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ये घर किसका है?

ये घर किसका है?

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‘किसना... अरे ओ... किसना...,’ आजी (दादी) सुबह- सुबह किसना को आवाज़ दे रही थी, जो घर के पासवाले बाग़ में तितलियों के पीछे चक्कर काट रहा था। दादी की मद्धम सी आवाज़ सुन किसना ने जवाब दिया, ‘आया दादी, बस पकड़ ही लूँगा आज इसे।’ मन ही मन वह बुदबुदाया, ‘आज तू बचके जा नहीं सकती, आखिर मेरा भी नाम किसना है।’ कुछ देर और इस तरह बीत गया लेकिन किसना है कि बाग़ से निकलने का नाम ही नहीं ले रहा था। इस पर दादी खुद ही बाग़ की ओर आ गई। दादी को पास आता देख किसना पहले ही बोल पड़ा, ‘आजी...आजी... कान नहीं, कान बिल्कुल ही नहीं... देख, देख पकड़ ली मैंने,’ किसना ने सच में ही एक तितली पकड़ ली थी। दादी तो किसना को डाँटने के इरादे से आई थी लेकिन ये क्या? किसना के हाथ में तितली देखकर दादी खुद भूल गई कि वह क्यूँ आई थी। ‘देख आजी, कितनी सुन्दर है न?’, किसना ने तितली को दादी की आँखों के पास लाते हुए कहा, ‘अब तू ही बता कि इतनी प्यारी तितली कैसे छोड़ देता?’, ‘लेकिन अब तू इसका करेगा क्या?’ दादी ने बड़े ही कुतूहल के साथ पूछा। ‘कुछ नहीं आजी, देखूँगा प्यार से और फिर...’, ‘और फिर क्या?’, ‘और फिर... छोड़ दूँगा,’ इतने में किसना ने तितली छोड़ दी। ‘ए... गई...’ किसना ने पकड़ी हुई तितली को उड़ा दिया और फिर वो घर की तरफ भागा। दादी उड़ती हुई तितली को निहार रही थी। किसना मुड़ा और ज़ोर से बोला, ‘चल आजी, क्या कर रही है, स्कूल जाने को देर हो रही है...’ दादी ने अपना माथा ठोका, ‘हाँ, मेरे बाप, आ रही हूँ,’ और बडबडाती हुई धीरे-धीरे घर की ओर चल पड़ी।

बचपन से ही किसना की देख-भाल उसकी दादी ही करती आ रही थी। किसना के माता-पिता का देहांत एक बस दुर्घटना में हो गया था। दुर्घटना के बाद माता-पिता को बचाने के लिए जो ओपरेशन हुआ था उसमे काफी खर्च हुआ था, जिसके कारण घर गिरवी रखना पड़ा था। दुर्भाग्यवश काफी कोशिश के बाद भी उनकी जान बच नहीं पाई और घर भी हाथ से चला गया। इसी कारण दादी और किसना दोनों ही किसना के ताउजी (बड़े पापा) के घर में रहते थे। दादी किसना के पिता की तो सगी थी, लेकिन ताउजी के साथ उनका रिश्ता सौतेली माँ का था इसीलिए ताउजी व उनके परिवार की ओर से कुछ ख़ास ध्यान नहीं दिया जाता था। गाँव में अपमान के डर से ताउजी ने किसना और अपनी सौतेली माँ (दादी) को अपने घर में रखा था। इस घर में किसना और दादी, दोनों ही एक-दूसरे की दुनिया थे।

किसना का उसकी दादी पर बड़ा प्रेम था। कोई अगर उसे कुछ कह देता तो, शांत व खुश स्वभाव वाला किसना बहुत जल्दी ही उग्र हो जाता था। माँ-बाप, भाई-बहन, यहाँ तक कि भगवान् भी उसके लिए उसकी दादी ही थी। अक्सर हमउम्र के साथ ही हमारे नाते बड़ी जल्दी से बन पाते हैं। किसना की भी एक छोटी बहन थी - मीना, ताउजी की लड़की, लेकिन किसना के लिए उसकी दादी ही सबकुछ थी। आज किसना की उम्र लगभग १५ साल की थी और वह गाँव के ही सरकारी स्कूल में कक्षा ९ का विद्यार्थी था। पढ़ने- लिखने में वह बहुत तेज़ नहीं था लेकिन बिना किसी मुसीबत के वह पास हो जाया करता था। हाँ, उसके पास एक वैज्ञानिक जैसा दिमाग ज़रूर था। वह धातुओं, फेंकी गई चीज़ों, कबाड़ वगैरह से नई-नई चीज़ें बनाने में माहिर था। उसकी उम्र के बच्चे अक्सर खो-खो, कबड्डी, क्रिकेट में अपना खाली समय बिताते लेकिन वह कुछ न कुछ बनाने में ही अक्सर व्यस्त रहता था। भले ही उसके ताउजी को उसकी कदर नहीं थी लेकिन गाँव के कई लोग उसकी इस प्रतिभा से परिचित थे। ताउजी तो अक्सर मीना और किसना की तुलना पढ़ाई में कर के किसना को नीचा दिखाना चाहते थे लेकिन उन्हें अक्सर किसना की कारीगरी के आगे मुँह की खानी पड़ती थी।

दिवाली का त्यौहार दस्तक दे रहा था। धनतेरस को कुछ ही दिन बाकी थे। गाँव के घर भले ही मिट्टी से क्यों न बने हों लेकिन उन सभी के घरों पर प्राकृतिक रंगों से पुताई की गई थी। बाजारों में रौनक बढ़ गई थी। साथ ही लोग नए कपड़े, बर्तन व ज़रूरत की चीज़ें भी लेने जाने लगे थे। किसना भी कुछ नए कपड़े लेना, खुद के लिए नहीं बल्कि अपनी दादी के लिए। आजी दिवाली के दिन भी वही पुरानी साड़ी पहना करती थी, जिसे किसना के पिताजी ने उन्हें भेंट की थी।

      'काका, मुझे कुछ पैसों की ज़रूरत है।', सुबह का वक्त था, इतवार का दिन, ताउजी अपने घर के बरामदे में, अपनी आरामकुर्सी पर बैठे चाय पी रहे थे और किसना उनके सामने याचना मुद्रा में खड़ा था। 'पैसे! वो क्यूँ? तेरी स्कूल की फीस तो तुझे पिछले हफ्ते ही दे दी गई है।' 'हाँ, काका, लेकिन पैसे मुझे फीस के लिए नहीं चाहिए।', 'तो फिर, किसलिए चाहिए।', 'वो मुझे...' किसना कहते वक्त कुछ संकोची महसूस कर रहा था, क्योंकि उसने आजतक किसी निजी स्वार्थ के लिए अपने ताउजी से पैसे नहीं माँगे थे। 'हाँ... बोल, बता क्यों चाहिए पैसे?' किसना ने कुछ हिम्मत जुटाकर कहा, 'वो मुझे, दिवाली में कपड़े खरीदने हैं।', 'अच्छा...' ताउजी ने एतराज़ जताते हुए कहा, 'और कितने पैसे चाहिए तुझे?' इतने में मीना भी वहाँ आ खड़ी हुई थी। 'जी, ताउजी मुझे...', 'इतना समय क्यूँ बर्बाद कर रहा है, जल्दी बता मुझे भी कुछ काम है।' आजी भी इस बात को घर की बाहरी दीवार से सुन रही थी, वह किसना की आवाज़ को सुनते ही बाहर रुक गई थी। 'ताउजी मुझे, तीन सौ रूपए की ज़रूरत थी', 'अरे वाह ! लाड़ साहब, सूट-बूट सिलवाना है क्या आपको, कहो तो आपके लिए बैंड-बाजा भी ले आऊँ', ताउजी ने व्यंग करते हुए कहा, 'तीन सौ क्यूँ, पाँच सौ ले लो... हज़ार ले लो...', मीना अभी बच्ची थी लेकिन वह अपने पिता के द्वारा छोड़े गए शब्दों के तीरों को खूब पहचान रही थी। 'नहीं ताउजी, सिर्फ तीन सौ ही चाहिए', किसना जान गया था कि उसका मज़ाक उड़ाया जा रहा है फिर भी वह आजी के लिए इतना तो कर ही सकता था। 'हाँ क्यों नहीं, कुबेर का धन जो रख गए हैं तुम्हारे पिता, जिसे तू फ़िज़ूल खर्ची में लुटा सके', मौन खड़े किसना ने अपने मन की बात ताउजी के सामने रखी, 'ताउजी... कई वर्ष बीत गए लेकिन आजी नई कोई साड़ी नहीं खरीदी, मैं चाहता था कि...', किसना की बात पूरी होने से पहले ही ताउजी ने उसकी बात काट दी, 'अच्छा तो ये बात है...', ताउजी को एक अच्छा मौका मिल गया था आमने-सामने ही किसना व उसकी दादी को ज़लील करने का। किसना भी एक हाँ को सुनने लिए टकटकी लगाए ताउजी को देख रहा था। 'उस बुढ़िया का एक पैर कबर में है और उसे नया लिबाज़ चाहिए ओढ़ने को', आजी के लिए कसा गया यह ताना किसना के सीने को चीरता हुआ निकल गया। 'ताउजी...' किसना ज़ोर से चिल्लाया और उसने ताउजी की ओर हाथ उठाकर उन्हें चुप होने का इशारा किया। अचंभित मीना के दोनों हाथ उसके होठों पर चले गए थे, ताउजी भी, किसना की इस गर्जना से सकपका गया। किसना की आँखों में आँसू थे, 'काश मेरे बाबा आज जीवित होते...', उसने अफ़सोस जताते हुए ये शब्द कहे, 'कृपा करें, अगली बार मेरी आजी के बारे में ऐसा भूलकर भी ना कहना। ये उसकी नहीं मेरी इच्छा थी कि वह एक नया कपड़ा पहने।' मीना की भी आँख में आँसू आ गए थे। आजी भी अपने आंसुओं को पोंछती हुई बरामदे में आई और ज़ोर से किसना का हाथ पकड़कर घर के भीतर चली गई। किसना के जाते ही ताउजी का अहंकारी रूप लौट आया और उन्होंने ज़ोर से घर के भीतर आवाज़ लगाई, 'दो वक्त की रोटी मिल जाती है उसके लिए खैर मनाओ, यहाँ अपनी माँगों को लेकर आने की ज़रूरत नहीं है। जानते हो ना ये घर किसका है?'

कुछ दिन पहले आजी ने भी कुछ पैसों की माँग की थी ताउजी से, दिवाली के कपड़ों को लेकर। वह भी अपने लिए नहीं, बल्कि किसना के लिए कुछ खरीदना चाहती थी और उन्होंने भी तीन सौ रुपयों की माँग की थी। लेकिन दुर्भाग्यवश वह अपना हृद्य ताउजी के सामने खोल नहीं पाई थी और उस वक्त भी ताउजी ने उन्हें ज़लील किया था।

गाँव के स्कूल में छुट्टियाँ पड़ीं थी। घर के कलहपूर्ण वातावरण से दूर रहने और अपना मन दिवाली के उस उपहार के ख़याल से निजात पाने के लिए जिसे वह आजी को भेंट करना चाहता था, ज़्यादातर वक्त घर के पास वाली नदी के किनारे पर बिताने लगा था। वहाँ से उसे एक टूटी-फूटी लेकिन कुछ ठीक-ठाक हालत वाली सायकिल मिल गई थी। खैर उसे चलाया तो नहीं जा सकता था, इसीलिए कोई उसे वहाँ फेंक गया था। उस सायकिल दोनों पहियों में रबड़ के ट्यूब नहीं थे जिस कारण वह किसी काम की नहीं थी। लेकिन अपना समय व्यतीत करने के लिए वह किसना का एक नया खिलौना बन चुकी थी। वह उसे कंधे पर लिए, तो कभी यूँहीं घसीटते हुए यहाँ से वहाँ, खेतों-गलियों में घूमता। आस-पास के लोगों को भी इस बात का पता चल गया था कि किसना का कोई नया जुगाड़ प्रपंच शुरू है।

आखिरकार दिवाली की वह रात ही गई थी जिस दिन लक्ष्मी पूजन होता है और लोग नए कपड़े पहनते हैं। एक-दूसरे को बधाईयाँ देते हैं, पटाखे जलाते हैं। हर ओर ख़ुशी का माहौल होता है। लेकिन विष्णू के अवतार श्रीराम से जुड़े इस दिन, किसना अपने घर के बरामदे पर खामोश सा बैठा हुआ था। ताउजी और ताईजी अन्दर लक्ष्मी पूजन की तैयारियों में व्यस्त थे और बाहर मीना फूलझड़ी को जलाकर गोल-गोल घुमा रही थी और खुश हो रही थी। उसने किसना का मायूस चेहरा देखा और उसकी ओर बढ़ गई। 'भैया, तुम भी जलाओ मेरे संग फूलझड़ी, बहुत मज़ा आ रहा है।', किसना ने एक बनावटी मुस्कान बनाई और मीना को प्यार से नकार दिया, 'नहीं मीना, मेरा मन नहीं, तुम मज़े करो, लेकिन ज़रा ध्यान से।'

किसना बरामदे की सीढ़ियों पर बैठा हुआ था और मीना आँगन में फूलझड़ी जलाने में मशगूल थी। सब कुछ शांत था और इतने में ही एक पटाखा (रोकेट) उड़ता हुआ ज़ोर से आवाज़ करते हुए आया और घर की छत पर जा फटा। गाँव के घर के ऊपर सूखी घाँस की छत पाई जाती है जिसके कारण आँग को फ़ैलने में ज़रा भी वक्त नहीं लगा। रोकेट की आवाज़ इतनी तेज़ थी कि मीना डर से काँप गई और वहीं सुन्न खड़ी हो गई। किसना तुरंत हरकत में आ गया और आजी को घर से बाहर ले आया। ऊपर की आँग लग चुकी थी लेकिन उनके हाथ में बज रही घंटी के शोर के कारण ताईजी और ताउजी को अब भी इस बारे में कुछ पता नहीं चल पाया था। मीना धीरे - धीरे रो रही थी और, 'आई-बाबा, आई-बाबा' कहते हुए सिसकियाँ लिए जा रही थी। किसना दौड़ कर अन्दर गया और छत की ओर इशारा करते हुए चिल्लाया, 'ताउजी... ताईजी... ऊपर आँग लगी है...|' ताउजी - ताईजी पूजा की थाली को वहीं छोड़ घर से बाहर दौड़ पड़े। ताईजी ने बाहर आकर मीना को गले से लगा लिया, मीना भी अपनी आई से पूरी तरह जकड़ गई।

इधर घर की आँग भी अब प्रचंड रूप ले चुकी थी। आस-पास के लोग गली के कुँए से बाल्टी में पानी ला ला कर घर पर उड़ेले जा रहे थे, लेकिन फिर भी आँग का बाल तक बाँका नहीं हो पा रहा था। इस बौखलाहट की वजह से ताउजी को भी कुछ सूझ नहीं रहा था और वे सिर पर हाथ रखे वहीं आँगन में अपना घर जलते हुए देख रही थी। आजी भगवान् का नाम जप कर रही थी कि किसी तरह कोई चमत्कार हो जाए और आँग शांत हो जाए। किसना भी और लोगों की तरह बाल्टी से पानी ला लाकर बुरी थक चूका था। वह तन से नहीं मन से हार गया था कि अब एक और दुर्घटना उसको व उसके परिवार को बेघर कर देगी। हर ओर हाहाकार मच चुका था।

उसने गुस्से में बाल्टी को आँगन के एक ओर फेंक दिया। वहाँ पर पानी पाइप पड़ा हुआ था। पता नहीं क्या हुआ और उसमे जैसे एक नई ऊर्जा उतर आई थी। पानी लाने वाले हर एक व्यक्ति की तरफ देख वह ज़ोर से चिल्लाया। 'रुक जाओ... ये आँग, ऐसे नहीं बुझेगी...', सब चौंक गए, सिर पकड़े हुए ताउजी ने किसना की ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा कि यह क्या कह रहा है। उसकी बात सुनकर सभी चौंक पड़े। बात तो सही थी कि, आग कम होने का नाम ही नहीं ले रही थी। 'आप सभी यह बाल्टियाँ छोडिए और', पानी के पाइप की ओर इशारा करते हुए कहा, 'अपने घरों से ये पाइप ले आइए', किसी को विश्ववास ही नहीं हो रहा था कि किसना क्या करना चाहता था, वे लोग एक-दूसरे का मुँह ताक़ रहे थे। किसना उन सभी को उस सुप्त क्षण से जगाने के लिए ज़ोर से चिल्लाया, 'विश्वास कीजिए मेरा, जाइए... पाइप ले आइए।'

सारे लोग बाल्टियों को वहीं छोड़ अपने घर की ओर भागे। किसना भी अपनी उस जुगाडू सायकिल को ले आया और उसने वह आँगन के बीचों-बीच रख दी। ताउजी यह देखकर ताज्जुब में आ गए कि आखिर यह कर क्या रहा है? आँगन के दुसरे कोने पर पड़े पाइप को किसना ने अपनी सायकिल में लगे एक विचित्र से बेलनाकार भाग से लगाया जिसमे पाइप के लिए उचित छेद बने हुए थे। उसने उस पाइप को घर की ओर फेंक दिया। इतने में कई लोग पाइप लिए वहाँ इक्कट्ठा हो गए। आधे पाइप उसने उस बेलनाकार हिस्से के आगे लगाए और आधे पीछे। आधों को उसने आगे की तरफ फेंक दिया और बाकी पाइप जो पीछे लगे थे उसे गली के उस कुँए में पहुँचाने को कहा। पाइप के हिस्सों को जोड़ - जोड़कर दो-तीन लम्बी कतारें बन गई। आजी भले ही भगवान् का नाम जप रही थी लेकिन उसका पूरा ध्यान अब किसना और उसकी जुगाडू सायकिल पर चला गया था। आँग तो वैसी की वैसी ही थी लेकिन मीना की आँखों के सामने उसका भैया कुछ नया कर रहा था। आँगन की दीवार के बाहर कुछ मूक दर्शक जमा हो गए थे, जो इस अजूबी सायकिल के रहस्य को समझ नहीं पा रहे थे।

जैसे ही पिछले पाइपों को कुँए में डाल दिया गया वहाँ से एक जोर की आवाज़ आई, 'किसना, पाइप कुँए में डाल दी है।', किसना ने उसे अँगूठे के इशारे से धन्यवाद दिया। 'आप लोग भी तैयार हो जाइए', किसना ने आगे के पाइपों को लेकर खड़े लोगों से कहा। उन लोगों ने भी हाँमी भरते हुए सिर हिलाया। किसना ने हाथ जोड़कर ऊपर देखा, 'हे, परमेश्वर, इस घर को बचा ले।' उसने उस सायकिल का स्टेंड लगाया और उस पर बैठ कर ज़ोर से पेंडल मारने लगा। आगे के पाइप पकड़े लोगों में कुछ हरकत हुई, उन्हें उस पाइप के छेदों में से कुछ आवाज़ आने लगे। यहाँ किसना ज़ोर से पेंडल मार रहा था, 'आजा... हो.. जा.. आजा... हो... जा...', वहाँ आगे खड़े लोग भी कुछ बड़बड़ाने लगे, 'आ रहा है, आ रहा है, हाँ आ रहा है।'

ज़्ज़्ज़्ज़ूऊप्प्प्प... अचानक ही अगले हिस्से के पाँचों पाइपों से इस आवाज़ के साथ पानी की बौछार निकल पड़ी और छत के ऊपरी सिरे पर जाने लगी। ताउजी इस विस्मयकारी दृश्य को देखकर अपनी जगह से उठ खड़े हुए। आँगन की दीवार के बाहर खड़े लोगों के जोश और उल्लास से भर गए और वे तालियाँ बजाने लगे। आजी के आश्चर्य का ठिकाना न रहा, वो भगवान् के नाम जप की जगह, 'किसना... किसना...' जपने लगी। मीना और ताईजी के भी ख़ुशी का ठिकाना न रहा।

पानी तो पर्याप्त मात्रा में ऊपर पहुँच ही रहा था लेकिन वह किसना की ताकत की तरह धीरे - धीरे कम हो रहा था। क्योंकि किसना पहले से ही बहुत थका हुआ था और उसके पेंडल मारने की गति धीमी हो रही थी। यह देख ताउजी झट से उस ओर दौड़ पड़े, 'चल हट जा, तूने बहुत किया, अब मेरी बारी।' किसना के चेहरे पर एक मुस्कराहट थी, वह तुरंत ही वहाँ से हट गया। ताउजी झट से उस सायकिल पर बैठ गए और जोर से पेंडल मारने लगे। पाइप लेकर कुछ लोग घर के भीतर भी घुस गए। अब आँग पर दो तरफ से वार हो रहा था, ऊपर छत से और अन्दर से भी।

देखते ही देखते आँग का नाम-ओ-निशाँ मिट गया। आँग ने आधा घर निगल लिया था लेकिन आधा घर किसना की अजूबी सायकल ने बचा लिया। लोगों खुशियों की लहर दौड़ पड़ी, मानों उनका अपना घर बच गया हो। किसना ने धीमे से थकी आवाज़ में पूछा, 'ताउजी... ये घर किसका है?', ताउजी की आँखों में आँसू थे पश्चाताप के, 'तेरा ही है मेरे बेटे तेरा ही है..', मीना और ताईजी भी उनके पास आ गए। आजी की आँखों में आँसू छलक आए लेकिन वो अब भी नाम जप रही थी, 'किसना... किसना... किसना...'


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