Unlock solutions to your love life challenges, from choosing the right partner to navigating deception and loneliness, with the book "Lust Love & Liberation ". Click here to get your copy!
Unlock solutions to your love life challenges, from choosing the right partner to navigating deception and loneliness, with the book "Lust Love & Liberation ". Click here to get your copy!

Ravikant Raut

Others

2.7  

Ravikant Raut

Others

दर दर भिख़ारी , घर घर भिख़ारी

दर दर भिख़ारी , घर घर भिख़ारी

13 mins
21.2K


                  (1)

ना, ना … चौंकिये मत , ये शीर्षक , ना तो हाल में सम्पन्न हुए आमचुनाव में किसी पार्टी विशेष के विवादित एज़ेंडे से अभिप्रेरित है , ना ही उस नारे से असहमत किसी धर्मगुरू की चुनौती से । वो तो ऐसा हुआ कि कोई शीर्षक चाहिये था , अपने लेख़न को , सो यही रख लिया , बस और कुछ नहीं ।

रविवार की सुबह जिसका, मुझे अक्सर बेक़रारी से इंतज़ार रहता है क्योंकि और दिनों की तरह मुझें आज कहीं भागना नहीं होता है , चैन से सोफ़े पर पसर कर पत्र-पत्रिकाओं के विशेषांक पढ़ना , बार-बार चाय की मेरी फ़रमाइश पूरी करती पत्नी का तुनकना - “बस यही करती रहूं ,काम नहीं कोई बचा ,इसके सिवा”, सुनना । और इन सबके उपर  किसी नये रंजन की तलाश में जाली के दरवाज़े के पार भी नज़र डालना ,जो मिले ,जो दिखे सबको अपने (सु)विचार से , मनोरंजक बुध्दि-प्रहार से छील डालना ,आज़कल मेरा पसन्दीदा शगल बन गया है ।  हर इतवार कुछ ना कुछ नया मिल ही जाता है । आज़ भी मिल ही गया , बैठक से दिखते , मेरे बगीचे के पार लोहे के गेट पर ख़ड़ा हाथी वाला बाबा ।

हाथी वाले बाबा , सभी परिचित होंगे इनसे । मैनें सुना है , एक कार्पोरेट सरीख़ा होता है इनका सारा तामझाम , हाथी इनका कामन असेट होता है , बाकी लोग अपनी अपनी औकात के हिसाब से स्टेक-होल्डर , लोगों को आस्था का  चूना  लगाते, गणपति ख़ड़ा  तेरे द्वार कह-कह कर उनकी आत्मा को बिलोरते , अपने-अपने हिस्से का माल बटोरते ये एक जगह से दूसरी जगह जाते ,नित नये और आसान भक्तों की तलाश में रहते हैं । एक हाथी को घेरकर चलते, नये यौवनाये सांड से डोलते , पांच- सात मुस्टंडे । पर इन कठोर कसरती बदनों के  बीच कभी कभी नाज़ुक बदन किसी युवक को भी रख़ा जाना इनकी कौन सी कार्पोरेट स्ट्रैटेज़ी होती है , पता नहीं चलता , क्योंकि ये कभी मांगता नहीं , कोई भारी काम नहीं , अक्सर हाथी के हौदे में ही सफ़र करता है । पर इसकी लैंगिकता को लेकर और समूह में इसकी उपयोगिता को लेकर , अक्सर दर्शक-समूहों  के बीच  बेहद गर्मागर्म बहस छिड़ जाया करती है ।

इनके काम करने का तरीका भी ख़ास होता है । शहर के सर्वे के बाद ये तय करते हैं ,किस मोहल्ले से शुरुआत करनी है , एक मोहल्ले के मुहाने पर जमा हो ,अपनी एक –एक गली पकड़ उसमें रिस जाते हैं । कम से कम समय में पूरे मोहल्ले के सभी आसान भक्तों को निशाना बनाते , उन्हें दान के लाभ गिनाते ,उन्हीं के इष्ट के कदमों में उन्हें को अग्रिम आरक्षण देते , तो किसी के सर पर हस्ति-सूंड टिकाते , किसी बच्चे को हाथी पे चढ़ा अपनी असेट – डाइवर्शिफ़ेकशन  का अतिरिक्त लाभ कमाते आगे बढ़ते जाते हैं ।

ऐसी ही एक गली से रिसता एक बाबा बेचारा आज़ मेरे गेट से आ लगा था ।

 

नवरंजन की चाह में ऐसे, बुध्दि मेरी अकुलाई ,

  आज़ इम्तेहां ले ही लूंगा , बाबा तेरे भगवे का,

  संयम का तेरे , और तेरी बोली-बानी का

अपनी सारी शक्ति एक बिंदु पर केंद्रित  कर ,मैं उससे एक परोक्ष बौद्धिक युद्ध  के लिए तैयार हो गया,

छ: फ़ीट का निकलता कसरती क़द , औरों की हाड़तोड़  कमाई में से , हराम का अपना हिस्सा ख़ाती , दमकती देह , सिक्स पैक , दो छोरों को मिला गर्दन के पीछे गांठ मार कर बांधा खुला-ख़ुला सा भगवा वसन । चलती हवा ,जिसका  पदर उड़ा  बीच बीच में उसके अधोवस्त्र की कीमती ब्रांड “जौकी” का दर्शन करा जाती थी । हाइली-पेड  होकर भी और ज़ेब में पैसा लेकर भी , जाने कितनी बार इस ब्रांड को खरीदने की ‘इस दिल ने इक तमन्ना की थी, पर हर बार कीमत पूछ के , ‘हमने दिल को समझाया ‘,  और बिना ख़रीदे ही  कई दुकानों की ड्योढ़ीयां उतर चुके है , चाह कर भी “जौकी” जैसा कुछ खरीद नहीं पाये थे ,आज तक । पर ये साले …………। 

लोहे के गेट से लग , आम्रवृक्ष की पत्तियों से छन-छन कर आती धूप में खड़ा वो मुझे भली भांति दृष्ट था , पर घर के अंदर जालीदार दरवाज़े के पीछे, नीम-अंधेरे में बैठा, मैं उसके लिये  लगभग अदृश्य था ।,

जय होऽऽऽऽ…………!!! दानवीर दाता की !

पहला पासा वो फ़ेंक चुका था ,याने  पहले पहल मैं दानवीर

देखो बच्चा ऽऽऽऽ ………!! बाहर आओ ……!!

कैसे खुल गये भाग तुम्हारे

ले लो गणपति जी की किरपा ,

हाथी-बाबा द्वार तुम्हारे …………।

 

अब मेरी बारी थी, मैं ख़ामोश चिरंतन समाधिस्थ , आफ़-कोर्स ये मेरी पह्ली ब्लाइंड चाल थी  ।

अपनी आवाज़ का असर ना होता देख वो नई चाल के लिये कुछ ख़ोजने लगा , अचानक उसकी निगाह मेरे छोटे बच्चे की साइकल पर टिकी ।वो कुछ फ़िल्मी तर्ज़ पर अलापा

औलाद वालों फ़ूलो-फ़लो ,

तू एक पैसा देगा , वो दस लाख देगा

पर उसकी ये चाल भी ब्लैंक गयी , मेरी फ़िर से ब्लाइंड ,

मैं उसे अनसुना कर रहा हूं या मुझ तक उसकी आवाज़ सचमुच नहीं पहुंच पा रही ।इस दुविधा से निज़ात पाने उसने मेरे लोहे के गेट पर लगने वाले अर्धचंद्राकार कुंदे को कुछ ज़ोर से गेट पर पटका ,और शोर के इस घोड़े पर सवार कर उसने  अपनी आवाज़ को फ़िर  से मेरे घर के अंदर दौड़ाया,

अब वो सतलोक की बातें करने लगा था, वो मुझे याद दिलाने  लगा था , कि उस लोक से आते वक्त , उपरवाले से मैं क्या-क्या वादा करके आया हूं ,कि यहां आ कर पुण्य करुंगा वगैरह-वगैरह ,ऐसे में , मेरी ये बेरुख़ी बेमतलब है ,वादाख़िलाफ़ी है उपरवाले से।

 

मेरी एक और ब्लाइंड

अब तक कुछ हासिल न कर पाने की चिढ़ थी या बीतते समय के साथ , धंधे के खोटे होने का अफ़सोस , वो बेतहाशा उद्वीग्न होने लगा । जाने अनजाने उसके हाथों बजते अर्धचंद्र कुंदे की खटाक-ख़टाक की ध्वनियों का स्वर क्रमश: उच्चतर होता गया , और दो क्रमिक खटाकों के बीच का घटता अंतराल उसकी बेक़ली को दिखा रहे थे , अब वो बिखरने लगा था ।

मेरी फ़िर ब्लाइंड , बस कुछ और चालें , और बाज़ी मेरी

अब वो अपने नुक़सान से नहीं , अपनी उपेक्षा से पीड़ित हो रहा था ,हताशा में उसने किसी प्रसिद्ध संत का पद पढ़ा , मुझे ललकारते हुए ,जिसका भावार्थ था कि

हैसियत का इतना घमंड  शोभा नहीं देता

बड़े-बड़े  महल वीरान हो गये , मेरी क्या बिसात है

फ़िर वो कहने लगा ,

आज़ मैं जो भी हूं , उसमें मेरा कोई पुरुषार्थ नहीं

आज़ मैं जो भी सुख़ भोग रहा हूं , वो मेरे पूर्वज़ों के किये उस दान से हैं

जो उन्होंने कभी  उसके पूर्वज़ों को किया था ।

 

उपेक्षा का प्रतिविष सिर्फ़ प्रतिशोध होता है , पर ये बेचारा तो वो भी नहीं ले सकता था, मुझसे।    अपेक्षा-उपेक्षा का ये खेल चलते 25 मिनट से ज्यादा  गुजर चुके थे । हार कर उसने उपेक्षा के इस दंश से उबरने के लिये , आखरी चित्कार लगायी

अरे दो घूंट पानी तो पिला दे ……………

इस आशा से कि शायद अब तो भी, मैं नमूदार हो जाउंगा , और उसके इगो का कुछ शमन हो जायेगा ,या फ़िर सोचाता होगा कि इस बहाने से ही सही , उसे  कदाचित एक आख़री मौका हाथ लग जाये मुझे कन्विंस कर पाने का ।

मैं जानता था , कोई पानी वानी नहीं चाहिये उसे , ‘बिसलरी’ की बोतल थैले में लिये फ़िरते हैं ,साले………, कोल्ड्रिंक की बोतल गटकते मैनें इन्हें कई बार देखा है ।मैं नहीं हिला , ना कुछ बोला ।

बस, ये आखरी ब्लाइंड , और शो

उसके अंदर का बौराया चिंपांजी , जैसे मेरे बंगले के गेट से सिर पटकने लगा था ।

मेरे घर के मुहाने पर , ठीक मेरे गेट के आगे , मेरे मोहल्ले की दो गलियां मिलती हैं । उसी में से किसी एक से रेंग कर निकलता उसका साथी बाबा उससे आ मिला , सवालिया निगाह से उसे घूरता , अपना कलेक्शन सहेजता , उससे पूछ बैठा

काहे रे !! बुड़बक सालाऽऽऽ…… , जहंई ठाड़ा है …… अभई तक ,धंधा करे है कि तमासा करे है बे ऽऽऽ !!!!

और वो मेरा गेट छोड़ , मुझे गरियाता , उसके साथ हो लिया ।

अरे ये साले !!! बंगले वाले अफ़सर , मादऽऽऽऽ……………,

इसके साथ ही वो इम्तेहान में फ़ेल हो गया था, उसके भगवे का रंग उतर गया था , संयम उसका टूट गया था , वाणी उसकी बिगड़ गयी थी । कुछ देर पहले का एक पोटेन्शियल दानवीर मैं , अब उसकी नज़र में सबसे दुष्ट हरामी था । दूर होती उसकी आवाज़ जैसे-जैसे मद्धिम पड़ती जा रही थी , मेरे अंदर के अमानव की खुशी उसी अनुपात में बढ़ती जा रही थी , एक और जीत , और आज भी उसे उसकी पूरी ख़ुराक़ मिल गयी थी ।

 

 

 

2

 

सहसा मेरा मोबाइल गुनगुनाया ,स्क्रीन पर ‘रिमाइंडर’ चमका ,

 

 “नये नियुक्त सी0एम0डी0 की अगवानी में जाना है” “फ़िर 5 बज़े मीटिंग”

 

सुना है, हमें कथित प्रेरणादायी भाषण पिलाने के अलावा , उन्हें एक और काम करना  है , हाल ही में ख़ाली हुए और स्टेशन के मुख़्य कार्यकारी पद के बाद दुसरे सबसे महत्वपूर्ण माने जाने वाले एक मलाईदार पद पर नियुक्ति के लिये प्रतिक्षारत नामों में से किसी के नाम का उन्हें अनुमोदन करना है ।

 

प्रतिक्षा सूची में मैनें भी अपना नाम डलवाने की जुगाड़ कर ली थी । अब आप पूछेंगे कि मैं कौन ?? तो आप की ज़ानकारी के लिये बता दूं , मैं राज्य-शासन की पूर्ण स्वामित्व वाले , एक इंजीनियरींग आर्गेनाइज़ेशन का सीनियर इंजीनियर । दुसरे सभी सरकारी इंजीनियरों की तरह मैं  भी इंजीनियरिंग के अपने काम के अलावा वो सारे काम करने का इच्छुक रहता हूं ,जिससे मैं बड़े साहबों और उनकी …बीवियों  का चहेता बना रह सकूं , तकनिकी कामों  से खुद को बचाने के निरंतर प्रयासों में सफ़ल होता  , अक्सर मलाईदार पदों को सुशोभित करता रहा हूं । आज का प्रयास भी इसी कड़ी का हिस्सा है ।

 

अब बात हमारे सी0एम0डी0 की , हैं तो ये हमारे ही बीच से , पर सांप-सीढ़ी के खेल के पक्के माहिर , चुनौतियों के सारे कामों से बचते , इनका मानना है कि काम करेंगे तो गलतियां भी होंगी , कुछ निर्णय भी लेने होंगे , सो भी कभी गलत हो सकते हैं , तो ऐसा कर अपना गोपनीय-प्रतिवेदन क्यों बिगाड़ें । हैं ना, काम करने वाले ,उस पर भी अपनी सी0आर0 बिगड़वाते  दुसरे कई खट्मरे-बेवकूफ़ । ये तो ज़नाब खेल में सीढ़ियां ही सीढ़ियां लपकते , औरों को सांप के खुले मुंह में धकेलते , अपनी उम्र-वरियता का लाभ लेते उत्तरोत्तर आगे बढ़ते-बढ़ते , आज़ इस मुक़ाम तक  पहुंच गये हैं । वैसे भी हमारे जैसे सरकारी संगठनों में कभी भी मेरिट नहीं , उम्र-वरीयता  ही प्रमोशन का आधार होती है । अब ऐसा ना होता तो देश भर के नक़ारे बेचारे कहां जाते भला ,क्या नक़ारे लोग हमारे समाज़ के अभिन्न अंग नहीं ,क्या उनके प्रति हमारा कोई दायित्व नहीं बनता। कहते हैं :

 

जिसने कभी काम नहीं किया हो , और वो उंचे पद पर बैठ जाये तो , औरों के  काम की सबसे ज्यादा पूछ-परख़ वही करता है

 

हमारे ये माननीय भी उसी की मिसाल हैं । सी0एम0डी0 बनने के बाद ये उनका प्रथम नगरागमन है , सपत्निक पधारे हैं । इनकी पत्नी से याद आया जब इसी स्टेशन पर ये मेरे सीनियर हुआ करते थे , तब इनके एक छोटे पुत्र-रत्न भी साथ हुआ करते थे , “गट्टू भैया” उनका नाम हुआ करता था । ख़ाने पीने और दवायें लेने में अकसर नखरेबाज़ , उनके पड़ोस में रहते हम अकसर इन दायित्वों का निर्वहन करते , जाने अपने कितने ही उमंग-पलों  को होम कर चुके थे। हमें तो क़ाफ़ी बाद में जा कर सारा माज़रा समझ में आया । ऐसा नहीं था कि गटटू की अम्मा उसे दवाई नहीं पिला सकती थी । पर यदि वो ऐसा करती तो वो अपनी सोसाइटी में धाक़ कैसे जमाती , कैसे दिख़ाती कि उनके मियां के कितने मातहत हैं हम जैसे ,जिनको वो इशारे पर नचा सकती है , और कैसे हमें वो, अपने नाक सुड़कते सेमड़े गट्टू भइया की तिमारदारी में लगवा उसको युवराज़ जैसे प्रिविलेज़ कैसे दिला पाती ।

 

शाम पांच से काफ़ी पहले मैं वहां पहुंच गया , बड़े साहब तो रेस्ट-हाऊस के अपने डीलक्स-लाउंज़ के आफ़िस रूम में हमारे मुख़्य कार्यकारी के साथ बैठे , फ़ाइलें खोले मन्द स्वर में गुटर-गूं कर रहे थे , दरवाज़ा ख़ुला था , उससे लगे बरामदे में मैडम उनकी, हाथ में बड़ा सा मग थामें आनंद से काफ़ी सुड़क रही थी ।

 

अरे  !! आओ मिश्रा बैठो …………… घर पर सब कैसे हैं ??

 

मैं जानता था सब औपचारिकतावश ही पूछ रही थी । मैं विनम्रता में दोहरा-तिहरा होते , झुकता – झांकता ऐसा एंगल बना के बैठ गया कि जब भी फ़ाइल पर से साहाब की नज़र उठे , तो बस सीधे मुझ पर ही गिरे , इधर मैं मैडम से बतियाता भी जा रहा था , और उन्हें, उनकी और गट्टू की गयी मेरी सेवाओं का हवाला भी, इस आवाज़ में , देता जा रहा था कि बड़े साहब भी सुन सकें , ताकि जब भी उस पद विशेष हेतु मुझे नामित करने का मौका आये , तो उन्हें कोई अपराध-बोध ना हो । दुधारी तलवार से वार कर रहा था मैं , एक तरफ़ तो उद्देश्य था सी एम डी को अपने चयन के लिये पटाना , तो दूसरी ओर अपने मुख्य कार्यकारी पर सी एम डी से अपनी पुरानी वाकिफ़ियात की धौंस जमाना,ताकि आगे जा के वो मुझसे पंगा लेने की कभी सोचें भी नहीं ।   

 

वक्त गुज़रता गया, मेरे प्रयास बढ़ते गये , साथ ही मन की उद्वीगनता भी । पर मीटिंग के लिये लोगों की बढ़ती भीड़ देखते मैनें भी उठने में ही भलाई समझी । पर मन में ये उम्मीद थी कि मेरे नाम का पर्चा ख़ुल ही जायेगा , रह रह कर उम्मीद में नज़रें उनके चेहरे पर जा टिकती थी , उनकी आंख़ों में आश्वासन तलाशता । फ़िर वो पल भी आया ,जब उस पद के लिये नाम की घोषणा हो ही गयी , पर अफ़सोस कि वो नाम मेरा नहीं था , बल्कि वो आरक्षित तबके के हम सबसे जूनियर का नाम था ,  सी एम डी  का अपना पद भी तो ये विभाग के आरक्षित वर्ग के मंत्री की सिफ़ारिश से पाये थे , तो उनको खुश करने कुछ तो करना ही था । भले बाकियों की प्याज़ कटे , उनके बाप का क्या जाना है ।  

 

इतनी मेहनत , इतना वक़्त अपना ज़ाया कर भी ,काम न बन पाने की ख़ीज़ थी ही मन में , पर ख़ुद को समझा भी रहा था ,कि

 

उपेक्षा को कभी अपनी विफ़लता नहीं मानना चाहिये ,

हर किसी को कभी न कभी अस्वीकार्यता का सामना तो करना ही पड़ता है,

अब मैं ही तो कोई अकेला अपवाद नहीं ,जिस के साथ ऐसा पहली बार हो रहा था

 

उपेक्षा की अग्नि को शांत करने  कोई प्रतिशोध ले पाऊं इतनी तो औक़ात भी नही है

 

        लौटते वक़्त , सांध्य-भ्रमण का शौकीन , मेरा एक जूनियर , मुझसे आ लगा ,

 

‘उपर से आ रहे हैं सर’ !!

 

उसने अपने दाहिने कंधे पर से ,उस छोटी सी पहाड़ी पर बने उच्च-विश्राम-गृह पर नज़र डालते हुए कहा । कदाचित उसे भी मेरी महत्वाकांक्षा का भान था , मेरा उतरा हुआ चेहरा सारी चुगली कर रहा था ।

 

‘क्या हुआ सर , कुछ जमा नहीं’ ??

‘क्या बोला उन्होंने , कब तक ……….’??

 

नासूर तो मेरा पक ही चुका था , उसकी पूछ्ताछ ने उस पर नश्तर फ़िरा दिया था बस ।

 

‘अरे ये अफ़सर  !! मादऽऽऽ…………………..’

 

और सारा मवाद ,रैफ़लेशिया के फ़ूल सा गंधाता , अप-संस्कृत शब्दों की शक़्ल धर बहता चला गया ।

निकृष्ट चौपायों से , उस अफ़सर परिवार के , अंतरंग संबधों की सचित्र व्याख़्या ने तो ,सुन रहे मेरे ज़ूनियर की शक़्ल ऐसे बिगाड़ के रख दी , जैसे उसके जीभ पर किसी ने संसार की सबसे तेज़ ‘भूत-झोलकिया’ मिर्च पूरी की पूरी काट के रख़ दी हो , उसके रक्तिम कान धुंआं-धुंआं होने लगे , कि अचानक वह मोड़ आया जहां से उसे मुड़ना था , बस बिना औपचरिक विदा लिये वो तेज़ कदमों से मुझसे दूर होता गया ।

 

मैं भी मुड़ा , मेरा घर सामने ही था । गेट के बाहर लगे आम के बड़े से पेड़ की , बड़ी सी टहनी जो  मेरे दृश्य-विस्तार में बाधा बनती थी , हाल ही में कटवाई थी , उसी की ठूंठ पर अक्सर शाम विराज़मान होते ,एक उल्लू से आंखें चार हुईं । मैंने पढ़ा था , कहीं , उल्लू अपनी दोनों आंखों से अलग-अलग देख सकता है । उल्लुओं की ये योग्यता नैसर्गिक है , प्रकृति ने रात में शिकार के सटीक  आकलन हेतु इन्हें ये वरदान दिया है ।मुझे घूरती उसकी एक आंख की पुतली मेरे दूर-भीतर के नंगे सच की थाह पाने , किसी कैमरे के टेलिस्कोपिक लैंस की तरह सिकुड़ रही थी , जबकि उसकी दूसरी पुतली मेरे छ्द्म व्यक्तिव का विस्तारित ‘वाइड-ऐंगल-पैनोरेमिक-विव्यू’ पाने की तलाश में बेतहाशा फ़ैल रही थी ।  इस उल्लू से  मेरा सबाका अक्सर पड़ता रहता है , पर इसके बारे में फ़िर कभी बात करूंगा । फ़िलहाल तो मैं उससे नज़रें चुराता , लोहे के गेट के उसी  अर्धचंद्र कुंदे को  हटाते और तेज़ खटाऽऽक……… के साथ वापस-बिठाते , अपने घर के अन्दर चुपचाप सरक लिया ।

 

 


Rate this content
Log in