सच्ची दीवाली
सच्ची दीवाली
रामनगर के पहाड़ी इलाके के गाँव में एक गरीब परिवार रहता था। आर्थिक स्थिति ठीक का न होने के कारण उस परिवार का पालन-पोषण बड़ी मुश्किल से हो पाता था। इस परिवार में महेश नाम का दस वर्ष का एक बालक भी था। वह बहुत ही होनहार था, इसलिए उसके पिता उसे किसी तरह से स्कूल भेज रहे थे। उन्हें विश्वास था कि महेश बड़ा होकर उनकी इस परेशानी को जरूर दूर करेगा। महेश के प्रति जहाँ पिताजी का विशेष स्नेह था, तो वही वह अपनी माँ की आँखों का तारा था। समय जैसे- तैसे बीत रहा था पर अचानक एक दिन महेश के पिताजी का अकस्मात देहांत हो गया। उस परिवार पर तो दुखों का पहाड़ पहले से ही था, पर यह तो बिजली गिर पड़ी थी। अब तो महेश के पास कुछ भी शेष न रहा क्योकि उसके पिताजी के बलबूते पर ही उसका परिवार जी रहा था। अब उसका परिवार कैसे जियेगा ? क्या होगा उसका ? वह स्कूल कैसे जायेगा ?
काम की तलाश में और इसी उलझन में वह सड़क पर चला जा रहा था कि तभी उसे किसी के बुलाने की आवाज आई। वह सहसा रुक गया। उसके सामने एक सेठ खड़े थे। सेठ जी ने उसे बताया कि दीवाली आने वाली है। उनकी एक पुरानी हवेली है, जो बहुत विशाल है और उन्हें उसकी साफ – सफाई करवानी है l लेकिन वह पूरे घर की साफ – सफाई एक साथ नहीं करवाना चाहते। उनकी इच्छा थी कि कोई ऐसा मजदूर मिल जाए जो एक दिन में केवल एक कमरा साफ करें। जब उन्हें सड़क पर महेश काम की तलाश में दिखा तो उन्होंने उसे वह काम करने के लिए रोका और पूछा। महेश ने सहर्ष उस काम को स्वीकार कर लिया क्योकि उसे रुपयों की जरूरत जो थी। महेश रोज समय पर हवेली जाता और एक कमरा साफ करके अपने घर चला जाता। इस प्रकार उसने घर के बाहरी कमरों को कुछ दिनों में साफ कर दिया। अब वह अपने परिवार के लिए थोड़े-बहुत पैसे कमाने लगा था और स्कूल भी जाने लगा था। पर बच कुछ नहीं पाता था, जो वह जमा कर सके। सेठ के घर के सभी सदस्य महेश से बहुत खुश थे। वह उस पर बहुत विश्वास करने लगे थे और अच्छे आचार -व्यवहार के कारण महेश को घर में कही आने – जाने पर कोई रोक – टोक नहीं थी। चूँकि बाहर के कमरों की सफाई हो चुकी थी, इसलिए अब वह घर के आन्तरिक कमरों की साफ सफाई करने लगा था।
आज दीवाली का दिन था। महेश हवेली पर जाकर सेठ के शयनकक्ष की सफाई कर रहा था और सोच रहा था कि उसके परिवार कि दीवाली कैसे मनेगी ? इसी कशमकश में उसकी नज़र सेठ जी के कमरे में रखी कीमती वस्तुओं की ओर गयी तो उसकी आँखे खुली की खुली रह गई। कमरे में एक से बढ़कर एक सुंदर वस्तुएँ रखी हुई थी। महेश ने अपने पूरे जीवन में इतनी सुंदर, इतनी कीमती और इतनी तरह-तरह की चीज़े नहीं देखी थी। बेचारा उस चकाचौंध के आकर्षण से भौचक्का हो गया। वह अपने आप को रोक नहीं पाया और कमरें में रखी चीजो को खूब पास से ध्यानपूर्वक उठा – उठाकर देखने लगा। उसे सभी चीजें बहुत अच्छी लग रही थी। उसका बाल मन उन चीजों से आकर्षित होने लगा और यह आकर्षण कही न कही उसके नैतिक संस्कारों की जड़ों को हिला रहा था।
आख़िरकार वह लालच के जाल में फँस ही गया। अब तो उसका ध्यान उन कीमती वस्तुओं की ओर केंद्रित होकर रह गया और उसके मन से एक आवाज उठी – “यदि यह कीमती वस्तुऍ उसे मिल जाये तो उसके परिवार की दीवाली भी मन जाएगी। सब कितने खुश होंगे।” लेकिन महेश का बाल मन यह कह रहा था कि बिना पूछे किसी का सामान लेना तो चोरी कहलाता है। बहुत देर तक वह सोचता रहा और स्वयं से बोला कि, "अगर मैं इन वस्तुओं को ले लूँगा तो क्या यह तो चोरी होगी ?" पर चोरी शब्द मन में आते ही उसका सारा शरीर काँप उठा। उसके लिए यह समय किसी संकट की घड़ी से कम नहीं था। ऐसे समय में उसे अपने पिताजी की दी हुई सीख याद आ गई कि “ बेटा कभी किसी की चीज नहीं चुराना। भले ही कोई इन्सान तुम्हे चोरी करते देखे या न देखे पर ईश्वर अवश्य देख लेता है। वह चोरी करने पर बहुत बड़ी सजा देता है। यह याद रखना कि चोरी एक न एक दिन जरुर पकड़ी ही जाती है और तब सजा जरुर मिलती है।”पिताजी की बातें याद आते ही महेश को लगा कि ईश्वर उसे देख रहे हैं और उन्होंने उसके मन की चोरी वाली बात जानली है।
वह घबराकर रोने लगा और उस सामान को वही मेज पर रखकर यह कहता हुआ बाहर भागा – "पिताजी ! मैं चोर नहीं हूँ, मैं कभी चोरी नहीं करूँगा, मुझे बचा लो माँ।" वह भाग कर सीधा अपनी माँ के पास आकर रोने लगा। माँ उसके इस व्यवहार पर हैरान थी। सबसे पहले उन्होंने महेश को चुप कराया और रोने का कारण पूछा। महेश ने जब सारी बातें माँ को बताई तो उनके चेहरे पर क्रोध के नहीं प्रसन्नता के भाव थे। महेश यह सब देखकर चौंक गया और माँ से क्षमा- याचना करने लगा। माँ ने प्यार से उसके सिर पर हाथ रखा और बोली कि " बेटा ! वास्तव में तुम चोर नहीं हो। तुमने तो आज मेरा सिर गर्व से और ऊँचा कर दिया। तुमने तो असल में आज पिताजी की सीख को अपने जीवन में ढाला है। तुम सच्चे और ईमानदार पुत्र हो। सही अर्थो में आज ही हम असली दीवाली मनाएँगे।" महेश कुछ समझ नहीं पा रहा था। माँ आगे बोली कि, "बेटा ! दीवाली का त्योहार तो तमस पर प्रकाश, बुराई पर अच्छाई और अपने मन के दुर्गुणों को दूर करने का त्योहार है। तुमने आज ईमानदारी के मूल्य से इस त्योहार की सीख को अपने जीवन में ढाल लिया है। मैं आज बहुत खुश हूँ।" माँ की बात सुनकर महेश चोरी के ग्लानि भाव से बाहर आ गया और उनके पैरों पर झुक गया।