थैंक्स पतिदेव
थैंक्स पतिदेव
मार्च का महिना अर्थात खुशनुमा मौसम। पतझड़ में सभी वृक्षों ने पुराने पत्तों को त्याग कर नए पत्तों का आवरण ओढ़ लिया था। जैसे मानव पुराने वस्त्र त्याग नूतन वस्त्र धारण करता है तो खुशी से स्वतः उसका चेहरा चमक उठता है उसी प्रकार वृक्षों ने जब नए पत्तों से अपने को ढक लिया तो उनके साथ-साथ पूरा वातावरण खुशनुमा हो गया। आम और लीची के वृक्ष में मंजर निकल आए। जहाँ छोटे-छोटे पौधों में फूल खिलने से धरा रंगीन हो गई वहीं सेमर के वृक्ष में लाल-लाल फूल खिल अकाश में भी लालिमा भर दी। इतने सुहाने मौसम में कार में बैठ लंबी यात्रा का आनंद अहा.. क्या कहना। मुझे रेडियो सुनना ज्यादा अच्छा लगता है क्योंकि उसमें गानों का क्रम अंजान होता है। आज रेडियो भी सुहाने मौसम का गाना लगातार सुना रहा था। मैं और पति देव चुप-चाप यात्रा का आनंद ले रहे थे। यूँ भी इन्हें ज्यादा बात करना नहीं आता। अतः ऐसी स्थिति में मोबाइल एक अच्छा साथी है। दोनों अपने-अपने मोबाइल पर अपने पसंद का काम करते रहते।
पति मोबाइल पर गेम खेल रहे थे और मैं वादियों को निहार रही थी। किसी शहरी बस्ती से हम गुजर रहे थे। बच्चों के स्कूल जाने का समय था। कोई माँ की उंगली पकड़ तो कोई पिता और आया के साथ बस का इंतजार कर रहा था। हँसते-मुस्कुराते बच्चों को देख मन खिल गया। थोड़े ही देर में हम सुनसपाट खेत-खेलिहान से गुजरने लगे। क्षण में परिवेश बदलते रहते हैं फिर भी लगभग समान। बहुत देर तक एक ही चीज देख मन ऊब जाता है। मैं भी अपना मोबाइल निकाल लिया। बहुत दिनों से एक कहानी का प्लाट दिमाग में था, गूगल डॉक्स खोल मैं कहानी लिखने लगी।
कहानी भी खुशनुमा मौसम का था अतः उंगलियाँ आसानी से थिरक रही थी। कहानी में एक मोड़ आया। जहाँ नायिका को पति से शिकायत थी कि वो उसकी बातें सुनते ही नहीं। बिना सुने ही अपनी बातें कहने लगते हैं। आम भारतीय घरों की नारियों की यही दास्तां है। पर यहाँ थोड़ा अलग हुआ। पत्नी से पहले पति ही भड़क उठे। अब पत्नी को उनके ऊपर शब्दों का बम विस्फोट करना था। अब मेरी समस्या थी कि इतने खुशनुमा मौसम में मेरी डिक्सनरी से विस्फोटक शब्द निकल ही नहीं पा रहे थ मैं अपनी सोच को थोड़ा विश्राम दे दी। तभी मेरे ड्राइवर ने भी एक पेट्रोल पंप पर गाड़ी को थोड़ी विश्राम दे दी। हम सभी वहाँ प्रसाधन से आ थोड़ा हल्का महसूस करने लगे। सामने एक छोटी सी दुकान थी। जिसमे कुरकुरे टाइप अनेक चीज के साथ आइसक्रीम भी थी। धूप तेज हो चुकी थी अतः मुझे आइसक्रीम खाने की इच्छा बलवती हो गई। मैंने पतिदेव को कहा "चलिए आइसक्रीम खा कर आते हैं।" आदतन हर बार के समान बीच में ही बोल पड़े "नहीं-नहीं अभी नहीं,आगे चलो न बाद में खाएंगे" मैं अंदर तक जल भुन गई। क्योंकि मेरी बात काटना इनकी आदत है और थोड़ी देर बाद उसे फिर करना। गाड़ी दौड़ लगाती हुई ऐसे जगह से गुजर रही थी मानो वो लाल मिर्च का बगान हो। सड़क के दोनों तरफ काफी दूर तक लाल मिर्च सूख रही था। मेरी वाणी में भी मिर्च की तिक्तता भरने वाली थी। ड्राइवर साथ में था अतः मैंने अपने होठ सिल लिए। बचपन में क्लास में टीचर के आ जाने पर बेर की गुठली को मुँह में छल बल से छिपाने की कला में प्रवीण थी पर भाव चेहरे पर उभर जाते और पकड़ी जाती। आज भी गुस्से को पीकर होंठ तो सिल लिए पर चेहरे पर उभरे क्रोध की रेखाएँ आसानी से नहीं मिटती। शायद इन्होंने मेरे गुस्से को महसूस किया या आदतन थोड़ी देर बाद जिसे मना किया हैं उसे करने की आदत के अनुसार पांच दस किलोमीटर पहुंचते ही एक बड़ा सुधा मिल्क पार्लर देख बोल पड़े- “यहाँ आइसक्रीम खाते हैं , मन तो अंदर तक जला हुआ था। मिर्च सी तिक्तता जुबान पर अभी तक बनी हुई थी। बड़ी मुश्किल से सुधा लस्सी की मिठास को जिह्वा पर लाने की कोशिश की और कहा - “बार-बार गाड़ी रोकने से यात्रा में विलम्ब होगा। अब एक घंटे बाद खाना खाने को रोकिएगा वहीं आइसक्रीम भी लिया जाएगा। सच कहती हूँ इतनी मीठी वाणी कैसे निकली पता नहीं। ये उतना ही कठिन था जितना आग की उठती लपट से पानी बरसना। मैं जलती रही पर पति को कोई अंतर नहीं आया। वो अपने मोबाइल में घुस गए। अब मुझे भी मोबाइल उठाने के सिवा दूसरा चारा नहीं था। जब मन अच्छा रहता है तब व्हाट्स एप्प या फेस बुक भी अच्छा लगता है। जब कहीं मन नही रमा तो मैं पुनः गूगल डॉक्स खोल अपनी कहानी पर ध्यान केंद्रित करने की कोशिश करने लगी।
कहानी बन्द करने का कारण था उपयुक्त शब्दों का ना मिलना। तिक्तता भरे मन से एक से एक शब्द उछल-उछल कर बाहर आ रहे थे। क्षण में मेरा प्रसंग पूरा हो गया। मन के गुबार शब्दों के रूप में कहानी में समा गए और मेरा मन अब बिल्कुल शांत हो गया।
कहानी खत्म कर मैंने पति को धन्यवाद दिया। वो तो समझ नहीं पाए ऐसा क्या हुआ। वो आश्चर्य से मुझे देख रहे थे और मैं मुस्कुरा रही थी।