इच्छाओं की कठिन रातें
इच्छाओं की कठिन रातें
देर रात मैं अपने मायके के रिश्तेदार के यहां शादी से लौटी। मंजूषा आज सुबह से बच्चों को जैसे-तैसे स्कूल भेजने के बाद वह सोच में डूब गई की १३ साल की शादी के बाद हर तरह के ताने, कमियां गिनाने के बाद आखिर सही क्या सिर्फ उसका पति ही है। बात दिमाग में घूमते हुये पुराने दिनों में चली गयी जब बताया की महीने के उन कठिन दिनों में पति उसके हाथ का बना खाना नहीं खायेगा लेकिन सिर्फ अपने फायदे के लिये बनाये नियम कायदों में उसका तो हर समय सिर्फ इस्तेमाल ही हुआ। पांच सौ किमी के लंबे सफर के बाद घर लौटी तो देर रात गहरी नींद के बाद उसने फिर से अपने कठिन दौर में उपर अचानक बोझ महसूस किया आखिर वही सवाल फिर से सामने आ गया किसी तरह वो पल गुजरा। मंजूषा ने सुबह अपने व्यापारी पति ब्रजेश से सीधा सवाल दागा, "क्यों मेरे हाथ का बना खाना और पानी छू लेने से आपको परहेज है ? लेकिन इस कठिन वक्त में आपकी इच्छा जो मुझ पर भारी पड़ती है वह सही है। मेरे हाथ का छुआ पानी, खाना नहीं चलेगा लेकिन बाकी सब वैसा ही।" अचानक हुये इस तरह के सवाल के बाद आखिर हर बार की तरह कुटिल मुस्कान देते हुये ब्रजेश दुकान चला गया।