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Nine Eleven

Nine Eleven

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बहुत कुछ बदला था उस रोज जब आसमान छूती हुई इमारतें यूँ एक एक करके ज़मीन पर गिर रही थी कि जैसे कोई बूढ़ा पेङ घुटनों के बल धङाम से गिर रहा हो और साथ में टूट रहे हैं  उन नादान परिंदों के घर जो कई बरसो से वहाँ रह रहे थे ज़िंदगी हर रोज की तरह चल रही थी बिना किसी ख़ौफ़ के, डर के लोग अपने अपने कामकाज़ में मशगूल थे अनजान इस बात से कि शैतान अपना तीर छोङ चुका है हवा के रूख़ को मोङ चुका है चंद मिनटों का खेल रचा उसने और फिर देखते ही देखते हर तरफ दहशत फैल गई चारो ओर लाशों के ढ़ेर ढ़हती हुई ऊपरी मंजिलें और उन पर से गिरते हुए इंसान यूँ लग रहे थे मानों चींटियों का झुंड कोई दीवार से फिसल फिसल कर बार बार गिर रहा है, उठ रहा है सब कुछ तहस नहस हो रहा था आसमां ज़मीं को देखकर रो रहा था इंसानियत का क़त्ल हुआ था उस रोज जब हैवानियत के सौदागरों ने यूँ एक एक करके दफ़्न किया ज़िंदगी को हाँ बहुत कुछ जला था उस रोज कहीं कोई जिस्म कहीं कोई मुल्क़ कहीं कोई दिल कहीं कोई रूह हिसाब नहीं है कोई जिसका ना कोई जवाब है बस एक ज़ख़्म है हर साल जो नौवें महीने की ग्यारहवीं तारीख़ को ज़िंदा हो उठता है ।


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