अपनापन
अपनापन
सौदामनी परेशान थीं। पड़ोस की मधुमिता बहन के बेटे की शादी थी। आने वाली बहु को मुँह दिखाई में देने के लिए कोई उपहार सूझ ही नहीं रहा था। पहले की बात होती तो झट से बाजार जा कर कुछ भी अच्छा सा खरीद लातीं। पूरे मोहल्ले में सबसे अच्छा उपहार उन्ही का होता। पर वर्ष पहले पति की लम्बी बीमारी के बाद मृत्यु के पश्चात सारी जमा पूँजी खर्च हो जाने पर, वो छोटी सी पेंशन में कैसे जीवन निर्वाह कर रही थी ये अपने आप में मितव्यवता पर शोध का विषय था।
कई बार लोग उन्हें सुझाव दे चुके थे की अपना मकान बेच कर वह किसी छोटे फ्लैट में चली जाएँ। ये मकान कम से कम दो करोड़ का बिकता जबकि उन अकेली के लिए तो बीस पच्चीस लाख का फ्लैट भी रहने के लिए काफी होता। फिर उन्हें कोई आर्थिक तंगी नहीं होती।
पर सौदामनी विवाह के बाद से यहीं रहती आयी थी। पड़ोस और पड़ोसियों से अपनापन हो गया था। अपनी स्वयं की तो संतान हुयी नहीं थी सो पड़ोसियों के बच्चों के जन्मदिन से ले कर विवाह समारोह तक सब में वो हमेशा आगे बढ़ बढ़ कर हिस्सा लेती रही थी। इसलिए उन्हें यहाँ से चले जाना मंजूर नहीं था।
बड़ी खोज बीन के बाद उन्हें पलंग के अंदर एक साड़ी दिखी। दो साल पहले स्वर्गीय पति उनके लिए कोलकत्ता से लाये थे। कम से कम दो एक हजार की रही होगी। पैकिंग थोड़ी ख़राब थी पर साड़ी तो जस की तस थी न। रंग भी अच्छा चटक था। नई नवेली बहु पर खूब फबेगी सोच, हमेशा की तरह उन्होंने इस शादी में भी बढ़ चढ़ कर शिरकत की और मुंह दिखाई पर वो साड़ी भेंट कर दी। अपने निर्णय से वो प्रसन्न थी और इस प्रसंग को भूल ही चुकी थी पर एक हफ्ते बाद मधुमिता बहन की कामवाली को उस साड़ी में लिपटा देख मानो उनकी आँखों पर पड़ा पर्दा हट गया। पड़ोसनों का उन से कतराना, बाकी मेहमानो की तुलना में उन पर कम ध्यान देना। अब सब कुछ साफ़ दिखाई दे रहा था।
फिर तो आनन फानन में उन्होंने वो घर बेच दिया और एक अच्छे परिसर में फ्लैट ले लिया। अब भी इस मोहल्ले में आती रहती हैं शादी ब्याह में। अच्छे महंगे उपहार ले कर। एक बार फिर पडोसनें उन्हें घेरे रहती हैं और सब मेहमानों में सबसे अच्छी खातिर भी उन्ही की होती है।
न जाने क्यों पर इतनी खातिरदारी के बाद भी अब सौदामनी को मोहल्ले में किसी से भी कोई भी अपनापन नहीं लगता। ऐसा लगता है जैसे आस पास मानव समुद्र हो और उन सब के बीच वो बिलकुल अकेली।