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बिड़ला विद्या मंदिर नैनीताल १०

बिड़ला विद्या मंदिर नैनीताल १०

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जब १९६७ में हमारे पापा बिड़ला में एडमिशन कराने गए तो उसी समय से सख्त अनुशासन शुरू हो गया। कुछ ऐसे टीचर्स भी थे जो १९४७ से १९५१ के समय के थे जब हमारे पापा वहां पढ़ते थे।

पुराने या नए टीचर्स से मुलाक़ात कराते समय, क्या मजाल कि हम जेब में हाथ डाल लें। फौरन पापा हाथ बाहर निकालने को कहते, चाहे कितनी भी ठंड हो।

वह नियम आदत बन गई कि अपनों से बड़ों के सामने हाथ जेब में नहीं होते।

बिड़ला में ब्रेकफ़ास्ट, लंच व डिनर खान्चे वाली थालीओं में मिलता है। थाली में परोसा हुआ कुछ भी भोजन नहीं छोड़ सकते, चाहे वह थाली में पहले से परोसा हुआ है या फिर खुद लिया हुआ हो। ख़त्म करना ही पड़ेगा।

ठंडे खाने, खाने में भी फर्क होता है, एक ठंडा उस समय के नैनिताल का हो और एक लखनऊ या मुंबई का हो, दोनों के ठंडेपन में जमीन-आसमान का फर्क होता है।

चाहे ठंडा साबुत दाना हो, ठंडा पोरिज (दूध वाला दलिया) हो या फिर बिच्छु बूटी की सब्जी हो, कुछ भी हो, वह तो खाना ही पड़ेगा।

वह नियम भी आदत बन गई जो अब तक कायम है। ना यह पसंद है कि घर का कोई भी सदस्य या आया हुआ मेहमान थाली या प्लेट में कुछ छोड़े।

जूनियर्स में ४ साल १९७१ तक रहे। तब तक यह सब बहुत झिलाऊ था। फिर जब सीनियर्स में आये तो रुद्रपुर वाले भाई सरदार ध्यान सिंह जी से दोस्ती हो गयी। उनसे सीखा कैसे इस नीरस भोजन को भी एंजाय किया जा सकता है। रोटी नहीं पसंद आ रही है और दाल कुछ ठीक बनी है तो, सिर्फ दाल पिओ।

स्वीट डिश लंच डिनर दोनों में मिलती थी। हफ्ते में दो दिन केले वाला कस्टर्ड मिलता था और दो दिन लाल लाल जैली, बहुत थोड़ी सी वाहइट क्रीम डली हुई। दोनों ही आइटम गिल गिले गिल गिले। नाक भौं सिकोड़ कर छोटे बच्चों की सुबह की शिफ्ट याद दिला कर, लिहाड़ा (मिज़ाज़ खराब) कर दो, तो पडोसी छात्र भाई भी हमको यह दोनों स्वीट डिश देकर हमारा अहसान मानते थे।

बिड़ला में तीन ही चीज़ गरम मिलती थी, चाय, दाल और रोटियां।

सन्डे की रात को डिनर में ब्रैड (डबल रोटी) व दाल का पानी मिलता था, जो कि दिन भर के खेलने की थकान के बाद सबसे ज्यादा कष्टकारी था, वह रात्रि उपवास होता था।

रात्रि को अक्सर कई साथी हाउस कीपर जी से चुंगी से आमलेट बन (जिसको हम आज तक बंद कहते हैं) मंगवा लेते थे। जिसने बिड़ला में रह कर चुंगी के बन आमलेट का स्वाद नहीं चखा, मानो वह स्वर्ग सुख से वंचित रह गया।

वहां यह भ्रान्ति थी कि जिन छात्र भाइयों ने बैंड ले रखा है, उनको एक्स्ट्रा पॉवर की ज़रुरत है, अतः उन्हें एक एक्स्ट्रा अंडा मिलता था। इसमें कोई शक नहीं कि बैंड मास्टर गुरु सरदार जी के शिष्यों को बैंड सीखने में मेहनत बहुत करनी पड़ती थी।

........क्रमशः .......


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