वो कौन था ?
वो कौन था ?
सर्दी की बर्फीली हवाओं में श्रुति 60 किमी प्रति घन्टा की रफ्तार से स्कूटर चला रही थी। वो कभी इतना तेज़ स्कूटर नहीं चलाती थी पर आज उसे बस पकड़नी थी। आज श्रुति का यू.जी.सी का टेस्ट था और इसके लिये उसे दूसरे शहर जाना था। वैसे तो पापा ही उसे छोड़ने आ रहे थे पर अचानक दादीजी की तबियत खराब होने की वजह से उन्हें रुकना पड़ा। बहरहाल घबराहट और लेट होने के डर की वजह से उसे तो सर्दी महसूस ही नहीं हो रही थी। आखिर वो बस छूटने से पहले पहुँच ही गई।
जैसे ही वो पार्किंग पर स्कूटर लगा कर बस की तरफ भागी, बस स्टार्ट हो गई।
"हे भगवान! रोको ! बस रोको।"
बस के पीछे-पीछे भागते हुए वो चिल्ला रही थी। पर कंडक्टर और ड्राईवर किसी को कुछ खबर नहीं थी। बस में से लोग उसे देख रहे थे पर किसी ने परवाह नहीं की। अचानक पिछली सीट पर बैठे एक नौजवान से उसकी नज़रें मिली। श्रुति ने आँखों ही आँखों में उसे अपनी दयनीयता का एहसास दिलाया और उसने आगे बढ़कर बस रुकवा दी। श्रुति की खुशी का ठिकाना नहीं था। दरअसल पिछले छह महीनों से श्रुति यू.जी.सी के टेस्ट की तैयारी कर रही थी और इस बार उसे पूरी उम्मीद थी को वो परीक्षा पास कर लेगी। सार्थक ने बस रोक कर उसकी उम्मीद को टूटने से बचाया। बस के अन्दर कोई सीट नहीं थी पर सार्थक ने आगे बढ़कर अपनी सीट उसे ऑफ़र की।
"नहीं,आप प्लीज बैठिये।" श्रुति ने झिझकते हुए कहा। पर सार्थक नहीं बैठा। हल्की सी मुस्कान के साथ श्रुति बैठ गई।अगले स्टेशन पर श्रुति के साथ वाली सीट खाली हो गई और सार्थक उसके साथ बैठ गया। श्रुति को अजीब सा महसूस हो रहा था। उसके दिल में जैसे सितार बज रहे थे। पहली बार किसी अजनबी के साथ बैठकर उसे अपनापन सा लग रहा था। कितनी दफा उसने बस में सफर किया था। जवान, बूढ़े, बच्चे, महिलाएँ। किसी से ज्यादा बात नहीं करती थी पर आज उसका सार्थक के साथ बात करने का दिल कर रहा था। उसे जानने का दिल कर रहा था। उसे थैंकस् कहने का दिल कर रहा था।
अचानक सार्थक को किसी को फोनआया। "हाँ माँ,बस में बैठ गया हूँ। बस एक घन्टे में पहुँच जाऊँगा। हाँ, माँ, ऐडमिट कार्ड ले लिया है। बस टाइम पर पहुँचा देगी। आप फिक्र मत करो।"
सार्थक भी यू.जी.सी का टेस्ट देने जा रहा था। अब तो श्रुति से रहा नहीं गया। उसने पूछ ही लिया, "आप भी टेस्ट देने जा रहे हैं ?"
"हाँजी, आप भी ?" श्रुति ने हल्के से सिर हिलाया।
"आप कौन से सब्जेक्ट में ?" श्रुति को उससे बात करने का बहाना मिल गया।
"इक्नोमीक्स। और आप ?"
"इंग्लिश।"
बस बातें शुरु हो गई। जैसे-जैसे वो दोनों एक-दूसरे से बात कर रहे थे, श्रुति उसकी तरफ आकर्षित होती जा रही थी। उसकी हर चीज़ उसे अच्छी लग रही थी। श्रुति को हैरानगी भी हो रही थी कि कैसे वो एक अजनबी से इतना खुल कर बात कर रही थी। पर उसे लग ही नहीं रहा था कि वो अजनबी है। उस पर से उसकी नज़रें नहीं हट रही थी। दिल कर रहा था सारी जिंदगी इसी तरह सफर में गुजर जाये, सार्थक के साथ बातें करते-करते।
अचानक बस रुकी। उनका स्टेशन आ गया था। उनका टेस्ट का सेन्टर भी एक ही था। पैसे बचाने के लिए सार्थक ने उसे बोला, "एक ही आटो कर लेते हैं। एक ही जगह तो जाना है।" श्रुति को कोई दिक्कत नहीं थी।
आज पहली बार श्रुति को एहसास हो रहा था कि प्यार क्या होता है। वो बिना किसी रिश्ते के, बिना किसी वजह के उसकी तरफ खिंची चली जा रही थी। मन में एक ही सवाल था कि कि सार्थक के मन में भी उसके लिए कोई एहसास है कि नहीं। टेस्ट को लेकर उसकी सारी घबराहट छू-मन्तर हो गई थी। आखिर उनकी मंजिल आ गई। अलग-अलग सब्जेक्ट की वजह से उनका टेस्ट अलग-अलग बिल्डिंग में थे। सार्थक ने मुस्कुराकर उसे बाय कहा और अपनी मंजिल की तरफ चल दिया। श्रुति उससे कितना कुछ कहना चाहती थी।
***"टेस्ट के बाद फिर यहीं मिलेंगे।"
***"इकठ्ठे वापिस चले जायेंगे।"
***"मेरा इन्तजार करना।"
मगर ! एक स्त्री सुलभ झिझक और शर्म के चलते कुछ न कह पायी और एक प्यार भरी मुस्कान के साथ बाय बोलकर चली गई। मन में यह उम्मीद लेकर कि टेस्ट के बाद सार्थक उसे फिर मिलेगा तो उसका नंबर भी ले लेगी। टेस्ट देने का तो जैसा उसका मन ही नहीं था। बार-बार घड़ी देख रही थी कि जल्दी-जल्दी से टेस्ट खत्म हो और वो बाहर जाये। ऐसा पहले कभी उसने महसूस नहीं किया था। मन में एक बैचेनी सी थी की कहीं सार्थक चला ना जाये। जब वक़्त पूरा हुया तो जल्दी से टेस्ट देकर वो बाहर को भागी। सोचा कहीं तो सार्थक दिखेगा। सब अपना-अपना टेस्ट देकर बाहर निकल रहे थे पर श्रुति की नज़रें जिसे ढूँढ रही थी वो कहीं नहीं था।
अचानक श्रुति का फोन बजा,"हेलौ, हाँ पापा, हो गया टेस्ट, अच्छा हुआ, हाँजी आ रही हूँ।" बात तो वो पापा से कर रही थी पर उसके दिल और दिमाग में बस सार्थक छाया हुआ था।
"बेटा,जल्दी से बस स्टैंड पहुँच कर बस पकड़ लो। सर्दियों में अन्धेरा जल्दी हो जाता है।"
"हाँ पापा।" कहकर उसने फ़ोन काट दिया। सार्थक ने उसे इन्तजार करने को नहीं कहा था पर वो देखती रही। हर एक चेहरे को। जब तक सारा सेन्टर खाली नहीं हो गया वो नहीं हिली। सार्थक को वहाँ एक दोस्त मिल गया था और वो उसके साथ कब का जा चुका था।
आखिर श्रुति को भी वहाँ से जाना पड़ा। अकेले,एक अधूरेपन के साथ। जब आई थी तो कितनी खुश और उत्तेजना से भरी हुई थी। सार्थक के साथ बिताये थोड़े से लम्हों में उसने कितने जीवन जी लिए थे। मन ही मन कितने सपने सजा लिए थे। पर अब ? कहाँ मिलेगा वो उसे दोबारा ? क्या कभी मिलेगा भी कि नहीं ? काश मैं शर्म न करती और उसका नंबर ही ले लेती। पर ऐसे किसी का नंबर माँगना अच्छा लगता है क्या ? ऐसे ही सवालों और उलझनों में उलझी हुई वो बस स्टैंड पहुँच गई। बुझे से मन से बस में बैठी। एक आखिरी उम्मीद के चलते उसने बस में बैठे लोगों में उसको ढूँढा पर वो कहीं नहीं दिखा। उसे अपने आप पर गुस्सा और तरस दोनों आ रहे थे। गुस्सा आ रहा था कि क्यों एक अजनबी के साथ उसने इतनी सारी बातें की ?
क्यों उसके लिए एहसास अपने मन में जगने दिये ? और तरस इसलिए कि कैसे एक अजनबी उसकी भावनाओं को जाने-अनजाने रौंद कर चला गया।
आज उस घटना को तीन साल हो चुके हैं। उसके बाद कितनी बार श्रुति ने यू.जी.सी का टेस्ट दिया। (उस दिन श्रुति सार्थक के चक्कर में अपना टेस्ट अच्छे से नहीं दे पायी थी।) हर बार इस उम्मीद के साथ कि कभी सार्थक उसे दोबारा मिले पर कुछ लोग शायद इसीलिए मिलते हैं की आपके दिल पर एक छाप छोड़ जाए। अब श्रुति की शादी को भी छह महीने हो गये हैं और वो राजीव के साथ खुश है पर आज भी अगर कोई 'पहले प्यार' की बात करता है तो उसे सार्थक याद आ जाता है।
यह पहला प्यार होता ही कुछ ऐसा है, जो इन्सान के दिलो-दिमाग पर ऐसा असर करता है कि वो चाहकर भी उसकी याद नहीं भुला सकता।