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वड़वानल - 53

वड़वानल - 53

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'तलवार’  में मुम्बई और आसपास के जहाज़ों और नौसेना तल के सैनिक इकट्ठा हुए थे। आज सभी जहाज़ और सारे नौसेना तल पूरी तरह से हिन्दुस्तानी सैनिकों के कब्ज़े में थे। इन जहाज़ों पर और नौसेना तलों पर तिरंगे के साथ–साथ कम्युनिस्ट और मुस्लिम लीग के झण्डे शान से फ़हरा रहे थे। सैनिक अब तक हिंसात्मक मार्ग से दूर थे। कुछ सैनिकों के अहिंसात्मक मार्ग का विरोध करने के बावजूद सैनिकों के नेता उन्हें अहिंसात्मक मार्ग पर रोके रखने में सफ़ल हो गए थे।

सैनिकों के नारों से दिशाएँ गूँज उठी थीं। खान ने लाउडस्पीकर से सैनिकों को सम्बोधित किया। ‘‘सभी सैनिक परेड ग्राउण्ड पर जमा हो जाएँ। सभा आरम्भ होने वाली है।’’

खान ने 19 तारीख की शाम से घटित हुई घटनाओं का जायज़ा लिया और गुरु को बोलने की दावत दी।

‘‘दोस्तो! गुरु बोलने लगा,  ‘अंग्रेज़ सरकार के ख़िलाफ हमारे विद्रोह का आज का तीसरा दिन है। इन तीन दिनों में हमने जुलूस निकाले, जहाज़ों और तलों पर कब्ज़ा किया और इस दौरान हमने अहिंसात्मक मार्ग का ही अवलम्बन किया। आप सब लोगों ने जो संयम दिखाया उसके लिए सेंट्रल कमेटी आप सबकी आभारी है’।’’ 

‘‘आज हमने मुम्बई में पूरी नौसेना पर अधिकार कर लिया है। इन जहाज़ों और तलों पर आज तिरंगा, लीग का और कम्युनिस्टों का - ऐसे तीन ध्वज फहरा रहे हैं। हम तमाम जनता से और प्रमुख राजनीतिक पक्षों से कहना चाहते हैं, ‘एक हो जाओ; इस ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध एक हो जाओ।’ यदि ऐसा हुआ तभी स्वतन्त्रता का सूरज जल्दी निकलेगा और हमारी इच्छानुसार हमें आज़ादी मिलेगी... वह अंग्रेज़ों की मेहरबानी नहीं होगी।’’

‘‘हमने नौसेना पर किसी स्वार्थ की खातिर अधिकार नहीं किया है। हमें सत्ता में हिस्सेदारी नहीं चाहिए। हम स्वतन्त्र हिन्दुस्तान की नौसेना में आत्मसम्मान से सेवा करना चाहते हैं। अपने कब्ज़े में ली गई नौसेना राष्ट्रीय नेताओं के चरणों में अर्पण करना चाहते हैं। हम कांग्रेस के अध्यक्ष से लेकर सभी पार्टियों के नेताओं से मिले, उन्हें अपनी व्यथा सुनाई,  मार्गदर्शन करने की विनती की। अरुणा आसफ़ अली ने मार्गदर्शन करना स्वीकार किया था,  मगर वे आई ही नहीं; उल्टे हमें सलाह दी कि राजनीतिक और सेवा सम्बन्धी माँगों में गड़बड़ मत करो; तुम लोग सिर्फ सेवा सम्बन्धी माँगों के लिए संघर्ष करो और राजनीतिक माँगें छोड़ दो। क्यों ? क्या हम इस देश के कुछ नहीं हैं ? इस मिट्टी से हमारा कोई नाता नहीं ? क्या हमारे सेना में भर्ती होने का यह मतलब है कि हमने अपना सर्वस्व बेच दिया है ? हम सेना में भर्ती क्यों हुए ?  इसलिए कि तुमने फ़ासिज्म का भूत हमारे सामने खड़ा किया था। भूलो मत,   तुममें से ही कुछ नेता सेना में भर्ती के लिए सरकार की मदद कर रहे थे। क्रान्ति के नारे लगाने वाले नेता,  जिन पर हमें विश्वास था,  उन्होंने भी हमें अकेला,  निराधार छोड़ दिया।

‘’पूज्य महात्माजी भी इसके अपवाद नहीं हैं। महात्माजी ने हिंसक संघर्ष का कभी भी समर्थन नहीं किया। हमारा अब तक का संघर्ष अहिंसक ही तो है ना ? फिर महात्माजी ने हमें दूर क्यों धकेल दिया? कल पुणे में सायंकालीन प्रार्थना में उन्होंने हमें और हमारे संघर्ष को लताड़ा। उन्होंने कहा, अहिंसक कृति का पहला सिद्धान्त यह है कि जो–जो अपमान कारक है उससे असहयोग किया जाए। वे कहते हैं, रॉयल इंडियन नेवी की स्थापना हम हिंदुस्तानियों के हित के लिए तो नहीं ना की गई। सैनिक अपनी स्थिति में सुधार चाहते हैं। मगर वह विद्रोह के माध्यम से कैसे सुधरेगी ? सैनिक यदि असंतुष्ट हैं तो वे सेना की नौकरियाँ छोड़ दें।

‘‘पूज्य बापूजी,  यहाँ एकत्रित मेरे पन्द्रह हज़ार साथियों की ओर से नम्रतापूर्वक आपसे निवेदन करना चाहता हूँ कि हमारा संघर्ष - असहकार का संघर्ष है। जबसे हमने ‘तलवार’ में यह संघर्ष शुरू किया है तब से आज तक हम असहकार के मार्ग से ही जा रहे हैं। चूँकि हम सैनिक हैं,  हम इसे ‘विद्रोह’ कह रहे हैं। यह अहिंसक विद्रोह है।

‘‘बापूजी, आपने सरकारी नौकरों को नौकरियाँ छोड़ने के लिए कहा, नौजवानों से पढ़ाई छोड़ देने को कहा! अनेकों ने आपके शब्द की इज़्ज़त रख ली। क्या आज़ादी मिली? चूँकि हम अनुबन्ध से बँधे हैं इसलिए हम नौकरी नहीं छोड़ सकेंगे। यदि हम अनुबन्ध तोड़ देते तो क्या होता ? सरकार ने हमें जेल में डाल दिया होता। हमारे स्थान पर अन्य बेकार लोग सेना में भर्ती हो गए होते। यदि वे नहीं मिलते तो सरकार किराये के सैनिक लाकर स्वतन्त्रता आन्दोलन को दबा देती। आज हमें इण्डोनेशिया का आन्दोलन कुचलने के लिए ले ही जा रहे हैं ना ?  बापूजी,  हमने मुम्बई के नौसेना दल पर कब्जा किया है तो उसे आपके चरणों में समर्पित करने के लिए। अब हमारा नौसेना दल ‘रॉयल इण्डियन नेवी’ नहीं, बल्कि अब वह है ‘‘इण्डियन नेशनल नेवी’,,,’’

गुरु के इस नामकरण के पश्चात् सैनिकों ने ‘इण्डियन नेशनल नेवी’ का जोश से जय–जयकार किया।

‘‘मेरा विचार है कि ये कांग्रेस के नेता दुहरी नीति वाले हैं। एक तरफ़ तो इंटरव्यू देते समय हमारी प्रशंसा करते हैं; हम पर किये जा रहे अन्याय की भर्त्सना करते हैं; हमारा संघर्ष न्यायोचित है ऐसा कहते हैं और दूसरी ओर हमें सलाह देते हैं! राजनीतिक माँगों को छोड़ने की सलाह देते हैं। ऐसी दोहरी भूमिका किसलिए? मुझे तो अब यकीन हो गया है कि वे हमारा साथ नहीं देंगे। अब समय आ गया है कि अपना निर्णय हम स्वयं लें; आत्मसमर्पण करेंगे या अन्तिम साँस तक लड़ते रहेंगे ?’’

सैनिकों ने फिर एक बार नारा लगाया, ‘‘करेंगे या मरेंगे,  जय हिन्द!’’

गुरु के भाषण से वहाँ उपस्थित सैनिकों के मन सुलग उठे। गुरु के भाषण के बाद ‘डलहौजी’ का एबल सीमेन चट्टोपाध्याय जोश से बोलने के लिए खड़ा हुआ। छोटी कद–काठी वाले चट्टोपाध्याय की आँखों में दृढ़ निश्चय था, आवाज़ में आवेश था,  एक तरह की मिठास थी।

‘‘दोस्तो! आज जो मैं यहाँ खड़ा हूँ, वह सुभाष बाबू की याद दिलाने के लिए और मेरा ख़याल है कि यह अप्रासंगिक नहीं है। सुभाष बाबू ने अपने देशबन्धुओं के लिए अन्तिम सन्देश हबीबुररहमान के पास दिया था। उन्होंने कहा था, ‘‘देशबन्धुओं से कहना, देश के लिए मैं आख़िरी साँस तक लड़ता रहा। अब कोई भी ताकत और अधिक समय तक देश को ग़ुलाम बनाए नहीं रख सकती। हिन्दुस्तान स्वतन्त्र होगा - जल्दी ही ’’ , नेताजी द्वारा दिखाया गया मार्ग हम स्वीकार करते हैं या नहीं ?’’

सैनिकों ने नेताजी के और ‘जय हिन्द’ के नारे लगाए। नेताजी के उल्लेख से उनमें नयी चेतना भर गई।

‘‘हम लड़ने वाले हैं इस ज़ुल्मी अंग्रेज़ी हुक़ूमत के खिलाफ, निपट अकेले। मुझे विश्वास है कि देश की स्वतन्त्रता का यह अन्तिम संग्राम होगा। यह संग्राम हम जीतेंगे। कांग्रेस के नेता अब बूढ़े हो गए हैं। उनकी लड़ने की ताकत ख़त्म हो गई है। आज कांग्रेस दुविधा में पड़ गई है। कांग्रेस आज सिर्फ लोगों को नैतिक उपदेश ही दे सकती है,  वरना आज़ाद हिन्द सेना के सैनिकों पर और अधिकारियों पर जब मुकदमें चलाए जा रहे हैं तो इस कारण उत्पन्न जनता के क्षोभ की ओर से कांग्रेस खड़ी रहती। कांग्रेस ने अपने मरियल प्रस्ताव में कहा था, ‘देश की स्वतन्त्रता की  ख़ातिर चाहे कितने ही गलत मार्ग से क्यों न हो, खपने के कारण उन अधिकारियों, स्त्रियों और पुरुषों को यदि सज़ा दी जाती है तो वह एक शोकांतिका होगी।’ कांग्रेस का मत है कि आज हम भी ग़लत रास्ते पर हैं; तो कांग्रेस हमारा मार्गदर्शन करने, स्वतन्त्रता के इस संघर्ष में हमारा साथ देने आगे क्यों नहीं आती? सन् ’42 के पश्चात् किस संघर्ष का आह्वान कांग्रेस ने किया है? किसी भी नहीं। इसका कारण सिर्फ एक ही है, ये नेता अब थक चुके हैं। इन नेताओं के बारे में मेरे मन में नितान्त आदर है। उनके द्वारा किये गए त्याग के सामने,  उनके द्वारा झेली गई तकलीफों के सम्मुख मैं नतमस्तक हूँ। इतना होने पर भी मुझे ऐसा लगता है कि इन नेताओं को स्वतन्त्रता प्राप्ति का श्रेय चाहिए। इसी कांग्रेस ने 1942 में घोषणा की थी,  ‘करेंगे या मरेंगे’ अब वही कांग्रेस ब्रिटिश सरकार से उनकी शर्तों पर समझौता करने चली है।

‘’ यह मेरी राय नहीं,  बल्कि युद्धकाल के दौरान नेताजी द्वारा प्रकट की गई राय है और वह आज सत्य सिद्ध हो रही है। कांग्रेस के नेताओं को यह डर सता रहा है कि यदि उनके जीवनकाल में स्वतन्त्रता प्राप्त न हुई तो इतिहास में उनका समावेश 'Also ran' की फ़ेहरिस्त में हो जाएगा; लोग उगते सूरज को प्रणाम करेंगे और उन्हें भूल जाएँगे। भूलो मत, दोस्तो! हिन्दुस्तान की स्वतन्त्रता का श्रेय कांग्रेस,  महात्माजी और उनके अहिंसात्मक संघर्ष को जितना जाएगा, उससे कहीं ज़्यादा वह सुभाष बाबू, उनकी आज़ाद हिन्द सेना के सैनिकों और राजगुरु,  भगतसिंह, धिंग्रा, चाफेकर जैसे शहीदों के बलिदानों को जाता है; वह उनके खून की कीमत है।

‘‘दोस्तो! कोई भी वस्तु प्राप्त करने के लिए उसका मूल्य चुकाना पड़ता है। स्वतन्त्रता तो एक अनमोल रत्न है। उसकी कीमत भी वैसी ही होगी! हम अपने खून से यह कीमत चुकाने को तैयार हैं, हमें यह रत्न हासिल करना है। कांग्रेस और अन्य राष्ट्रीय नेता हमें समर्थन दें अथवा न दें, फिर भी हम लड़ते रहेंगे। यदि वैसी नौबत आ गई तो अपने खून का समन्दर बनाकर अंग्रेज़ों की वापसी का मार्ग बन्द कर देंगे। हम अकेले नहीं हैं। सेना के तीनों दलों में बेचैनी है। हमारे पीछे–पीछे वे भी विद्रोह करके हमारा साथ देंगे।’’

चट्टोपाध्याय द्वारा किए गए परिस्थिति के विश्लेषण से सभी सहमत थे।

उसके हर वाक्य पर तालियाँ पड़ रही थीं,  नारे लगाए जा रहे थे।

‘‘दोस्तों, हमारा संघर्ष हम अहिंसक ही रखेंगे; मगर... मगर वक्त पड़े तो हमें हाथों में शस्त्र लेने के लिए भी तैयार रहना चाहिए।’’ चट्टोपाध्याय ने अपना विचार रखते हुए भाषण समाप्त किया।

‘‘पक्का कम्युनिस्ट है!’’

‘‘होगा कम्युनिस्ट,  मगर उसका एक–एक अक्षर सही था।’’

‘‘मगर कांग्रेस की आलोचना...’’

‘‘इसमें गलत क्या है?’’

‘‘हिंसक मार्ग अपनाना...’’

‘‘वैसी नौबत आई तो करना ही पड़ेगा।’’

सैनिकों के बीच चल रही चर्चा खान के कानों में पड़ी और वह बेचैन हो गया।

‘मतभेदों के कारण एकता तो नहीं टूट जाएगी ? यदि ऐसा हुआ तो तीन दिनों से चल रहा यह संघर्ष यहीं ख़त्म हो जाएगा।’’

इस ख़याल से वह डायस पर गया और उसने हाथ में माइक लिया।

‘‘दोस्तो! कौन–सी राजनीतिक पार्टी हमें समर्थन दे रही है, इस बारे में विचार न करते हुए हमें अब सिर्फ लड़ना है; आख़िरी दम तक लड़ना है... शायद अकेले ही। कल हमारे जुलूस को मुम्बई की जनता ने जैसा अद्भुत् समर्थन दिया, उससे मुझे यकीन है कि मुम्बई की जनता हमें अकेला नहीं पड़ने देगी; वह हमारे साथ आएगी। आखिरी दम तक लड़ने का निश्चय करने के बाद उसके लिए किस मार्ग का अवलम्बन करना है,  व्यूह रचना कैसी होगी यह निश्चित करने का अधिकार,  मेरे ख़याल में,  हम सेंट्रल कमेटी को दें। कमेटी उचित निर्णय लेगी। शायद आप इससे सहमत होंगे।’’

खान की इस अपील के साथ–साथ ‘मंज़ूर है, मंज़ूर है’  यह एक ही आवाज़ गूँजी।

‘‘यदि हमारी एकता अटूट रही और हमारा बर्ताव अनुशासित रहा तभी हमारी विजय होगी...’’

खान का वाक्य अभी पूरा भी नहीं हुआ था कि एक हिन्दुस्तानी अधिकारी भागते हुए आया और डायस पर चढ़ गया।

‘‘मैं सब-लेफ्टिनेंट जोगिंदर अभी, इसी क्षण से तुम्हारे साथ आ रहा हूँ। क्योंकि यह संघर्ष स्वतन्त्रता के लिए है और एक हिन्दुस्तानी होने के नाते इस संघर्ष में शामिल होना मैं अपना कर्तव्य मानता हूँ। मैं वाइसरॉय कमीशन का ये जुआ उतार कर फेंकता हूँ,’’ और उसने कैप फेंककर कन्धों पर टंकी स्ट्राइप्स उखाड़ फेंकी और नारा लगाया, ‘‘जय हिन्द!’’

खान ने इसे शुभ शगुन समझा। उसने जोगिंदर का स्वागत किया। सभा समाप्त हुई तो ग्यारह बज चुके थे। बाहर से आए हुए सैनिकों में से अनेक लोग ‘तलवार’  में ही मँडराते रहे।

 

 

 



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