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Mahavir Uttranchali

Classics

5.0  

Mahavir Uttranchali

Classics

मुलाक़ात

मुलाक़ात

5 mins
385


"याद रख सिकंदर के, हौसले तो आली थे,
जब गया वो दुनिया से, दोनों हाथ ख़ाली थे।"

शमशान के द्वार पर एक पागल फ़क़ीर ऊँचे सुर में चिल्ला रहा था। शव के साथ आये लोगों ने उस पागल की बात पर कोई विशेष ध्यान न दिया; क्योंकि शमशान में यह आम बात थी। अभी-अभी जिसका शव शमशान में लाया गया था, वह शहर के सबसे बड़े अमीर व्यक्ति सेठ द्वारकानाथ थे। पृष्ठभूमि पर नाते-रिश्तेदारों का हल्का-हल्का विलाप ज़ारी था, लेकिन उनमे अधिकांश ऐसे थे, जो सोच रहे थे—द्वारकानाथ की मृत्यु के बाद अब उनकी कम्पनियों का क्या होगा? बँटवारे के बाद उन सबके हिस्से में कितना-कितना, क्या-क्या आएगा? शहर के अनेकों व्यवसायी महंगे परिधानों में वहाँ जमा थे। उन्हें समझ नहीं आ रहा था—क्या करें? क्या कहें? वह सिर्फ़ द्वारकानाथ से जुड़े नफ़े-नुक़सान की बदौलत वहाँ खड़े थे। शमशान में भी उन्हें शोक करने से ज़ियादा आनंद अपने बिजनेस की बातों में आ रहा था।

"और मेहरा साहब क्या हाल हैं? आपका बिजनेस कैसा चल रहा है।" सूट-बूट और टाई पहने व्यक्ति ने अपने परिचित को देखते हुए कहा।

"अरे यार वर्मा क्या बताऊँ?" मेहरा साहब धीरे से बोले ताकि अन्य लोग न सुन लें, "द्वारकानाथ दो घण्टे और ज़िंदा रह जाते तो स्टील का टेण्डर हमारी कम्पनी को ही मिलता, उनके आकस्मिक निधन से करोड़ों का नुक्सान हो गया!"

"कब तक चलेगा द्वारकानाथ जी के अंतिम संस्कार का कार्यक्रम?" मेहरा से थोड़ी दूरी पर खड़े दो अन्य व्यक्तियों में से एक ने ज़ुबान खोली, "मेरी फ्लाइट का वक़्त हो रहा है।"

"यह तो आज पूरा दिन चलेगा। शहर के अभी कई अन्य गणमान्य व्यक्ति, राजनेता भी आने बाक़ी हैं। सेठ द्वारकानाथ कोई छोटी-मोटी हस्ती थोड़े थे। उनका कारोबार देश-विदेश में काफ़ी बड़े दायरे में फैला हुआ है। जैसे अंग्रेज़ों के लिए कहा जाता था कि उनका सूरज कभी डूबता ही नहीं था। ठीक द्वारकानाथ जी भी ऐसे ही थे।" दूसरे व्यक्ति ने विस्तार से अपना पक्ष रखा।

"बंद करो यार ये द्वारकानाथ पुराण।" तीसरे व्यक्ति ने बीच में प्रवेश करते हुए कहा, "सबको पता है द्वारकानाथ, बिजनेस का पर्यायवाची थे। खाते-पीते, सोते-जागते, उठते-बैठते, नहाते-धोते हर वक़्त बिजनेस का प्रचार-प्रसार, नफ़ा-नुक़सान ही उनकी ज़िन्दगी थी। शेयर बाज़ार की गिरती-बढ़ती हर हलचल उनके मोबाइल से लेकर लेपटॉप तक में दर्ज़ होती थी।"

"यार मुझे तो फ्लाइट पकड़नी है, और यात्रा के लिए सामान भी पैक करना है।" पहला व्यक्ति बड़ा बेक़रार था।

"अरे यार चुपके से निकल जाओ। तुमने हाज़री तो लगवा ही दी है। अब यहाँ खड़े-खड़े मुखाग्नि थोड़े दोगे। फिर द्वारकानाथ कौन-सा किसी के सुख-दुःख में शामिल होता था। शायद ही पिछले तीन दशकों में कोई लम्हा बीता होगा। जब द्वारकानाथ जी ने अपने लिए जिया हो।" तीसरे व्यक्ति ने कहा।

"बंद करो ये बकवास। तुम यहाँ मातम मनाने आये हो या गपशप करने। शर्मा जी, हमको और आपको भी जाना है, एक दिन वहाँ।" चौथे व्यक्ति ने तीसरे व्यक्ति से कहा। और बातचीत में मौजूद तीनों व्यक्ति शर्मिदा होकर चुपचाप खड़े हो गए।

शमशान में इस वक़्त लगभग दर्जन भर चिताएँ जल रही थी। चाण्डालों को मुर्दे फूँकने से फुरसत नहीं थी। जिनके मुर्दे जल चुके थे, वो लोग वापिस जा रहे थे, तो कुछ लाशें जलने के लिए तैयार की जा रही थीं। श्मशान में मौजूद पण्डित अन्तिम क्रिया-कलापों को करवाने में सहयोग कर रहे थे। द्वारकानाथ जी की चिता जहाँ तैयार की जा रही थी, उनसे कुछ दूरी पर ही किसी अन्य वी.आई.पी. की चिता भी जल रही थी! उस चिता के साथ आये कुछ लोग भी बातों में व्यस्त थे। उनमें से ही दो लोग बातें कर रहे थे।

"जानते हो राधेश्याम, मृतक गुप्ता जी बड़े बदनसीब आदमी निकले!"

"कैसे माधव भइया?" राधेश्याम बोला।

"गुप्ता जी के लड़के जीवित हैं, मगर अमेरिका रहते हैं।" माधव ने निराशा भाव से कहा।

"ओह! इसलिए नहीं आ पाए, पिता जी की अंत्येष्टि करने।" राधेश्याम ने अफ़्सोस जाहिर किया।

"नहीं ऐसी बात नहीं है! उनके लड़कों को एक हफ़्ते पहले बता दिया गया था कि आ जाओ गुप्ता जी कोमा में हैं कभी भी दम तोड़ सकते हैं!" माधव के स्वर में वही निराशा भाव व्याप्त था।

"अच्छा तो फिर!"

"वो नहीं आये! पड़ोस के लोगों को कह दिया कि आप लोग ही मिलकर उनके पिताजी का अन्तिम संस्कार कर दें, जो भी खर्चा होगा आनलाइन दे देंगे! उनका प्रमोशन पीरियड चल रहा है।"

"ओह, तो इस तरह चन्दे के पैसे से मुर्दा जल रहा है!"

"लानत है ऐसी औलाद पर! जिस बाप ने कष्ट सहके अपनी औलाद को इस क़ाबिल बनाया कि वो विदेशों में जाकर कमाई कर सके! उसकी मौत पर भी वो छुट्टी लेकर न आ सके!" माधव के भीतर की निराशा आक्रोश में बदल गई।

"छोड़ो न माधव भाई! शायद गुप्ता जी के लड़कों ने ठीक किया, अगर अमेरिका में बैठकर वो ये सब सोचेंगे तो जीवन की दौड़ में पीछे रह जायेंगे। क्या ज़रूरी है अंत्येष्टि पुत्र के हाथों ही हो? बी प्रेक्टिकल! टेक इट इज़ी!" राधेश्याम ने सान्त्वना देते हुए अपना दृष्टिकोण रखा, "जब परिवार टूट रहे हैं! रिश्ते टूट रहे हैं! तो ये सब परम्पराएँ ढोने और निभाने का कोई औचित्य नहीं रहा जाता, मरने वाला मर गया। उसे जलाओ, मत जलाओ। उसे सड़ने के लिए छोड़ दो। कहीं गड्ढे-नाले में फेंक दो। जानवरों को देखा है, मरने के बाद उनकी अंत्येष्टि कौन करता है?" राधेश्याम ने माधव से प्रश्न किया।

"तो क्या हम सब जानवर होते जा रहे हैं?" माधव ने राधे की और देखते हुए कहा।

अभी राधे माधव से कुछ कहता कि ऊँचे रोने के स्वर को सुनकर वह रुक गया।

"हाय! हाय! हम अनाथ हो गए।" द्वारकानाथ का एक नौकर पंचम सुर में दहाड़ें मारकर बोला। बाक़ी घर के चार-छह अन्य नौकर भी ऊँचे सुर में अपनी छाती पीटते हुए रोते हुए उससे सहमति दर्शाने लगे।

"हमें कौन देखेगा? सेठजी हमारे पिता की तरह थे।" उस नौकर का बिलाप ज़ारी था।

"हाय! हाय! सेठ जी! हाय! हाय! क्यों चले गए आप? काश, आपकी जगह हमें मौत आ जाती।" दूसरे नौकर ने कहा।

"सेठ द्वारकानाथ जी, उठिए न। आज तो आपको और भी कई महत्वपूर्ण डील फ़ाइनल करनी हैं। हमारी कम्पनियों को आज और भी करोड़ों रुपयों का मुनाफ़ा होना है।" सूट-बूट में खड़े व्यक्ति ने द्वारकानाथ के शव से कफ़न हटाते हुए कहा। शायद वह उनका निजी सचिव या कोई मैनेजर था। उनका चिर-निद्रा में सोया हुआ चेहरा, ऐसा जान पड़ रहा था जैसे, अभी उठ खड़े होंगे।

"आख़िर मिल ही गया मुलाक़ात का वक़्त तुम्हे, मेरे अज़ीज़ दोस्त!" एक व्यक्ति जो द्वारकानाथ के शव के सबसे निकट खड़ा था। यकायक बोला।

"आप कौन हैं?" मैनेजर ने उस अनजान व्यक्ति से पूछा।

"आप मुझे नहीं जानते, लेकिन द्वारकानाथ मुझे तब से जानता था, जब वह पांचवी क्लास में मेरे साथ पढता था।" उस व्यक्ति ने बड़े धैर्य से कहा।

"लेकिन आपको तो कभी मैंने देखा नहीं! न ही सेठजी ने कभी आपका ज़िक्र किया!" मैनेजर ने कहा।

"वक़्त ही कहाँ था, द्वारकानाथ के पास? मैंने जब भी उससे मुलाक़ात के लिए वक़्त माँगा। वह कभी फ़्लाइट पकड़ रहा होता था। या किसी मीटिंग में व्यस्त होता था। मैं उसे पिछले तीस बरसों से मिलना चाहता था!" उस व्यक्ति ने कहा, "और विडंबना देखिये आज मुलाक़ात हुई भी तो किस हाल में! जब न तो द्वारकानाथ ही मुझसे कुछ कह सकता है! और न ही मैं द्वारकानाथ को कुछ सुना सकता हूँ।"

इस बीच न जाने कहाँ से पागल फ़क़ीर भी द्वारकानाथ के शव के पास ही पहुँच गया था। वह कफ़न को टटोलने लगा और शव को हिलाने-डुलाने लगा।

"ऐ क्या करते हो?" द्वारकानाथ के नौकरों ने पागल फ़क़ीर को पकड़ते हुए कहा।

"सुना है यह सेठ बहुत अमीर आदमी था।" पागल फ़क़ीर ने कहा।

"था तो तेरे बाप का क्या?" मैनेजर ने कड़क कर कहा।

"मैं देखना चाहता हूँ। जिस दौलत के पीछे यह ज़िंदगी भर भागता रहा। अंत समय में आज यह कफ़न में लपेटकर क्या ले जा रहा है? हा हा हा …" पागल फ़क़ीर तेज़ी से हंसने लगा।

"अरे कोई इस पागल को ले जाओ।" मैनेजर चिल्लाया।

"नौकर-चाकर छोड़ के, चले द्वारकानाथ।
दाता के दरबार में, पहुँचे ख़ाली हाथ।।"

पागल फ़क़ीर ने ऊँचे सुर में दोहा पढ़ा। भूतकाल में शायद वह कोई कवि था क्योंकि दोहे के चारों चरणों की मात्राएँ पूर्ण थीं। नौकरों ने अपने हाथों की पकड़ को ढीला किया और फ़क़ीर को छोड़ दिया। साथ ही सब पीछे को हट गए। वह कविनुमा पागल फ़क़ीर अपनी धुन में अपनी राह हो लिया।

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