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jitendra shivhare

Classics

2.8  

jitendra shivhare

Classics

दार्शनिक की पाठशाला और मैं - व्यंग्य

दार्शनिक की पाठशाला और मैं - व्यंग्य

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जीवन को भली-भाँति जानने और समझने के लिए मुझे एक दार्शनिक की कक्षा में कुछ समय बिताने का सौभाग्य मिला। उन्होंने मेरी मुख-मुद्रा को भांप कर पहले मुझसे ही भरी महफिल में सवाल किया, "बेटे! तुम्हारे अनुसार जीवन क्या है?"

मैं चौंका। पहला ही प्रश्न मुझसे पूछकर उन आदरणीय ने मेरी हालत खस्ता कर दी। मुझे कुछ सूझ ही नहीं रहा था। क्या कहूँ? क्या न कहूँ? फिर थोड़ा खुद को संभालते हुये मैंने कहा, "महोदय, मेरे लिए जीवन सुबह दस से शाम छः बजे तक अपने रोजगार को बचाने और बढ़ाने का एक सक्रिय और कष्टदायक चक्रव्यूह है, जिसमें मुझे प्रतिदिन प्रवेश करना होता है और बचते-बचाते निकलना भी होता है। इस दौरान लगभग एक बार की संपूर्ण पृथ्वी की यात्रा करने के बराबर मैं चल लेता हूँ। ह्रदय के अन्दर तक फाँस की चुभन देने वाली बाॅस की डाँट और ऑफिस से निकाल बाहर फेंकने की आये दिन मिलने वाली धमकियों के बीच हर क्षण अपमान के घूँट सिर्फ इसलिए पी जाता हूँ क्योंकि मुझे अभी पन्द्रह साल और होमलोन की किश्तें चुकानी है। बेटे की स्कूल फीस का भुगतान समय पर हो इसलिए मैं समय पर अपना काम पूरा करने के लिए दिन-रात भागा दौड़ी में लगा रहता हूँ। ऑफिस से लौटने पर शाम का समय मुझे अपने परिवार के साथ बिताना होता है। बीवी की प्रतिदिन की फरमाइश जो किसी आदेश से कम नहीं होती है, अपने बटुए में रखे शेष रुपयों से जोड़-तोड़ कर सर्वाधिक महत्व की वस्तुओं को क्रय करने में जितना मानसिक दबाव और परेशानी उस वक्त सह रहा होता हूँ, उतना असहज तो मैं अपने कार्यालय में लाखों का हिसाब-किताब करने में भी कभी नहीं होता। शाम को घर लौटते समय बच्चों की छोटी-छोटी ख्वाहिशें पुरी न कर सकने की असमर्थता लिये घर की दहलीज में प्रवेश करना किसी दूसरे देश की अन्तर्राष्ट्रीय सीमा में घुसपैठ करने से कम नहीं प्रतीत होता। जहाँ अक्सर मुझे बच्चे आतंकवादी समझकर रंगे हाथ पकड़ लेते हैं और दौड़ते हुए मेरे ऊपर चढ़ाई शुरू कर देते। मैं निहत्था बेबस होकर अपने हथियार डालकर आत्मसमर्पण कर देता हूँ। फिर शुरू होते हैं उनके पूछताछ से भरे प्रश्न -"पापा! वो नया वाला खिलौना लाये के नहीं? पापा, वो रिमोट वाली कार लाये क्या? आपने प्रॉमिस किया था। मेरे सभी फ्रेंड के पास रिमोट वाली कार है सिर्फ मेरे ही पास नहीं है।" ये पुछताछ मुझे किसी अपराधी को दिये जाने वाले थर्ड डिग्री टॉर्चर से कम नहीं लगती। मेरे समझाने-बुझाने पर भी जब बच्चे नहीं मानते तब फिर आखिरकार क्रोधवश मुझे उन पर हाथ उठाना पड़ता है जिससे भयभीत होकर वे भूखे पेट ही सो जाते हैं। ऑफिस का गुस्सा कभी बच्चों पर तो कभी पत्नी पर निकालकर मैं पश्चाताप से भर उठता हूँ। बुढ़े माता-पिता हर शाम यही सोचकर मेरी आँखों में आँखें डाल कर मुझे ऐसे देखते हैं मानो अपना एकमात्र प्रश्न जो वे वर्षों से पुछ रहे हैं, पुनः वही पुछ रहें हों कि - "बेटा! चारधाम यात्रा की टिकिट बुक करवा लाये क्या?" उस समय मैं अपने माता-पिता से नज़र नहीं मिला पाता और वह भी मेरी मनःस्थिति भांपकर आगे कुछ नहीं पूछते। रात में जल्दी सोकर मुझे सुबह जल्दी उठकर ऑफिस भागना होता है क्योंकि मैंने अपनी बहन को स्कूटी मोपेट दिलाने का वादा पिछले रक्षाबंधन पर किया था, यदि कहीं उससे मेरा आमना-सामना हो गया तो उसे मैं क्या जवाब दूँगा? पत्नि का सूना गला और कोरे हाथ जब भी देखता हूँ तो सुनार के यहाँ रखे उसके गिरवी गहनों को छुड़ा नहीं सकने की पीड़ा अपनी पत्नी की आँखों में प्रतिदिन देखकर आत्मग्लानि से भर उठता हूँ।

अपनी बूढ़ी मोटरसाइकिल जिसे मैं अधिक और वो मुझे कम ही ढो पाती है, को देखकर दोस्त लोग उसे म्यूज़ियम में रखवाने का तंज कसते हैं। जिसे सुनकर भी मैं अनसुना कर देता हूँ। नये कपड़े खरीदना मेरे लिए हमेशा चुनौतीपूर्ण कार्य जैसा ही रहा है। फटे कपड़े सिलकर, रफू करवाकर पहनने की जैसे अब आदत-सी हो गयी है। कपड़ो पर चिथड़े लगाने और पहनने में आधुनिक फैशन ने मुझे बहुत सपोर्ट किया। "ये फैशन है" सोचकर कोई भी मेरे कपड़ो पर टीका-टिप्पणी नहीं करता।

जन्मदिन पर सहकर्मी अक्सर घर बुलवाकर पार्टी देने की बात करते हैं। उन्हें घर बुलाना या पार्टी देना यानि कि पाँच से छः हजार रुपये का व्यय। ये इतना व्यय है जितने में मेरे संपूर्ण परिवार के लिए पूरे माह का राशन आ सकता है। अगर इतने ही रुपये मैं व्यय करूँ तो माँ-बाबूजी के तीर्थ जाने की व्यवस्था हो सकती है। इतने ही रुपये यदि अपनी मोटरसाइकिल पर खर्च करूँ तो वो नई-नवेली चमचमाती बाइक बन सकती है। यही रुपये डाउनपेमेंट कर फाइनेंस करवाकर बहन के कॉलेज जाने के लिए स्कूटी खरीदी जा सकती है। इसलिए मैं अपना जन्मदिन नहीं मनाता कहकर अक्सर मित्रों को टाल देता हूँ। इतना ही नहीं मैं स्वयं उनके जन्मदिन पर बधाई के अलावा कुछ नहीं दे पाता। हजार-पांच सौ रुपये से कम का लिफाफा नहीं दिया तो वह मित्र क्या सोचेगा? इसीलिए उनकी पार्टी भी अटेंड नहीं करता।"

कहते-कहते मैं कुछ देर चुप रहकर फिर बोला -

"मेरे नजरिये से गुरुजी, जो मैं अब तक देख सका और अनुभव किया शायद इसे ही जीवन कहते हैं।" मेरा मौन वातावरण को भी मौन कर गया।

दार्शनिक महोदय और उनके सहयोगी तथा आसपास बैठे सभी अनुयायी हतप्रद होकर मुझे देखे जा रहे थे। सभी टक-टकी लगाये यह देखना चाहते थे कि दार्शनिक गुरुजी मेरे उत्तर को स्वीकार करते हैं अथवा अस्वीकार। साथ ही गुरुजी अपने कौनसे नये विचार रखते हैं मेरे विचारों को सुनने के बाद?

दार्शनिक गुरुजी ने मेरे सिर पर हाथ रखा और कहा, "बेटा! अभी तुम्हारा मन स्थिर नहीं है। मन जब स्थिर हो तब आना। विस्तार से चर्चा करेंगे।" ऐसा कहकर दार्शनिक गुरुजी ने अपने नजदीक खड़े एक शिष्य के कान में कुछ कहा और उठकर चल दिये। अगले ही पल आश्रम के उस शिष्य ने समय पुर्व ही कक्षा सम्पन्न होने की घोषणा कर दी। सभी अनुयायियों के साथ मैं भी अपने घर की ओर निकल पड़ा। मन का बोझ कुछ हल्का तो अवश्य हुआ था। दार्शनिक की पाठशाला में आने का यह त्वरित लाभ मैं महसूस कर रहा था।


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