पेंशन
पेंशन
लटकारी का पड़ाव, यही तो नाम था उस भीड़ भाड़ वाले इलाके का, जिसमें शर्मा जी और उनकी पत्नी नितांत सुख व शांति अनुभव करते थे। हर महीने की पहली तारीख को शर्मा जी की पेंशन बिला नागा उनके बैंक अकाउंट में जमा हो जाया करती थी। पहली तारीख़ को शर्मा जी और शर्माइन दिन भर मोबाइल की मैसेज ट्यून का इंतजार करते, जैसे ही मोबाइल की मैसेज ट्यून बजती दोनों की आँखों की चमक और होठों की मुस्कान का द्वैध जादू सारे वातावरण पर किसी आवारा बादल सा काबिज़ हो जाता। पहली तारीख को शर्माइन के श्वेत केशों में लगा मोगरे का गजरा उनकी बहुओं की आँखों में मोहन मुस्कान बन कर महक जाता। बहुएँ भी समझ जाती कि आज पेंशन वाला बिना टेंशन का दिन है।
जीवन में सुख रहा हूँ या दुख, शर्मा दंपत्ति ने कभी एक दूसरे का पाला नहीं बदला। सदैव हाथ थामे दोनों साथ रहे हमेशा।
सुगंध और सुमन से आपस में घुले मिले, शर्मा जी और उनकी घरवाली के शौक चाहे अलग-अलग हो लेकिन दोनों एक दूसरे की पसंदगी का लुत्फ मिलकर उठाते। शर्माइन अगर सास बहू वाला डेली सोप देखना चाहती तो शर्मा जी डिस्कवरी के पसंदीदा कार्यक्रम "मैन वर्सेस वाइल्ड" का मोह तज कर अपने पोपले मुँह में बारीक सुपारी वाला पान दबाए खलनायिकाओं वाले सीरियल देखते रहते। ऐसे ही जब शर्मा जी का मन नर्मदा किनारे बैठने का होता तो शर्माइन मोहल्ले की औरतों के साथ खेरमाई के मंदिर में कीर्तन करने का लोभ तजकर शर्मा जी के साथ नर्मदा की पुरवइया में मंद मंद बहने लगती।
आज जब पेंशन वाली तारीख पर शर्माइन सुनहरी किनारे वाली साड़ी पहन कर तैयार हुई तो शर्मा जी हमेशा की तरह मंत्रमुग्ध से अपनी पत्नी को निहारते रहे लेकिन आज प्रशंसा के बोल नहीं बोले कारण कल रात किसी बात पर होती बहस ने बढ़कर छुटपुट झड़प का रुख़ अख्तियार कर लिया था। बात-बात में बढ़ी बात से दोनों के बीच अबोला पसर गया था। दोनों ने ही एक दूसरे से बात बंद कर दी थी।
लेकिन यह पेंशन वाला पहला दिन दोनों की आदत में शुमार था और दोनों ही इस सुख को छोड़ना नही चाहते थे अतः तैयार हो, मौन धारण किए हुए अपने घर से निकल पड़े। घर से निकलते ही गली के सिरहाने पर दोनों एक रिक्शे पर सवार हो निकल पड़े अपनी आनंद यात्रा पर।
थोड़ी ही दूर पर लटकारी का पड़ाव था रिक्शे वाले को तयशुदा रकम थमा दोनों वही सड़क किनारे बने पाथवे पर खामोशी से चहल कदमी करने लगे। चलते-चलते दोनों गहमागहमी भरे बाजार तक पहुँच गए। सामने तरह-तरह की दुकानें सजी थी, रंग-बिरंगे स्टाल सड़क किनारे लगे थे। ठेलों से हवा में तीखी स्वादिष्ट महक फैल रही थी। शर्मा जी कुछ दूर चल कर भुट्टे की चाट के ठेले पर जाकर रुक गए। सामने चाट वाला गर्म तवे पर कट-कट करछुल बजा रहा था। तवे से उड़ती चटपटी करारी सुगंध शर्मा जी का मन मोह रही थी। उधर कुल्फी के ठेले पर लगे हिलते-डुलते बंधनवारो में शर्माइन का मन डोलने लगा। कितने ही दिन से केसर पिस्ता वाली हल्की हरी, क्रीम सी पीली कुल्फी का स्वाद नहीं चखा था लेकिन आप बात यहाँ अटकने वाली थी क्योंकि शर्मा जी और शर्माइन के बीच का मनमुटाव दोनों की पसंद और एक दूसरे की पसंद में अपनी पसंद ढूंढने की भावना के बीच रोड़ा बन कर आ गया था। आज दोनों के लिए एक दूसरे की पसंद नहीं अपनी पसंद ज्यादा मुखर थी। कुरकुरी चाट खाने का फैसला शर्मा जी ने शर्माइन को सुनाया। शर्माइन ने भी अपनी आवाज को बुलंद करते हुए कुल्फी खाने की फरमाइश की। दोनों का मतांतर प्रबल होने लगा लेकिन दोनों ही अपनी अलग-अलग पसंद पूरी करने के पक्ष में नहीं थे बल्कि दोनों ही आज एक दूसरे से अपनी पसंद पूरी करवाना चाह रहे थे। मामला कुल्फी और करारी भुट्टे की चाट पर अटका था। दोनों में ना-नुकर और अस्वीकृति की धार तेज थी। अंततः पड़ला शर्मा जी का भारी पड़ा और निष्कर्षतः चाट खाने की बात और इच्छा दोनों पर शर्माइन की स्वीकृति की मुहर लग गई थी। दोनों चाट के ठेले की तरफ बढ़ चले लेकिन यह क्या शर्माइन ने शर्मा जी को टोका।
" तुम्हारी बत्तीसी का डिब्बा कहाँ है ? " शर्मा जी ने चौक कर जेब टटोली, डिब्बा नदारद था, शायद कल रात साफ करने के बाद टेबल पर ही छूट गया था। शर्मा जी के चेहरे पर मायूसी छा गई क्योंकि उनके पसंद के भुट्टे की चाट बिना नकली दातों के नहीं खाई जा सकती थी। उन्होंने सामने खड़ी शर्माइन की तरफ निहारा चेहरे पर शरारती मुस्कान खेल रही थी। शर्माइन बोली-
"कुल्फी की तरफ चलें ?"
शर्मा जी निरुत्तर निरुपाय से मायूस, शर्माइन के पीछे चल पड़े।
कुल्फी के ठेले पर पहुँचकर दिग्विजय भाव से मिसेज शर्मा बोली- "दो कुल्फी !"
कुल्फी चूसते हुए मिसेज शर्मा जी के होठों की कोरों से जब थोड़ी सी कुल्फी की बूंदे बाहर पड़ी तो सामने खड़े शर्मा जी मुस्कुरा दिए। अपनी पत्नी के नवीन सौंदर्य पर उनका गुस्सा काफूर हो गया था और मिसेज शर्मा की कुल्फी की चुस्कियों पर निहाल हो वह अपनी पत्नी के कुछ और नजदीक सरक आए।