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मन का बोझ

मन का बोझ

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कहानी ख़त्म होते ही कुशाग्र और सुनील अपने स्थान से उठे और भरी आँखों से एक दूसरे के गले लग गये। दोनों कहानी का अर्थ समझ चुके थे और उनके मन का मैल उनके आँसुओं से धुल चुका था।

यूँ तो कुशाग्र बिल्कुल अपने नाम की तरह कुशाग्र था, खेलकूद हो या पढ़ाई हर चीज़ में अव्वल। वह सबसे आदरपूर्वक बात करता था पर प्रतिदिन सुनील के साथ विद्यालय जाने के कारण उससे कुछ अधिक घनिष्टता थी। विद्यालय के होनहार बालकों में दोनों का नाम शिखर पर था और ये शिक्षकों के चहेते भी थे।

इस वर्ष की मुक्केबाजी प्रतियोगिता के दौरान, खेल-खेल में सुनील का एक मुक्का कुशाग्र के अचानक घूम जाने की वजह से उसके कंधे पर लगा। जिसके लिए कुशाग्र तैयार ना था। उसके कंधे में तेज दर्द हुआ और वह प्रतियोगिता जीतते-जीतते रह गया और सूजन और दर्द भी कई दिन तक बना रहा।

बस उस दिन से गलतफहमी के चलते दोनों में ठन गयी। कुशाग्र ने सुनील के साथ विद्यालय जाना और बात करना बंद कर दिया। यहाँ तक कि कक्षा में भी अलग बैठने लगा। धीरे धीरे ये बात विद्यालय में फैलते हुए शिक्षकों के कानों में भी पड़ी। सभी को बुरा लगा और सबने उन्हें समझाने की सोची।

हिंदी के शिक्षक ने कक्षा में भगवान् बुद्ध के अनुयायिओं की एक कथा सुनाई जिस में दोनों अनुयायिओं ने स्त्री को हाथ ना लगाने की कसम खायी थी। दोनों नदी पार करना चाहते थे। वहीं खड़ी एक स्त्री ने नदी पार करने के लिए उनसे मदद माँगी, तो एक अनुयायी ने उसे अपनी पीठ पर बैठा कर नदी पार करवा दी तत्पश्चात दोनों अनुयायी अपने रास्ते चल दिए।

काफी देर दोनों में कोई बात ना होने के बाद दूसरे अनुयायी ने पहले वाले से पूछा "तुमने उस स्त्री को हाथ लगाया और नदी भी पार करवाई, तुम्हें ये सब शोभा नहीं देता।"

पहला अनुयायी बोला "मैंने तो उसे नदी के दूसरी ओर उतार दिया था, पर तुम तो उसे अभी भी उठाये हुए हो।"

इतना कह कर शिक्षक कुछ देर चुप रहे, फिर बच्चों से पूछा "तुम्हें इससे क्या शिक्षा मिलती है ?"

कुशाग्र ने ही आगे रह कर जवाब दिया "जो बीत गया उसे भुला देना चाहिए।"

शिक्षक ने उस से पूछा "फिर तुम कुछ बातों को क्यों अब भी अपने मन में लिए फिर रहे हो।"

कक्षा म़ें मौन पसर गया, सभी बच्चों के साथ सुनील और कुशाग्र को भी अपनी गलती का एहसास हो चुका था। अगले ही दिन से दोनों फिर से एक साथ विद्यालय जाने लगे।


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