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हामिद

हामिद

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बात २०१२ की बारिशों की है। बैंगलोर कुछ काम से जाना था, और मुंबई की बारिश तो आप जानते ही हैं। हवाई जहाज के जाने से कुछ समय पहले ऐसी बारिश हुईकि बस पूछिए मत। सोचा पता नहीं इतनी बारिश में जहाज उड़ता भी है या नहीं। पर सब ठीक ठाक रहा, और में बंगलोर पहुँच रात में अपने होटल पहुँच गया। होटल थोड़ा शानदार टाइप का था, जहाँ दरबान आपको अंदर जाने से पहले आपका काम, नाम सब पूछता था। पर एक बार उसे पता चलता है की आप वहां रहने वाले हैं, तो ज़िद करने लगता की जैसे आपको गोद में उठा कर बिस्तर में सुला कर ही अपनी ड्यूटी पर वापस आएगा। खैर, मैं अपने कमरे में पहुंचा, और, क्योंकि इंटरनेट का सिग्नल कमरे में कमज़ोर था, कुछ ही देर में सो गया। अगले दो दिन काम में ऐसे बीते जैसे पता ही नहीं चला। आशा है आप मेरा अहसास समझ रहे हैं - पता नहीं चला क्योंकि बहुत-बहुत ज़्यादा कमरतोड़ काम था, इसलिए नहीं की बहुत-बहुत मज़ा आ रहा था। काम को ले कर अक्सर लोग ऐसी ग़लतफ़हमी का शिकार हो जाते हैं। सोचा कहीं आप तो वैसे नहीं है, तो पहले ही बता दूँ।

मेरी आदत है की काम के ट्रिप पर अक्सर में एक दिन ज़्यादा रख लेता हूँ।दफ्तर में कारण देता हूँ कि अगर काम २ दिन में पूरा नहीं हुआ, तो ये आखिरी दिन ही हमें बचाएगा, और मन ही मन सपनों मे सोचता हूँ की ऐसा करने से मुझे एक पूरा दिन खाली मिल जाएगा जिसमे में घूम सकता हूँ, मौज-मस्ती कर सकता हूँ, और अपनी पूरी ज़िन्दगी जी सकता हूँ। इस ट्रिप पर भाग्य ने साथ दिया, और मेरा काम दो दिन में ख़त्म हो गया। ऑफिस वाले जानते थे की मैं वहां एक और दिन हूँ तो दुसरे दिन मेरे लौटते समय विनम्रता से बोले, "अरे ! तुम तो कल भी यहाँ हो। सुबह आराम से आ जाना, और हमारी दूसरी टीम से भी मिल लेना। वो भी बड़ा बेहतरीन काम कर रहे हैं।" असल में वो आपसे अपना पीछा छुड़ाना चाहते हैं, और सोच रहे हैं की काम तो ख़त्म हो गया पर ये सनकी अगर कल भी दफ्तर आ गया तो पूरा दिन मेरी गोद में बैठा रहेगा, और मुझे इसके मनोरंजन का सोत्र बनना पड़ेगा। और उधर दूसरी ओर उसका न्यौता सुन आप सोच रहे हैं, "कितना पागल है ये। इतनी मुश्किल से इनसे पीछा छूटा है और ये एक दिन मिला है, उसे भी ऑफिस आ कर बर्बाद कर दूँ।" असल मे दोनो पाले के खिलाड़ी दोस्त हैं पर अपने-अपने बॉस रूपक खलनायक की तलवार के डर से ऐसी बहकी-बहकी बातें कर रहे हैं। दोनों अपनी काम में "निष्ठां" दुसरे से छुपा रहे हैं। अंत मे मैंने यह कह कर ऑफिस के अध्याय को समाप्त किआ, "अरे हाँ। यह तो बहुत बढ़िया रहेगा, मैं सुबह आता हूँ। पर थोड़ा थक गया हूँ तो देर से आऊंगा।" "बिलकुल-बिलकुल ! चलो कल मिलते हैं।", मेरे दोस्त ने कहा। हम दोनो ने एक-दुसरे की आँखों मे सच्चाई पढ़ी और अपनी-अपनी राह चल पड़े।

अगले दिन देर तक सोया, इत्मीनान से नाश्ता किया, कॉफ़ी पी, अखबार पढ़ा, सभी अंगों पर साबुन लगा कर नहाया,दोस्तों से चैटिंग करी। बातों-बातों मे पता चला की एक पुरानी दोस्त भी काम के सिलसिले में अहमदाबाद से बैंगलोर आई हुई है। और वो भी शहर में अभी एक-दो दिन और है।दोस्त पुरानी थी, और बहुत समय से एक-दुसरे की कहानी सुनी नहीं थी, तो रात में खाने पर मिलने का प्लान बन गया। शहर के एम. जी. रोड पर एम. चिन्नास्वामी स्टेडियम के नज़दीक काफी बड़ी मार्किट है - वहीँ हमने मिलने का निर्णय लिया। निर्धारित समय पर मिले, खाना खाया, गप-शप की, और एक दुसरे से ऐसे की एक अनजान शहर में मिलने का वादा करते हुए विदा ली।

पहले ऑटो ले वो अपने होटल को निकली, फिर मैं अपने लिए ऑटो पकड़ने सड़क के उस पार आया। भीड़भाड़ वाले इलाके में रात के खाने के समय ऑटो की कोई कमी नहीं थी, और करीबन आठ-दस वहां कतार बनाये खड़े थे। फिर भी मैं एक अनजान शहर में था, और क्योंकि मैं दिल्ली में बड़ा हुआ हूँ यही समझता हूँ की सब सबको बेवकूफ बनाने की फिराक में ही रहते हैं। ऑटो वाले भी कोई अलग ना होंगे, ये सोच मैंने सामने खड़े ऑटो में से किसी एक का चुनाव करना शुरू किया। एक और दिक्कत ये थी कि उस समय, २०१२ में, मेरे पास स्मार्ट फ़ोन नहीं था, तो मुझे यकीन से नहीं पता था की मेरा होटल वहां से कितना दूरी पर था। इसलिए सोचा की आक्रमण की रक्षा का सबसे अच्छा तरीका है। अकड़ते हुए एक ऑटो वाले से बोला, "कक्क होटल चलोगे ?" "बैठो साहब।" जवाब आया। पर नाप-तोल कर ही बैठना चाहिए, तो मैं बोला, "कितना किराया है वहां का ?" "मीटर से चलेंगे साहब, जो बनेगा, वो दे देना" सुन कर मेरे काम चौकन्ने हो गए। मीटर से चलने का मतलब है की चाहे बगल वाली गली में जाना है, ऑटो वाला आपको मंगल गृह से होते हुए वहां ले जाएगा। "मीटर से तो आप बहुत गड़बड़ करेंगे, रहने दीजिए।" कह मैं आगे चलने को हुआ तो पीछे से आवाज़ आई, "इतना ईमान है हममे साहब, बैठिये।" ऑटो वाला उम्र में मुझसे काफी बड़ा था, शायद मेरे बाप की उम्र से भी बड़ा था, तो बार-बार "साहब" सुन कर अटपटा लग रहा था। ऊपर से ईमान शब्द का इस्तेमाल कर उसने मुझे बहुत शर्मिंदा और छोटा कर दिया था। मैं चुपचाप उसके ऑटो में बैठ गया।

"मेरा नाम हामिद है साहब।" कह उसने ऑटो को चालू, और मीटर को डाउन किया। हम कक्क होटल की ओर निकल पड़े।अभी चले बाद में थे की पहले ही ट्रैफिक जैम में फास गए। रात के दस बजे थे और सड़क पर ये हाल था जैसे कोई न्यूज़ सुन सभी नागिरक शहर छोड़ भाग रहे हों - उनमे मैं भी एक था। उधर हामिद भाई ने कहानी कुछ और आगे बढ़ाई, "मैं यहाँ का रहने वाला नहीं हूँ साहब। किस्मत बहुत जगह घुमा घुमा कर यहाँ लाई है। आप कहाँ से हैं ?" कभी-कभी ऐसा होता है कि -चाप बैठना चाहते हैं, पर सामने वाला ये मंज़ूर करने से इंकार कर देता है। मन तो मेरा थोड़ा चुप रहने का ही था, पर हामिद भाई की ओपनिंग से ऐसा नहीं लगा जैसे सन्नाटा नसीब होगा। ऊपर से वो ईमान वाली बात मुझे अभी भी थोड़ा शर्मिंदा कर रही थी। जवाब दिया, "मैं दिल्ली से हूँ, पर अब बम्बई में रहता हूँ।" "अच्छा ! तभी आप की हिंदी इतनी बढ़िया है। साहब दिनों निकल जाते हैं पर अपनी दिल्ली की हिंदी सुनने को नहीं मिलती कई बार। बढ़िया लगा आप से मिल कर। मैं भी दिल्ली से ही हूँ।" बम्बई में जब ऑटो लेता हूँ और बातचीत चालू होती है तो अक्सर पता चलता है की ऑटो चालक उत्तर प्रदेश से कहीं से है, पर कभी दिल्ली से नहीं। मुझे लगा हामिद भाई भी दिल्ली के नज़दीकी इलाके से होंगे, और बस अपने आप को दिल्ली का बताने में एक फक्र महसूस करते होंगे। "अच्छा, दिल्ली में कहाँ से हैं आप, हामिद भाई ?", पुछा तो जवाब आया, "पुरानी दिल्ली में साहब, चांदनी चौक। कभी जाना हुआ है आपका उस ओर ?"। अभी बम्बई आये ज़्यादा समय नहीं हुआ था, खून में अब भी दिल्ली थी, तो सोचने लगा, "इसको कैसे पता चला की बम्बई आने से पहले मैं चांदनी चौक में रहता था। क्या ये दिल्ली से बम्बई, और फिर बम्बई से बैंगलोर तक मेरा पीछा कर रहा है ?"। फिर याद आया कि हामिद भाई जज़ाब का इंतज़ार कर रहे हैं, "मैं भी वहीँ से तो हूँ। पुरानी दिल्ली में रोशनारा बाघ के इलाके से।" उत्तर में थोड़ा अस्पष्ट रहना ही ठीक है, मैने सोचा। इस बीच ट्रैफिक को भी याद आया की सड़क उस पर चलने की लिए बनी है, तो हम पांच-सात मीटर आगे बढे। "तो फिर तो आपको मेरी कहानी बहुत बढ़िया लगेगी साहब। आपके यहाँ की ही कहानी है मेरी।", हामिद भाई ने पहले से न्यूट्रल गियर में आते हुए मेरी ओर पीछे मुड़ कर कहा।

"मेरे बाप का नाम ज़ाकिर था साहब। वो बरैली के रहने वाले थे, गाँव मे तो कोई काम होता नहीं, तो ब्याह होने के थोड़े ही देर बाद अब्बू दिल्ली चले आये। बरेली के और काफी लोग रहते थे उस समय चांदनी चौक इलाके में साहब, अब का तो पता नहीं। आप जानते हैं किसी को वहां जो बरेली से हो ?"

मैंने ना में जवाब दिया। मेरा मन अब कहानी में लग चुका था, और मैं चाहता था वो इधर-उधर की रिश्तेदारी छोड़ अपनी बात पूरी करे। चाहे मुझे रास्ते नहीं मालूम थे, पर मैं इतना ज़रूर जानता था की होटल दस-बारह किलोमीटर से ज़्यादा नहीं है।

"हाँ। बहुत टाइम हो गया ना साहब। अब नहीं रहते होंगे। तो दिल्ली आने के बाद अब्बू की मदद इन लोगों ने की। सर पर छत दी, खाना-पीना दिया, नौकरी की तलाश में मदद दी - आप जानते ही होंगे साहब। छोटी जगह वालों का दिल बड़ा होता है ना। थोड़ी देर मशक्कत करने के बाद मेरे बाप को एक नज़दीकी भट्टी में नौकरी मिल भी गयी। धीरे-धीरे पैर दिल्ली में जम गए और अम्मी को भी अपने नज़दीक भाड़े के मकान में रहने बुला लिया।"

दिल्ली के उस इलाके में अब कोई भट्टी नहीं है। ना जाने ये कौन से ज़माने की कहानी सुना रहा है। पर मैं जानना चाहता था की कैसे उसे क़िस्मत दिल्ली से बैंगलोर लाई। "अच्छा। फिर क्या हुआ हामिद भाई ?", कह मैंने बात आगे बढ़ाने की कोशिश की पर बाहर सब एक दुसरे को हॉर्न बजाने की प्रतियोगिता में हारने की कोशिश कर रहे थे, तो शायद उन्होंने मेरा कहा सुना नहीं होगा। खैर, उन्होंने कहानी अपने आप ही जारी राखी।

"फिर मैं, मेरे भाई उस्मान और आमीन; और बहन समीना हुए, साहब। मैं सबसे बड़ा था, और उस्मान सबसे छोटा। पर इतने में बाप को टी. बी. हो गया साहब, और अब्बू चल बसे। अब पूरी ज़िम्मेदारी मुझे पर आ गयी, सब अचानक हुआ। मुझे तो कुछ आता नहीं था तब, पर एक जानने वाले के ज़रिये मुझे एक नज़दीकी स्कूटर-मोटर साइकिल के गैराज में काम मिला। जी. बी. रोड तो सुना होगा आपने ? वहीँ पर था, 'अज़हर ऑटो गैराज'। मैं वहीँ काम करता था साहब। पर अब वहां नहीं है वो। सब मिट जाता है साहब।कुछ नहीं बचता।" हामिद भाई ने रेंगते ट्रैफिक में मुझे से सब बताया।

जी. बी. रोड पर दिल्ली का रंडी बाजार लगता है। एक बार की बात है, २०११ की, में एक दोस्त की शादी में जाने के लिए दिल्ली गया, तो शादी से पहले मेरे पास दो -तीन घंटे कुछ करने को नहीं था। तो जिधर पैर ले गए, उधर चल पड़ा। पता भी नहीं चला की कब जी. बी. रोड पहुँच गया।शादी के लिए गया था तो थोड़ा सजा धजा तो था ही, साथ हाथ में एक तोहफा पकड़ा हुआ था। कोई भी बता सकता था की यह बाँदा यहाँ का नहीं, बाहर से है। पर अगर बाहर से है, तो यहाँ क्या कर रहा है ? शायद यही सोचते-सोचते एक आदमी मेरे पास आया और बोला, "क्या चाहिए साहब ? बंगालन, पंजाबन, हिमाचली, नेपालन सब मिलेंगी। बढ़िया हैं सब साहब। बोलिय आपको ले चलता हूँ।" तब एक दम से एहसास हुआ की मैं कहाँ हूँ, तो वहां से निकला। पर निकलते-निकलते जब वहां के रंडी खानों के चबूतरों पर नज़र डाली तो वो वीरान थे। सोचने लगा इन खिड़कियों से कितने ख़्वाब निकलते होंगे, और क्या कभी उनमे से कोई पूरा भी होता होगा ?

"अज़हर भाई के यहाँ बहुत कुछ सीखा साहब। पहले तो स्कूटर को कपडे से पोंछना भी नहीं आता था। साल भर काम करने पर वहां मैं कोई भी इंजन खोल कर काम कर सकता था। सब कहते थे की 'लड़के के हाथ में कोई जादू है। कमाल का काम करता है।' बहुत से स्कूटर वाले सिर्फ मुझे ही अपना स्कूटर दिखाना चाहते थे। हमारा गुज़ारा ठीक हो रहा था। भाइयों और बहन का स्कूल छूट गया था, पर उसका अफ़सोस नहीं था। अम्मी उन्हें दिन में बैठा नसीहत देती थी। पर आखिर में वही हुआ साहब, लालच में इंसान का दिमाग खराब हो जाता है। मेरा भी हो गया।" एम. जी. रोड से हमने दाहिने ओर मोड़ लिया। यह सड़क थोड़ा छोटी थी, पर इस पर ट्रैफिक काफी कम था। हामिद भाई की कहानी की तरह ऑटो ने भी रफ़्तार पकड़ी।

"कभी कभी हमारे गैराज पर एक सरदार आता था। सुरजीत सिंह नाम था उसका। पुराना लम्ब्रेटा स्कूटर था उसका साहब, और हमेशा गाड़ी पर मैंने ही काम किया। मुझे आदमी पसंद था - हमेशा एक-दो रूपया ज़्यादा दे कर जाता। रुपया नहीं था साहब तब हमारे पास, एक-एक रूपया बड़ा मायने रखता था। मेरा सर फिर गया। एक दिन जब अज़हर भाई गैराज पर नहीं थे, तो बड़ी चालाकी से आया और बोला, 'चल जरा स्कूटर पर। बड़ी दिक्कत दे रहा है। चला कर देख तो शायद तुझे पता लगे कहाँ तकलीफ है।'। और हम दोनो चावड़ी बाजार का चक्कर लगाने चल पड़े। वो स्कूटर का सफर मैंने मन मे सैंकड़ों बार किया है साहब, और बहुत चाहा है की नतीजा बदल जाए।" हामिद भाई ने अपना दर्द बांटा।

"स्कूटर में कोई खराबी नहीं थी साहब। वो बस मुझे वहां से थोड़ा दूर ले जाना चाहता था। एक चाय की दूकान पर ले गया, मुझे चाय और समोसे दिलवाये, और बोला, 'क्या वो खटारा गैराज में काम करता है ? मेरे होटल में काम करेगा ? अज़हर भाई से ज़्यादा पगार दूंगा।' बस साहब, चाय-समोसे के साथ उसने मुझे ऐसा मक्खन लगाया की मैंने सोच लिया की गैराज में मेरी कद्र नहीं हो रही, और मैंने उसे हाँ कर दी। हाँ वो पैसा कुछ ज़्यादा देने की बात कर रहा था, पर मुझे आदमी की पहचान नहीं थी तब। मैं ग्यारह साल का बच्चा था साहब।"

"जब अगले दिन अज़हर भाई को बताया तो उन्होंने सलाह दी कि मैं गैराज में काम कर और चीज़ें सीखूं। वो बोले मेरे हाथ में बरकत थी, और टाइम आने पर मेरा अपना गैराज हो सकता है। पर पता नहीं साहब, जब मति मारी जाती है तो कोई क्या कर सकता है। मैंने उनकी एक ना सुनी, और वहां सबको अलविदा बोल सुरजीत सिंह के होटल पर जा पहुंचा। जानता नहीं की अभी भी होटल है या नहीं, 'बादल' नाम था होटल का। आप जानते हैं क्या साहब ?" ऑटो के बांयी ओर लगे शीशे मे मेरा जवाब ढूँढ़ते हुए हामिद भाई ने पुछा।

बादल नाम के होटल के बारे मे मैंने सुन रखा था, और शायद एक-दो बार वहां खाना खाने भी गया था। जैसे ही हामिद भाई को ये बताया तो वो अचानक एक बहुत ही उत्तेजित अवस्था में पहुँच गए, और मुझे पर सवालों की बौछार कर दी, "क्या ? आप गए हैं वहां ? कब जाना हुआ आपका वहां ? क्या सुरजीत सिंह अभी भी चलाता है वो होटल ?"।

"ये तो नहीं जानता हामिद भाई, पर होटल चलाने वाले कोई सरदार नहीं है, और सब मेरी उम्र के ही हैं।"

"हम्म्म.... ऐसा तो होना ही था साहब। इंसान कितना भी चालाकी और लालच कर ले, खुदा सब देखता है साहब। ज़रूर कहीं मर-खप गया होगा, और ज़रूर परिवार भी तबाह हो गया होगा। मेरी अल्लाह से दुआ है कि वो नर्क में जल रहा हो।"

"होटल जाने की देर थी साहब, उसने मुझ से इतना काम लिया की बस पूछिए मत। ऐसा नहीं है की हमने कभी मेहनत नहीं करी, बल्कि साड़ी उम्र मैंने बहुत काम किया है साहब। पर उस आदमी ने मुझे मुलाज़िम नहीं बंधुआ मज़दूर बना कर काम कराया साहब। और जब महीना ख़त्म होता तो कभी कहता, 'इस महीने तूने बिलकुल काम नहीं किया, या कुछ गलत होने का फ़िज़ूल में मेरी मेहनत काट लेता, या कहता, 'इस महीने हाथ सख्त है, अगले महीने पूरे पैसे मिलेंगे'। मैं बच्चा था साहब, कुछ समझ नहीं पाया। कभी उस पर गुस्सा आता, तो कभी अपने आप पर गलतियां करने के लिए, कभी गैराज छोड़ना बहुत गलत लगता, तो कभी लगता की काम सीखने भर की देर है, फिर सब ठीक हो जाएगा।"

अचानक कहानी रोक हामिद भाई ने पीछे मुड़ कहा, "साहब ज़रा पूरा पता पढ़ कर सुनाएंगे होटल का। उस नाम के दो होटल हैं। पूरा पता बताएंगे तो पता चलेगा की हम दांया मोड़ लें या सीधे जाएँ।"

मैंने पता पढ़ उन्हें सुनाया, और हामिद भाई ने सर हिलाते हुए निर्णय लिया की हम सीधा जाएंगे।

"इस बीच घर की हालत भी बिगड़ने लगी। अकेला कमाने वाले की एक अकड़ होती है साहब, मैं आज उस वक़्त के अपने-आप को आईने में देखता हूँ तो साफ़ नज़र में आता है। माँ ने बार-बार कहा की ये सुरजीत सिंह ठीक आदमी नहीं लगता, की मैं गैराज वापस चला जाऊं - पर मैंने एक ना सुनी। जानता नहीं की ऐसा मैंने क्यों किया - इसलिए की वापस जाने में मै अपनी एक हार मानता था, या फिर इसलिए की मुझे सच में लगता था की कुछ ही समय में सब ठीक हो जाएगा। एक दिन माँ ने फैसला किया कि वो उस्मान, आमीन, और समीना को अपनी सहारनपुर में बसी एक बहन के यहाँ छोड़ आएं। माँ खुद भी थोड़ा बीमार रहने लगी थी, और भाई-बहन भी आवारा किस्म के हो रहे थे दिल्ली में। बहुत दुःख पहुंचा साहब उनके जाने पर, पर मैं क्या कर सकता था।"

"एक दिन काम से वापस आया तो देखा माँ बहुत बीमार थी। उसकी देख-रेख में दो-चार दिन काम पर भी नहीं गया। दवा-दारु में सब रुपये खर्च हो गए, घर में एक बचा। पड़ोसियों ने थोड़ी मदद की, पर थे तो हम कोई पराये ही। जब दो-चार दिन बाद मैं होटल पहुंचा तो जो पिटाई की सुरजीत सिंह ने साहब के पूछिए मत। कोई अंग नहीं छोड़ा बदन में जहाँ उसकी बेल्ट का निशाँ ना रहा हो। कुछ दिन शाम में घर आने की भी ताकत नहीं थी, तो वही होटल में सो जाता। जब हफ्ता-दस दिन बाद घर पहुंचा तो देखता हूँ की माँ की हालत बहुत नाज़ुक है। अगले दिन वो भी गुज़र गयी। जानते हैं जाते-जाते क्या कह गयी साहब ?"

"बोली की अगर मैं ना बची तो मेरी मौत का बदला तू सुरजीत सिंह से नहीं लेगा। तो यहाँ से कहीं दूर जा अपनी ज़िन्दगी खुद बनाएगा। वो जानती थी साहब की वो बचने नहीं वाली, और ये भी की उसकी मौत के बाद मैं सुरजीत सिंह का सर काटने को पागल हो जाऊँगा। उसने मुझ से वादा लिया साहब। मेरे हाथ बाँध दिए।”

रात के कुछ १० बजे होंगे, और बैंगलोर की हवा में एक ठण्ड की लहर दौड़ रही थी। हामिद भाई ऑटो को धीरे कर बोले, "चाय पीएंगे साहब। यहाँ आगे बढ़िया बनती है।" मुझे अब डर था की कहीं होटल आ गया तो ये कहानी कहीं अधूरी ना रह जाए। शायद हामिद भाई को भी यही चिंता थी, और चाय सिर्फ एक बहाना। मैंने ख़ुशी-ख़ुशी हाँ कहा, और हम चाय वाले की रेडी के साथ लगी कुर्सियों पर बैठ गए।

"ला बेटा, ज़रा दो चाय ला।", हामिद भाई ने आर्डर प्लेस किया, और फिर मेरी तरफ मुंह कर बोले, "यहाँ चाय बढ़िया मिलती है साहब। अगर रात का आखिरी भाड़े के बाद मैं इधर से गुज़र रहा हूँ, तो यहाँ रुक ज़रूर चाय पीता हूँ।" रेड़ी पर लटगे मुझे बन नज़र आ रहे थे। वैसे तो खाना अभी थोड़ी देर पहले ही खाया था, पर लगा जैसे हामिद भाई के साथ मैं भी एक लम्बा सफर तय कर बैंगलोर तक पहुँच हूँ। पर ये भी हो सकता है कि मैं एक पेटू हूँ और बस कचरा खाने का शौंक है। इसलिए बोल पड़ा, "अरे भाई, ज़रा ये दो बन सेक कर और थोड़ा बटर लगा कर भी दे देना चाय के साथ।" सड़क पर अभी भी कुछ गाड़ियां गुज़र रहीं थी, और हमारे सफर के शुरुआत के मुकाबले, उस घड़ी मे वहां बैठ कर एक सुकून था।

"मेरी कुछ समझ में नहीं आया की मैं क्या करूँ साहब। तब मैं सिर्फ १२ साल का था। माँ के जाने के बाद कुछ दिन इधर उधर घूमता रहा। कभी होटल के पास जा खड़ा देखता रहता - जैसे वो मुझे कुछ बताएगा। कभी मन करता की अज़हर भाई के पास जा काम वापस मांग लूँ। घंटों जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर बैठा रहता। आप गए हैं वहां कभी ? ओह ! गए हैं, बढ़िया है। अकसर हिन्दू लोग वहां जाना पसंद नहीं करते साहब। कुछ दिन मे महीना भी पूरा हो गया, और मकान मालिक ने मुझे निकाल बाहर फेंक दिया। वो दिन बड़ा मुश्किल था साहब। मेरे पास सहारनपुर जाने के पैसे भी नहीं थे। बस जो भी कुछ थोड़ा बहुत मेरा अपना सामान था, एक पोटली में बाँधा और रेलवे स्टेशन की ओर चल पड़ा।"

"अरे ला बेटा ला। यहाँ ये कुर्सी खींच कर उस पर ये रख दे। हाँ ! शाबाश !"

"लीजिए साहब, बैंगलोर की बढ़िया चाय।"

हम दोनो बन और चाय का मज़ा लेने मे कुछ पलों के लिए व्यस्त हो गए। चाय मे चीनी, पत्ती, और अदरक तीनो ही खूब डाल रखे थे - और पीने मे वाकई बहुत स्वाद थी। मुझ से रहा ना गया, "हामिद भाई, चाय सच में बहुत बढ़िया है यहाँ।"

"उस दिन जब पोटली ले मुझे स्टेशन जाना था साहब, तो मैं जी. बी. रोड पर से अज़हर भाई के गैराज के सामने से नहीं गया साहब। मुझे इस का अफ़सोस रहेगा हमेशा। सोचता हूँ उस दिन अगर वहां से चला गया होता, और अगर उन्होंने मुझे देख लिया होता, तो ज़रूर मेरी किस्मत मे कुछ और लिखा होता। शायद मुझे मेरे भाइयों और बहन से मिलना भी नसीब होता। खैर, मैं हिम्मत नहीं जुटा पाया साहब, और पीछे की गलियों से पुल पार कर स्टेशन पहुंचा। वहां कुछ लोगों से पुछा की सहारनपुर की ट्रैन कहाँ से मिलेगी तो किसी ने दया खा कर एक कड़ी ट्रैन की ओर इशारा किआ। जेब में एक पैसा भी नहीं था साहब, मैं बस हिम्मत कर एक कोने में बैठ गया। लोग आ रहे थे, कुछ जा रहे थे - और इस उथला-पुथली के कुछ देर बाद ट्रैन चलने लगी। वहां पहुँच कर भाइयों और बहन को कैसे ढूंढूंगा ये नहीं सोचा था अभी। बस लगा जैसे किसी तरह पहुँच जाऊं वहां।"

"जब किस्मत ही फूटी हो तो क्या कर सकते हैं साहब ? पता नहीं ट्रैन चलने के कितनी देर बाद मेरी नींद लग गई। जाने कितनी देर तक सोता रहा, किसी ने नहीं उठाया। जब नींद टूटी तो देखा की एक ट्रैन की सफाई वाला मुझे लात मार कर चिल्लाते हुए कह रहा है, "अबे साले उठ। मुफ्त मे सवारी करने आ गया है। उठ साले।" मैं अपनी पोटली संभाल ही रहा था कि उसने हाथापाई शुरू कर दी। मेरी किस्मत थी साहब की उसी समय वहां से ट्रैन के टी. टी. गुज़र रहे थे - उनका नाम अय्यर था। वहां ट्रैन मे लड़ाई-झगड़ा होते देख बोले, "अरे ये क्या हो रहा है ? लड़ क्यों रहे हो ?", "साहब ये बिना टिकट यहाँ फ़ोकट मे बैठा सो रहा है। मेरा काम भी नहीं करने दे रहा", मेरी शिकायत सुन अय्यर साहब बोले, "अच्छा ठीक है। मैं टिकट देखता हूँ इसकी, तुम जाओ।", और फिर मेरी ओर मुद कर पुछा, "क्यों बेटा टिकट नहीं लिया क्या ? कहाँ जाना है ?"।

चाय वाले को शायद अब कोई और ग्राहक के आने की कोई उम्मीद नहीं थी। उसने अपना चूल्हा-चौकट बंद कर धोना शुरू कर दिया था। हमें भी अहसास हुआ की अब ज़्यादा देर यहाँ रुक नहीं पाएंगे।

"जब मैंने उसे बताया की सहारनपुर जाना है, तो वो हसने लगा। फिर बोला कि ये ट्रैन तो मद्रास जा रही है। मैं जानता था की मद्रास बहुत दूर है, तो ये सुन डर गया। मुझे लगता है की मैं इसलिए डरा हूँगा क्योंकि दिल्ली के आस पास रह कर मुझे ये विश्वास था की मैं कुछ ना कुछ कर पेट तो भर ही लूँगा। पर दिल्ली से इतनी दूर ये सब कैसे होगा, इस सोच से मैं डर गया। जब अय्यर को बोला की मुझे तो सहारनपुर जाना था, तो वो बोला कि उस समय कुछ करना मुश्किल है, और अगला स्टेशन आने पर वो देखेगा अगर कुछ हो सकता है। पर अगला स्टेशन आने से पहले ही वो मेरे पास आया और बोला, 'तेरा कौन है सहारनपुर मे ?'। फिर मेरी कहानी सुन बोला, 'ऐसे थोड़े ही कोई मिल जाएगा इतनी बड़ी जगह में। ऐसा कर, तू मेरे साथ मद्रास चल, काम कर, थोड़ा पैसा कमा और फिर सहारनपुर चले जाइओ और अपने भाई-बहन को ढून्ढ लिओ।' मैंने उसे कुछ कहा नहीं, बस वहीँ बैठा रहा साहब। जब अगला स्टेशन आया तो देखा कि वहां दिल्ली वाली रौनक नहीं थी। जाने दिल्ली की ट्रैन कब आती। बस वहां उतरने की हिम्मत भी मैं नहीं जुटा पाया। फिर अपने आप को किस्मत और अय्यर के हवाले कर मैंने सोचा, 'देखा जाएगा जो होगा मद्रास में।', और जब अगली बार अय्यर को एक बोगी से दूसरी में जाते देखा तो उसे बोला, 'अय्यर साहब, मैं आपके साथ चलता हूँ मद्रास में। कुछ काम दिला देंगे तो बड़ी मेहरबानी होगी।', 'अरे उसी के लिए तो तुझे पुछा। काम दिला दूंगा। मद्रास मे उतर कर मुझे स्टेशन पर मिलिओ।' कह अय्यर साहब काम में फिर जुट गए।" हामिद भाई ने चाय की प्याली से आखिरी घूँट लेते बोलै।

"मद्रास स्टेशन दिल्ली के जैसा नही था साहब। वैसी ही भीड़, वैसे ही लोग इधर-उधर घुमते, कुछ ढूँढ़ते, किसी से भागते - पर यहाँ हिंदी कोई नहीं बोलता या समझता था। बड़ी तकलीफ हुई। ट्रैन पहुंची और मैं फटफट उतर अय्यर साहब को प्लेटफार्म पर ढूढ़ने लगा। वो नज़र आये तो दौड़ कर उनके बगल में खड़ा हो गया। शायद काम के सिलसिले मे किसी से बात कर रहे थे, तो मैं वहीँ इंतज़ार करने लगा। उन दो मिनट मे मुझे जो अकेलापन महसूस हुआ साहब, क्या बताऊँ ? वैसा एहसास फिर कभी नहीं हुआ। एक पल के लिए इतना लाचार लगा की सोचा कि इससे अच्छा तो किसी ट्रैन के नीचे आ गया होता। फिर अय्यर साहब की बात ख़त्म हुई, और उन्होंने कहा कि वो घर जा कर कल आएंगे, और मुझसे वहीँ मिलेंगे। काम की बात भी तभी करेंगे। मुझे २ रुपये का नोट दे वो रेल विभाग के दफ्तर में काले कोटों मे ओझल हो गए। मैंने अपने आसपास देखा तो वही बेबसी, पर इस बार मेरे हाथ में दो रुपये थे साहब - उन्होंने मुझे ताकत दी, अगले दिन तक रहने की हिम्मत दी।" हामिद भाई ने चाय की दूकान वाले की कुर्सी से उठते हुए कहा।

"आप ऑटो में बैठिये साहब, मैं एक मिनट में आया।" कह वो सड़क के किनारे की झाड़ी में कुछ बिज़नेस करने चले गए, और मैंने छोटू के पैसे अदा किए। जब लौट कर आये तो चेहरे पर एक संतोषजनक चमक थी। बोले, "आपको तो नहीं जाना साहब ?"। मैंने इंकार किया तो वो अपनी सीट पर सवार हुए, और ऑटो को किक-स्टार्ट कर बोले, "चलें साहब ?"। "जी चलिए", कह मैंने जब इधर उधर नज़र दौड़ाई तो पाया कि मैं यह रास्ता कुछ पहचान सा रहा था, और अगर मेरा अंदाजा सही था तो अब हम होटल के काफी नज़दीक ही थे। घबराकर मैंने हामिद भाई से पुछा, "होटल आने से पहले आपकी कहानी तो पूरी हो जायेगी ना हामिद भाई ? मैं पूरी कहानी जाने बिना जाना नहीं चाहूंगा।" ज़ोर से हंस कर बोले, "अरे पूरी करे बिना आपको भेजेंगे भी नहीं साहब। आपके साथ चाय पी है, उसका मान रखना है।"

"मैं आगे बताता हूँ आपको की क्या हुआ ?" हामिद भाई ने यह कहा ही था कि मैंने उन्हें रोक कहा, "हामिद भाई, मुझे भी एक मिनट देंगे, मैं भी जा ही आऊँ।" "हाँ-हाँ, साहब आप इत्मीनान से जाईए, मैं यहीं इंतज़ार कर रहा हूँ आपका"। ठण्ड के मौसम मैं बिज़नेस के बाद मुझे भी बड़ा हल्का महसूस हुआ, और ऑटो की तरफ जाते हुए मुझे लगा जैसे हामिद भाई भी मेरे चेहरे पर विजय की लालटेन देख रहे हैं।

"चलें साहब ?",पूछ उन्होंने ऑटो आगे बढ़ाया। "तो साहब अगले दिन अय्यर साहब आये, और अपना दफ्तर का काम ख़त्म कर मुझे अपने घर ले गए। आपका कभी मद्रास जाना हुआ है साहब ? नहीं ? जाना को मिलेगा साहब, अभी तो आप काम उम्र के ही हैं। अपने दिल्ली या बैंगलोर जैसा नहीं है साहब वो, वहां समुन्दर है - मरीना बीच है। हर शाम सैंकड़ों लोग पहुँच जाते हैं मज़े करने साहब, वो भी देखने वाला नज़ारा होता है। लोग जोश मे इतना पगला जाते हैं कि हर शाम घोड़ों पर पुलिस आती है बच्चों, नौजवानों, और शराबियों को पानी के नज़दीक ना जाने देने से। मेरा तो कहना है साहब कि शराबियों को बचाने कि क्या ज़रुरत है। आप शराब पीते हैं साहब ? ओह ! पीते हैं ? मेरा वो मतलब नहीं था साहब, मैं उन शराबियों की बात कर रहा था जो पी कर गुंडागर्दी पर उतर आते हैं। घोड़े रेत पर दौड़ते बहुत सुन्दर लगते हैं साहब। जाएंगे तो देखिएगा ज़रूर - पर पता नहीं कि अब अभी घोड़े वाली पुलिस वहां आती भी है, या फिर सरकार ने और चीज़ों की तरह इसे भी छोड़छाड़ कर कह दिया है, 'जिसको जो करना है करे। हमारी बला से।" उनकी बात सुन मुझे मैं जब पहली बार समुद्र देखने गया था, तब की याद आ गयी। मैं कुछ १४-१५ साल का था, और परिवार ने निर्णय लिया की हम गोवा घूमने जाएंगे। अपने कुछ भाई-बहनों, और अपने और उनके माँ-बाप के साथ हम लोग ट्रैन मे गए थे। इतना लम्बा सफर करने की किसी को आदत नहीं थी - तो लगभग सब ही उल्टियां करते वहां पहुंचे। गोवा के बाहर पहुँच पता चला की ट्रैन पणजी तक जाती ही नहीं है, गोवा के बॉर्डर पर ही रुक जाती है। वहां से एक खटारा बस मे देर रात में अपने होटल पहुंचे। हम सब बड़े भाई-बहनों ने अपनी सफर की इस भड़ास को अपने सबसे छोटे भाई को अगले दिन बीच पर रेत में गाड़ कर लिया।

"अय्यर साहब का घर पेरंबूर में था। ये मद्रास की लोकल लाइन पर सेंट्रल से ज़्यादा दूर नहीं है साहब। असल मे वहां रेलवे कॉलोनी है, वहीँ अय्यर साहब का घर था। मुझे ट्रैन पर ले गए। मुझे याद है, सेंट्रल से निकल थोड़ी ही देर में सब ओर हरियाली थी। स्टेशन से उतर कर कॉलोनी करीबन डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर थी। बीच में रेलवे वालों का कोच बनाने का कारखाना आता था। अय्यर साहब के पास सरकारी कार्ड था, जिसे दिखा वो कारखाने के दफ्तर से होते हुए कोलॉय तक जा सकते थे। आप और मैं जाएंगे तो हमें पूरा घूम कर जाना होगा कॉलोनी पहुँचने के लिए। उस पहले दिन हमने शार्ट-कट मारा साहब, और पहले माले के उनके मकान पर दरवाज़े पर दस्तक दी। मकान मे दो कमरे थे, और वो तीन रहने वाले थे - अय्यर साहब, उनकी बेग़म सुचित्रा - उन्हें मैं बीबीजी कह बुलाता था, और कॉलेज में पढ़ती बेटी, कविता। घर पहुँच उन्होंने मेरा परिचय सबसे करवाया, और चाय-पानी पिलाई। रात के खाने के बाद उन्होंने मुझे समझाया की उन्हें घर के कामकाज मैं मदद चाहिए, और वो मुझे इस काम के लिए नौकरी पपर रखना चाहते थे। अब इस बारे में सोचता हूँ तो हंसी आती है साहब - आजकल किसी को काम देना हो तो हज़ार झंझट हैं साहब - पुलिस रिकॉर्ड के लिए चक्कर, रूपया-पैसा सब नौकर से छुपा कर रखना, उसके सामने घर की अंदरूनी बात ना करना -- और ऐसे पता नहीं कितने टंटे हैं साहब। तब ऐसा नहीं था, ज़माना सीधा था। अब देखिये ना, मुझे ट्रैन में मिले, और तुरंत घर ले जा कर काम दे दिए। बड़ी मेहरबानी की उन्होंने मुझे उस घडी संभाल कर।"

"काम आसान था साहब। बीबीजी और साहब काम पर जाते थे, और कविता दीदी कॉलेज। साहब का काम ऐसा था की आने-जाने का कोई टाइम नहीं था। बाकी दोनो का वही साधारण टाइम - सुबह नौ बजे निकलना, और शाम पांच के आसपास लौटना। बस इस दिनचर्या में मुझे फिट होना था। घर की सफाई का काम - झाड़ू, पोछा, कपड़े और बर्तन धोना, और खाने में रसोईघर में थोड़ी मदद करना। ज़्यादा काम नहीं था साहब - छोटा सा घर था, और कोई बच्चा भी नहीं था जो काम बढाए। वो लोग भी मेरे काम से खुश थे। हांलाकि मुझे ये ज़रूर लगा की जब बीबीजी को मालूम हुआ की में मुसलिम हूँ तो वह नहीं चाहती थीं कि मैं रसोईघर में काम करूँ। पर वो आपस में कुछ मद्रासी में बात किये, और मेरा रसोईघर मे काम करना मंज़ूर हो गया। तीन साल काम किया साहब वहां, पर मद्रासी नहीं सीख सका बिलकुल भी। कुछ कॉलोनी में और काम करने वाले लड़कों से दोस्ती हुई, वो मद्रासी थे - पर भाषा कभी पल्ले पड़ी ही नहीं। वहां टाइम अच्छा कटा साहब। उन्होंने भी बहुत प्यार दिया मुझे। हर बड़े त्यौहार पर कोई कपड़ा देना, घर में कुछ अच्छा बना हो तो मेरे लिए थोड़ा बचा कर रखना। मेरा पैसा मुझसे ले कर साहब खुद रखते थे, कहते, 'तुम्हे पैसे क्यों चाहिए। मुझे दो, मैं रखता हूँ अपने पास। तुम रखोगे तो फ़िज़ूलखर्ची में उड़ा दोगे।' बताओ, कौन मालिक अपने नौकर के लिए इतना सोचता है साहब, बताइये ?"

"ऐसे टाइम काटता गया साहब। अकसर शाम मे अय्यर साहब, जब वो घर पर ही होते, मुझे कुछ पढ़ाते। थोड़ा हिंदी और अंग्रेजी वहां लिखना भी सीखा साहब, सब अय्यर साहब के कारण था। सब बढ़िया चल रहा था साहब, मुझे कोई शिकायत नहीं थी। बस दिल में एक ख्वाहिश ज़रूर थी, की वहां से थोड़ा छुट्टी ले कर सहारनपुर जा कर अपने भाई-बहन को मिल कर आऊं। पर वहां जाने से भी डरता था साहब, रिश्तेदार भी तो हमारे जैसे, किसी तरह से गुज़ारा कर रहे होंगे। और अगर मैं वहां पहुंचा और उन्होंने कहा की अब तुम इन तीनो को अपने साथ ले कर जाओ - तो मैं क्या करता ? अभी तो मेरे अपने का ही कोई ठिकाना नहीं था। इसलिए मन मार कर यही सोचता की एक-दो साल पैसे और जोड़ लूँ, फिर अय्यर साहब से अपना पैसा ले कर उनके पास जाऊँगा। पर उसकी नौबत ही नहीं आई साहब, मेरे नसीब मे कुछ और ही लिखा था।"

"क्यों, क्या हुआ आगे हामिद भाई ?",मैंने पुछा, पर मेरी एक नज़र बाहर की ओर भी थी जो ये बता रही थी कि पांच मिनट मे मैं होटल पहुँच जाऊँगा।

"एक दिन शाम मे कुछ सब्ज़ी लेने गया था साहब। अय्यर साहब घर पर ही थे, और मुझे जाता देख बोले, 'हामिद जल्दी लौट आना। पढाई करेंगे आज।'। जब मैं सब्ज़ी ले कर आ रसोईघर मे सामान रख रहा था, तो उनके कमरे से आवाज़ें आईं, और इस बार वो हिंदी मे लड़ रहे थे। दरवाज़ा बंद था, पर आप चाह कर भी लफ़्ज़ों को अपने कान मे पड़ने से नहीं रोक सकते थे। उस दिन पता चला साहब कि मेरी वजह से वहां कितना टेंशन है। बातों से पता चला की बीबीजी को साहब का मेरे प्रति लगाव देख कर ऐसा लग रहा था जैसे मैं उनका ही बेटा हूँ, किसी और औरत के साथ। नौकरी ट्रैन की ही थी, और वो कह रहीं थीं कि ज़रूर किसी और शहर में अय्यर साहब ने एक और औरत के साथ सम्बन्ध पाल रखे हैं, और में उसकी निशानी हूँ। वर्ना कोई एक नौकर को इतना लगाव थोड़ा देता है, बीबीजी का दावा था। मैंने पूरी बात नहीं सुनी साहब, सुनने की ज़रुरत ही नहीं थी। जैसा एक बार दिल्ली में हुआ था, एक बार फिर हुआ - मैंने उसी समय उनका घर छोड़ा और ट्रैन स्टेशन पहुँच गया। जाने से पहले उनके नाम एक कागज़ पर लिख आया, 'मैं जा रहा हूँ साहब।'। वो कागज़ मैं रसोईघर में छोड़ आया था। कभी सोचता हूँ कि पता नहीं उस कागज़ का नसीब क्या हुआ होगा - क्या वो अय्यर साहब और बीबीजी ने आज भी संभाल रखा होगा, या फिर बीबीजी ने उसी शाम जला दिया होगा और अय्यर साहब को उसके अस्तित्व के बारे मे पता भी नहीं होगा। कौन जाने साहब। खैर, मेरे से वहां एक पल रहा नहीं गया साहब, और मैं स्टेशन पहुँच किसी भी ट्रैन मे बैठ गया। निकलने से पहले सोचा की कपडे वगैरह ले लूँ, पर फिर सोचा, वो सब भी तो उन्होंने ही खरीद कर दिया है। कुछ नहीं लिया। वो ट्रैन मुझे बैंगलोर लायी थी साहब।" हामिद भाई कि कहानी अब उन्हें घर ले आई।

"पीछे क्या हुआ मद्रास में,आपको ढूंढा क्या उन लोग ने ?",मैंने पुछा।

"कुछ नहीं जानता साहब। उस दिन उनकी बातें सुन मुझे एक सदमा लगा, और उस तनाव में ना जाने क्या कर बैठा, कहाँ चला आया। जब मन थोड़ा हल्का हुआ, तब तक यहाँ बैंगलोर आ चुका था।"

"यहाँ आने के बाद फिर वही हाल साहब। स्टेशन पे पड़ा रहा कुछ दिन, लोगों की दया पर ज़िंदा रहा। फिर सोचा ऐसा नहीं चलेगा, कुछ करना पड़ेगा, तो इधर उधर घूम कर एक ऑटो रिपेयर की दूकान पर काम किया मैंने। वहां ऑटो के बारे में बहुत कुछ सीखा। अल्लाह की मेहरबानी थी साहब, हाथ तो ठीक चलता ही था पहले से। वो काम रास आया साहब। नौ साल काम किया वो, गैराज में हेड-मैकेनिक बना मै। उसके बाद भाड़े पर ऑटो चलाया दो साल - सब रास्ता मालुम हो गया। फिर अपना ऑटो लिया, और तब से यही काम मे हूँ साहब। बीच मे शादी भी किया मै, एक बेटी भी हुई साहब। अल्लाह की मैहर है साहब।", हामिद भाई ने किस्सा ख़त्म किया। सामने होटल ही नज़र आ रहा था। मैं सुरक्षित होटल पहुंच गया, वो सालों बाद अपना घर बैंगलोर मे बना पाए - रात की हवा मे एक संतोष था। ऑटो से उतर मैंने उन्हें पैसे देने के लिए बटुआ जेब से निकाला तो हामिद भाई बोले, "क्या साहब ? कहानी पूरी नहीं सुननी क्या ?"। "माफ़ कीजियेगा। मुझे लगा इतनी ही थी।", कह मैं रुके ऑटो मे होटल के बाहर फिर बैठ गया।

"बैंगलोर आने के कुछ साल बाद मै सहारनपुर गया साहब। वहां गली-गली घूमा पर कोई नहीं मिला। शहर के बच्चे-बच्चे से पुछा पर कोई फायदा नहीं हुआ साहब। किसी को कुछ भी नहीं मालूम था। ऐसा ही होता है साहब, गरीब के एक बार पैर उखड़ जाएँ, तो पता नहीं चलता की ज़िन्दगी का झोंका कहाँ ले जा कर फेंकेगा। मै तो बस इतना सोचता हूँ, वो जहाँ भी हो खुश हों, तंदरुस्त हों। पता नहीं मुझे याद करते होंगे या नहीं, और अगर करते हों, तो मुझे माफ़ कर दिए हों। उन बच्चों से इतना माँगना जायज़ नहीं है ना साहब। क्या करें साहब, ये सब अल्लाह का खेल है।"

उस्मान, आमीन, और समीना के बारे में एक बार फिर सोच हामिद भाई लम्बी सांसें लेने लगे। जाने उम्र भर मे उन्होंने कितनी बार उन तीनो को याद किया होगा।

"जानते हैं साहब इतने सालों मे मैं कभी दिल्ली या मद्रास नहीं गया। यहाँ बहुत ग़मग़ुज़ार दिए ज़िन्दगी ने, पर कुछ समय पहले ऐसा लगा जैसे एक बार फिर ज़िन्दगी की वो भूली राह तय की जाए। अभी कुछ तीन महीना हुआ साहब - मैं दिल्ली और मद्रास गया था। अज़हर भाई और अय्यर साहब को मिलने। दिल्ली गया अज़हर भाई के यहाँ - वहां कुछ भी नहीं था साहब। सब बदल गया वहां। ना गैराज था, ना उसके सामने का पेड़ जिसके नीचे हम काम करते थे। वहां अब एक कॉफ़ी की दूकान थी साहब। मैं मुंह फाड़ के दूकान के सामने खड़ा था, तो शायद दरबान ने सोचा कि मैं अंदर जाना चाहता हूँ - बेचारा मेरे लिए दरवाज़ा खोले खड़ा रहा। उससे पुछा तो वो गैराज के बारे मे कुछ नहीं जानता था साहब। आसपास भी कोई दूकान अब वैसी नहीं थी। वहां से चला आया साहब में। और सच पूछें तो बाजार मे वो भी बात नहीं थी। लस्सी पीने गया तो दूकान वाले ने बैठने को नहीं कहा, सड़क पर खड़ा हुआ तो धक्का मार कोई माफ़ी तक नहीं मांगता। ये दिल्ली का नया चेहरा था साहब - मुझे रास नहीं आया।"

"वहां से मई मद्रास गया। जानता था की अय्यर साहब तो यकीनन रिटायर हो गए होंगे, पर सरकारी आदमी हैं, दफ्तर आना-जाना लगा रहता होगा। सोचा स्टेशन पर या फैक्ट्री मे किसी को तो उनका पता होगा। घबराहट हो रही थी साहब की कैसे मिलना होगा उनसे। मैं स्टेशन ही गया पहले, वहीँ उनके नए घर का पता चला। वहां पहुंचा तो मियाँ-बीवी दोनो सुबह-सुबह घर के आँगन के पौधों को पानी दे रहे थे। बहुत बूढ़े हो गए थे दोनो, पर हाथ पैर काम कर रहे थे अभी। वहां खड़े मैंने सोचा, साहब, की मेरी वजह से इनके रिश्ते में जो घाव आये, वो लगता है वक़्त ने भर दिए। तो मुझे वहां मेरा फिर जाना ठीक नहीं लगा। बस कुछ देर उन्हें वहां देखा, और वक्त काटने मरीना बीच चला गया। बस उसके बाद रात की ट्रैन थी - ले वापस आ गया। एक खालीपन था ज़हन में साहब - दोनो शहर गया पर कुछ ऐसा हुआ की दोनों ही जगह लोगों से मिल नहीं पाया।"

कुछ क्षण बाद बोले, "मैंने आपको बताया ना साहब की मेरी एक बेटी है, उसका नाम ज़ैनाब है। अभी दो महीने मे उसका निकाह है साहब। लड़का हैदराबाद से है। जब निकाह तय हुआ तभी दिल्ली और मद्रास जा अज़हर भाई और अय्यर साहब को बुलाने का दिल हुआ। बुलाने का दिल क्या साहब, बस कहिए कि निकाह के बहाने मुझे अपने कुछ पुराने मीठे ग़मों से दुबारा मिलने का मौका मिला था। अफ़सोस है कि वो ग़म अब अपने साथ ही ले जाने पड़ेंगे।"

इस बार मै जानता था कि कहानी ख़त्म हो गयी है। ऑटो से निकल पैसे हामिद भाई को दिए और बोला, "बहुत-बहुत शुक्रिया हामिद भाई। अपनी कहानी मुझसे बांटने के लिए। मैं आपकी, और ज़ैनाब की ख़ुशी की प्रार्थना करूंगा।"

"आपका बहुत वक़्त ज़ाया हुआ साहब।। मेरी सुनने के लिए आपका शुक्रिया। चलिए, अल्लाह ने चाहा तो फिर मिलेंगे साहब। अलविदा !",कह हामिद भाई रात के अँधेरे में ग़ुम हो गए।

हामिद भाई को जाता देखने के बाद मैं होटल की और चला। सीढ़ियां चढ़ते-चढ़ते जब तीसरे माले पर पहुंचा, तो अचानक एहसास हुआ की मेरा कमरा तो दुसरे माले पर ही था। शायद मेरा ध्यान कहीं और था।


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