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सच्चा सुख निरोगी काया

सच्चा सुख निरोगी काया

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अपने मखमली बिस्तर पर अंतिम साँसे ले रही थी। पास ही पति, सास-ससुर, माता-पिता तथा दोनों बच्चे, सब मौजूद थे। पति चाँदी की कटोरी चम्मच में गंगाजल लिए थोड़ा सा पीने की मनुहार कर रहे थे। वह खामोशी से कभी छत को ताकती, कभी पति तो कभी अन्य सदस्यों को... यूँ भी जबसे बीमारी ने जोर पकड़ा था खाना- पीना, बोलना, सोना कम हो गया था। उसकी रातें अक्सर छत या अपने आस-पास के कीमती सामान को ताकते हुए ही बीतती थी।

जब अशोक से उसका विवाह हुआ था, उनकी गिफ्ट आइटम की दो फैक्टरियाँ थी। जिसे पति और ससुर संभालते थे। वह खुद एम.बी.ए. थी तथा व्यापार के दांव-पेच जानती थी। उसके सहयोग से सबने मिलकर व्यापार अंतराष्ट्रीय स्तर तक बढ़ा लिया और तकनीकी सहायता से ऑनलाइन आर्डर-सप्लाई भी शुरू कर दिया। छोटी कोठी के स्थान पर अब एक आलीशान महलनुमा भवन था। महँगी कारें नौकर-चाकर सब कुछ था उनके पास। दोनों बच्चे भी विदेश में अध्यनरत थे। काम बढ़ने के साथ सबकी व्यस्तता भी बढ़ती गयी और फिर एक दिन ये सब हो गया।

करीब आठ माह पहले उसे मुँह में छाले होने से खाने-पीने में दिक्कत हो रही थी। वो जूस या सूप पी कर अपना काम चला लेती थी। यूँ भी काम की भाग- दौड़ में उसे वक़्त कम ही मिलता था पर छाले थे कि बढ़ते जा रहे थे। डॉक्टर को दिखाया, पर दवा ने काम ना किया बल्कि पूरा मुँह छालों से भर गया। जाँच होने पर ये जानलेवा मुँह का कैंसर निकला। ये इतनी रफ़्तार से बढ़ेगा इसका किसी को अनुमान ही न था। अस्पताल में भर्ती कर इलाज करवाया पर कुछ न हुआ। बीमारी थी कि पेट तक जा पहुंची। खाने के नाम पर नली द्वारा तरल पदार्थ दिया जाने लगा पर कितने दिन, आखिर बिगड़ते स्वास्थ्य को देखकर डॉक्टर ने भी जवाब दे दिया। अभी 4 रोज़ पहले ही घर लाए थे। 24 घंटे एक नर्स और डाक्टर तैनात थे उसके लिए।

छत को ताकते हुए सोच रही थी उसके दादू ठीक कहते थे - पहला सुख निरोगी काया। रोग के आगे सारे सुख बेकार... वो आज तक दादू की बातों को भुलाकर विलासितापूर्ण जीवन में सुख ढूँढ़ रही थी। रूपया पैसा, घर-बार, नौकर- चाकर, सास-ससुर, पति बच्चों का प्यार सबकुछ तो था उसके पास... बस अगर कोई कमी थी तो वो थी निरोगी काया की!

अशोक ने उसकी आँखों से लुढ़क आये आँसू टिश्यू से पोंछे। निशा ने पति का हाथ थाम लिया और बस एक आखिरी हिचकी ली।


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