आत्मग्लानि
आत्मग्लानि
उस दिन घर लौटने में काफी देर हो गए थे , सितंबर का महीना था , शाम के छः बज रहे थे , सूर्यास्त हो चला था। मैं अपनी मोटरसाइकिल के पास खड़ा था और चाचा सामने वाली दुकान से कुछ मिठाईयाँ ले रहे थे।
संतोष मिठाईवाला और उसके बगल में रंगीला पान भंडार भर ही खुले थे , जो शहर से आने वाली आखिरी जीप का इंतेज़ार कर रहे थे। अभी-अभी ये आखिरी जीप भी टूटी सड़कों पे हिचकोले खाते हुए गुज़र गई , अब इनकी दुकान भी बंद हो जाऐगी। कुछ एक सब्जी दुकान वाले थे , जो अपनी बची सब्ज़ियों को साईकिल पर लाद कर निकल चुके थे ; दूर जाते हुए दिखाई दे रहे थे। आस पास के गाँव करीब 3 KM की दूरी पर थे।
दो घंटा पहले जिस बाज़ार में लोगों की चहल-पहल थी , खेल-तमाशे हो रहे थे , सूरज ढ़लते हीं एक डरावनी सन्नाटे का चादर ओढ़े बैठी थी। 12 साल का मैं डरपोक लड़का , इस सन्नाटे से और ज्यादा डर रहा था। चोरी-डकैती , अपहरण आम बात थी इसलिए हर कोई समय से घर जाने की जल्दी में रहता।
'बाबू-बाबू , दू गो रोप्या दे दो हमके , खाएके बा , उपरवाला तुमको बहुत बड़ा आदमी बनाएगा '- आवाज़ सुनकर अपने सामने खड़े 50 साल के व्यक्ति को मैं नीचे से ऊपर तक देखा और देखते ही सहम कर काँप उठा। धारकोसवा (बच्चा पकड़ने वाला ) इसके बारे में तो दादी की कहानियों में सुना था , आज मेरे सामने खड़ा है ; बदन से पसीने छूटने लगे , सांसें तेज होने लगी और डर से आवाज़ भी बंद हो गई !
शक़्ल से बुज़ुर्ग व्यक्ति भिखमंगा या फिर गरीब भी नहीं दिख रहा था , जिससे मैं उसके याचना पर भरोसा कर लूँ। धारकोसवा नौटंकी किस्म के भी होते हैं , दादी ने ये भी कहानियों में बताया था।
"बाबू-बाबू , होवे तो दे दो ना , भूख लागल है जोर से , बहुत दिन से कुछ न खाए हैं " -उसने फिर अपना सवाल दुहराया।
कहीं ये मुझे न खा जाये इसलिए डरते हुए पॉकेट में हाथ डाला , करीब दस रुपये तक के सिक्के पड़े थे ज़ेब में,जो मेरे लिए कुबेर का खज़ाना था। घर पर सब बताते हैं कि सवाल करने वाले की मदद करनी चाहिए , मगर मैं अपने ख़ज़ाने को व्यर्थ की बातों में पड़कर गँवाना नहीं चाहता था। अरे ....... इतने में तो बहुत दिनों तक चॉकलेट और पारलेजी बिस्कुट खाया जा सकता है , मौज- मस्ती हो सकती है !
चाचा के तरफ देखा उम्मीद जगी कि अगर ये मुझे लेकर भागेगा या फिर पैसे छीनने की कोशिश करेगा तो मैं थोड़ा चिल्ला दूँगा ; चाचा इसे पकड़ लेंगे , लेकिन ,.... मैं इसे पैसे नहीं दूँगा, ..व्यर्थ में अपने ख़ज़ाने को नहीं गवाऊँगा -निश्चय किया !
"हमरी पास नहीं है , हम ता अभी बच्चा हैं , हमरे पास कहाँ से पइसा रहेगा "-डरते हुए उससे कहा। तब तक चाचा मिठाइयाँ (कुछ खुरमा और बताशा थे ) लेकर लौटे। घर पर मिलाद था और ये मिठाइयाँ उसी लिए थे। मेरे जान में जान आई !
याचक ने अब उनसे सवाल दुहराया -
बद्तमीज़ इंसान , बच्चे से पैसे मांगते हो , चलो फूटो यहाँ से ,एक पैसा भी नहीं मिलेगा - चाचा ने उसे मुझसे पैसे मांगते हुए देख लिया था , डांटकर भगा दिया !
सुबह से शाम तक कुछ सौ रूपये तक की ही बिक्री हुयी थी ,ऊपर से घर पर मिलाद था (चाचा मिठाइयाँ उसी लिए ले रहे थे ) पारा गरम होना ज़ाहिर बात थी। अब हम दोनों (चाचा_भतीजा ) मोटरसाईकिल पर सवार हो रवाना हो गए , बाइक की गति के साथ ऐसा महसूस हो रहा था कि मैं बहुत बड़ी मुसीबत से छुटकारा पाकर जा रहा हूँ, दिल हल्का हो रहा था।
मैं अपने चाचा के साथ कभी-कभी उनके दवा दुकान पर जाया करता था। दुकान शहर में थी , आते-जाते इस चौक से जो विकसित होने के क्रम में था (15-20 दुकान हो चुके थे ) गुज़रकर जाना होता।
अगले दिन सुबह 9 बजे बाज़ार से गुज़रते हुए वह मुझे दिखाई दिया। आज यह काफी मुरझाया हुआ था ,उसके हालात उसके चेहरे से साफ़ झलक रहे थे।
अज़नबी है, कहीं से भूल-भटककर आया होगा। परन्तु, इसे तो गाँव में जाना चाहिए। यहाँ इस बाज़ार में कौन रहता है ,दिन में थोड़ी-बहुत चहल-पहल और रात की डरावनी सन्नाटा के अलावा। ये गांव जाकर मज़दूरी भी कर सकता है ,पर इसे काम देगा कौन.......? आजकल गाँव में चोर/डाकुओं का हो हल्ला है , हो सकता है यह चोरों का भेदी हो ! यहाँ इसकी झूठ भी नहीं चल सकती....... ,क्यूंकि , गाँव के हर एक चेहरे जाने-पहचाने होते हैं। परन्तु, कम से कम एक बार इसे कोशिश तो करनी चाहिए ,..लगता है ये आलसी भी है -- यह सोचते-सोचते वह कब मेरे नज़रों से ओझल हो गया कुछ पता न चला।
मन में जिज्ञासा उत्पन्न हुई कि शाम को घर लौटते समय उसके बारे में जानूं ,उसका नाम क्या है...?, वह कहाँ से आया है...?, और भी बहुत सारी बातें कि उसकी असलियत क्या है......? भले ही डरते-डरते लेकिन जानने की कोशिश करूँगा !
आज लौटते वक़्त शाम के पांच बज गए थे , चाचा सब्जियां लेने लगे और मेरी निगाहें उस अज़नबी को इधर-उधर ढूंढने लगी। लेकिन ये क्या......! वो मुझे कहीं दूर-दूर तक दिखाई नहीं दे रहा है -मैं थोड़ा परेशान हुआ।
अरे, ऐसे -कैसे , वह अपनी पहचान बताये बिना कैसे गुम हो सकता है ? अगर मिल जाए तो मैं उसे अपने अपने कुबेर के ख़ज़ाने को दे भी दूँ !
लगता है शायद ,उसे अपनी मंज़िल का रास्ता मिल गया होगा। अब वो यहाँ क्या करता ? लेकिन उसकी पहचान संदिग्ध रह गई है और ये बात मुझे खाए जा रही है !
करीब तीन महीने बाद
दिसम्बर का महिना था , कड़ाके की ठण्ड पड़ रही थी ,रात के करीब 8 बज रहे थे। मैं और मेरा छोटा भाई कम्बल में दुबककर दादी की कहानियों को सुन रहे थे। दादी राजा-महाराजाओं और परियों की कहानियां सुना रही थी। तभी अचानक, गाँव में हो-हल्ला,हंगामा शुरू हो गया। ऐसा हो-हल्ला किसी चोर/डाकू के पकड़े जाने पर ही सुनाई देता था।
हम दोनों भाई डर से कांपने लगे, शरीर से पसीने छूट रहे थे ; कहीं हमारे घर में भी कोई चोर न घुस जाये।
दादी हमें ढ़ीठ बनाने की कोशिश करने लगी और थपकियाँ देते-देते सुला दी।
अगली सुबह मैं मेरा छोटा भाई और पड़ोस के लगभग सभी लड़के खेलने के लिए बगीचे की तरफ निकले तो नीम के पास लगी भीड़ को देख कर रुक गए। नीम का पेड़ गाँव के बीचों-बीच था और पंचायती या फिर गाँव की अन्य बैठक यहीं पर होती थी।
"रुको सब, चाहे आगे चलकर खेल शुरू करो सब तब तक हम देख के आ रहे हैं कि का हुआ है..... , आएंगे तो बताएंगे की का हुआ है" - बड़ा भाई होने के नाते रौब दिखाते हुए मैंने कहा।
"ठीक है जल्दी से आ जइयो "- कहते हुए वे पश्चिम दिशा की तरफ जहाँ हमारा बगीचा था , बढ़ गए।
मैं उत्सुकता के साथ आगे बढ़ा , पता चला कि किसी की शव पड़ी है।
जमादार साहब , मुखिया जी , सरपंच साहब और भी अन्य सारे लोग उपस्थित थे। वहां मौज़ूद सभी लोग उसकी मौत पर प्रायश्चित कर रहे थे ,जैसे कि उन्होंने ही उसे मौत के घाट उतारा हो। शव के नज़दीक जाने पर जो चेहरा सामने आया उसे देखकर मैं भी स्तब्ध रह गया। गाँव के कुछ लोग जमादार साहब और मुखिया जी को बता रहे थे कि -
"कुछ दिनों पहले ही यह गाँव में आया था। कभी मेहनत-मजदूरी करके , कभी भिक्षा मांग कर अपना जीवन-यापन कर रहा था। किसी से अपने बारे में कुछ बताता भी नहीं था , हम सब को भी इसपर संदेह होता था। और तो और इसने गाँव के बाहर एक कुटिया भी बना ली थी पर, इधर कुछ दिनों से इसकी तबीयत ख़राब चल रही थी। तबीयत ख़राब हो जाने की वज़ह से यह ना तो मेहनत-मजदूरी कर पा रहा था और ना ही अपनी कुटिया से बाहर निकलकर भिक्षा मांग रहा था। किसी ने कुछ ले जाकर दे दिया तो खा लेता था नहीं तो इसी तरह पानी पीकर सो रहा था। कल रात जब भूख ने अपनी चरम सीमा पार की तो यह रोटी की जुगाड़ में निकला ,पर सभी घरों के दरवाज़ों को बंद पाकर यह हैरान हुआ ; एक दो घरों के दरवाज़ों को भी खटखटाया ,पर कोई जवाब न पाकर इसने एक तरकीब सोची - यह गुपचुप तरीके से रामेश्वर के घर जा पहुंचा। बदक़िस्मती देखिए रोटी लेकर भाग ही रहा था कि अँधेरे में रामेश्वर के बेटे से टकरा गया। फिर क्या था ....!,उसने शोर मचा दिया और लोगों ने बिना सोचे समझे अपने घरों लाठी-डंडा लेकर निकले और मारते -मारते ये हालत कर दी। उन्हें ये लग रहा था कि ये कोई कीमती सामान लेकर भाग रहा है पर चेहरा जो सामने आया सभी अवाक् रह गए।
उसके बंद मुट्ठी में रोटी बहुतेरे सवाल कर रही थी। वह ना मेरा चिर-परिचित था और ना ही कोई रिश्तेदार परन्तु मानवीयता अपने चरम सीमा पर जागृत थी। उसके अकड़ू शरीर को देखकर और मौत की भयावह परिस्थिति को कल्पना कर दिल काँप उठा, आँखों में नमी आ गयी। बड़ी मुश्किल से खुद को संभाला।
घरवालों के बताये रास्ते पर ना चला था , पैसा होते हुए भी इसकी मदद न कर पाया था। आत्मग्लानि हो रही थी।
पर जो बात सबसे ज्यादा खाए जा रही थी वो ये की इसकी पहचान संदिग्ध रह गयी थी। पर जो भी होगा "पापी पेट का दुर्बल घोड़ा " इसके पहचान के लिए काफी है , जो अपने पेट भरने में असमर्थ रहा , अपने प्राण गवां दिए। यहीं सोचकर उसका नामाकरण 'पापी पेट का दुर्बल घोड़ा से कर दिया।
हिन्दू लोगों ने प्रायश्चित और पापमुक्ति के लिए एक विशाल महायज्ञ का आयोजन किया और मुस्लिम लोगों ने जमकर सड़का-खैरात किया। कल तक जो ज़िंदा होकर भी मृत सामान था , जिसकी कोई पहचान नहीं थी, वो अब मरने के बाद जिवित हो उठा एक आत्मग्लानि के रूप में।
-'साहिल' तनवीर