी के ग्यारहवीं में एडमिशन के लिए उसे साथ ले कर नये स्कूल में गयी थी माधवी।

दूसरे दिन इतवार था। दोनों बच्चों को घर में छोड़ वह अकेली ही तपती गर्मी में अपने चचेरे भाई रोहन के घर चली गई।

"बैठो दीदी....तुम्हारे भाई अभी आफ़िस के लोगों से बात कर रहे हैं।", उसके तपते तन को ठंडा पानी देने की जगह भाभी ने रूख़ा बोल परोस दिया।

"बस ...भाभी मुझे अनुष्का के फ़ार्म पर....",

"उन्होने बीच में डिस्टर्ब करने को मना किया है।"

दो घंटे इन्तज़ार करने के बाद वह निराश सी उठ खड़ी हुई। कब तक इन्तज़ार करे।

"ठीक है भाभी मैं चलती हूं....कल सुबह आऊंगी कल स्कूल में फ़ार्म जमा करना है।"

दरवाज़े तक छोड़ने आई भाभी उसके निकलते ही बगल वाली पड़ोसिन से बतियाने लगी थीं, "अरे कहने को तो चचेरी बहिन हैं पर अभी आदमी को मरे छह महीने नहीं बीते यहां के दसियों चक्कर लगा चुकी हैं...कभी अकाउन्ट खुलवाना है, तो कभी पैन्शन का काम है, हर रोज़ नया बहाना ले कर आ जाती है।"

एक तपते हुए लू के थपेड़े ने उसे झुलसा दिया था।


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