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Firoj Alam Xen

Crime

3.4  

Firoj Alam Xen

Crime

फ़रेब

फ़रेब

6 mins
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सुबह के 7 बज रहे थे, ताम्बेश्वर मन्दिर का घंटा ज़ोर ज़ोर से बज रहा था। मन्दिर में श्रद्धालुओं की भीड़ लगने लगी थी। भक्तिमय और शुद्ध वातावरण के आवरण में प्रवेश करती हुई सलमा दिखी। सलमा के एक हाथ में फूलों की टोकरी तो दूसरे हाथ में लखनवी दरी थी। उसे आता देख मन्दिर के सामने से गुजरने वाली सड़क के किनारे पंक्ति से बैठी फूल बेचने वाली औरतें नफरत और जलन से नाक सिकोड़ने लगी। वजह थी कि जब तक सलमा के फूल ना बिक जाये शायद ही कोई उनके पास फूल लेने जाता हो, खासकर अविवाहित युवा और मनचले अधेड़, इसमे शायद सलमा का ही दोष था, वह किसी परी जैसी खूबसूरत थी। सड़क से आने जाने वाले लोगों की निगाह उस पर बिना बरसे आगे बढती ही ना थी।
सलमा बचपन से अंधी थी लेकिन उसकी आँखों का नूर देखकर कोई भी धोखा खा सकता है। सलमा का बूढ़ा बाप बिस्तर पर पड़े पड़े अपने खूबसूरत बेटी के किस्मत पर लाचारी के आँसू बहाता। सलमा उन आसुँओ को तो नहीं देख सकती थी, लेकिन अपने पिता के बर्ताव को देखकर वह सब समझ जाती फिर पिता को समझाती कि वह अपना ख्याल रख सकती है।
सलमा ने अपने पिता से कभी भी उसके साथ होने वाली छेड़खानी की शिकायत नही की और इसका कोई फायदा भी ना  था। सड़क पर सहमी सहमी चल रही सलमा के गाल और कमर पर जब शिकारी पंजो का स्पर्श होता तो वह डर के मारे बैठ जाती, यह उसके असहाय और मासूमियत का परिचय था।
हर रोज की तरह जब सलमा घर से फूलों की टोकरी लेकर निकली तो पीछे से आवाज़ आयी।
सलमा! रूको, आवाज़ ताम्बेश्वर मन्दिर के पुजारी के लड़के भानू की थी।
सलमा रूक गयी और आहट पहचानने के लिए इधर उधर देखने लगी।
"सलमा क्या तुम मेरी दोस्त बनोगी? भानू ने बड़ी मासूमियत से कहा।
सलमा कुछ ना बोली, मुस्कराकर चल दी। इशारा काफ़ी था।
आज सलमा मुस्करा-मुस्करा कर फूलों के हार बना रही थी, आज वह बहुत खुश थी क्योंकि पहली बार मनचलों की भीड़ से अलग किसी ने उसे बिना चुटिया काटे और बातों के तीर मारते हुए दोस्त बनने को कहा।
1 घण्टे में सारे फूल बेच देने वाली सलमा से आज  समय कट नहीं रहा था, वह जल्दी घर जाकर भानू के बारे में सोचना चाहती थी। यह ख्याल करते ही उसके मन में भानू के प्रति प्रेम के भाव अपने आप आने लगे। आज उसकी हालत ऐसी हो रही थी जैसे किसी ने उसके प्रेमरूपी खजाने में सेंध लगा दी, वह पूरी लगन के साथ उस चोर को ढूढ़ना चाहती है। शायद यही प्रेम है।
फूल बिक चुके थे, सलमा घर की ओर चल दी, आज उसके कदम जैसे हवा में उड़ रहें हो, उसे अपने साथ भानू के चलने का एहसास हो रहा था। आज उसमें गजब की स्फुर्ति और साहस आ गया था, वह चाहती थी आज कोई छेड़े और वह डटकर जवाब दे, लेकिन ऐसा ना हो सका।
घर पहुँच कर सलमा आँगन में बैठकर मुँह धुलती हुयी अब्बू से पूँछा-
"अब्बू आज रास्ते में साईकिल से टकराकर फूलों की टोकरी गिरा दी थी, तब भानू ने मेरी मदद की" यह कहकर उसने अपने कान भानू के बारे में सुनने के लिए खड़े कर लिये।
बेटा! तुम्हे चोट तो... हड़बड़ाहट में शब्द गले में अटक गये।
नहीं अब्बू! चेहरा उदास सा हो गया था।
तब ठीक है! बेचैनी वाली सांस छोड़ते हुए कहा।
सलमा के इस झूठ से कोई फायदा ना हुआ, वह जो सुनना चाहती थी अब्बू ने नही कहा था। बोझिल मन से वह खाना बनाने की तैयारी करने लगी।
चौराहे पर भानू अपने बिगड़ैल दोस्तों के साथ सिगरेट पी रहा था, इन बिगड़ैल राजकुमारों का मुखिया भानू था, इसलिए आज उन लोगों के बीच चर्चा का विषय 'सलमा' थी। सब सलमा के ऊपर अपने-अपने विचार रखने शुरू कर दिये-
"यार वह मुसलमान होकर, फूल वालियों का धन्धा चौपट कर रही है, इसे यहाँ से किसी भी तरह भगा देना चाहिए" यह रामू का दर्द बोल रहा था, उसकी माँ की फूलों और लड्डुओं की दुकान भी मन्दिर के सामने थी।
"अरे यार मन्दिर के अन्दर तो सिर्फ मुक्ति है भक्ति तो बाहर है, भगा देगें तो धर्मी कैसे बनेंगे" मन्नू की इस बात पर सब हँस दिये और खुद को आश्वासन दिया कि अभी हम पूरी तरह अधर्मी नहीं हुए हैं।
भानू जो इधर उधर निहार रहा था अपने पद का ख्याल करते हुए गुरूर से कहा-
अमा! देखो यार, बातों में मत लटके रहो, उधर देखो सल्लो रानी आ रही है।
सिगरेट फेंक कर सब सावधान की मुद्रा में खड़े हो गये।
सलमा रूको! भानू ने आवाज़ दी और दौड़कर उसके पास आ गया।
"लाओ टोकरी मैं पकड़ लूँ, अब तो हम दोस्त हैं" भानू ने सलमा के हाथ से टोकरी लेने की कोशिश की, सलमा हट गयी।
"तुम इसे लो" गुलाब का एक फूल देते हुए सलमा ने कहा।
बस एक! भानू शरारत के लहजे में कहा।
"लड़कों को अपने साथ एक ही फूल रखना चाहिए" जवाब सटीक था, भानू भी समझ गया था।
"ओके फिर मिलेंगे" कहकर भानू अपने मंण्डली के पास पहुँच गया और मनगढ़ंत कहानी बनाकर सुनाने लगा।
सलमा को भानू का चौराहे पर उसका इंतज़ार अच्छा लगने लगा था, रोजाना भानू उसके पास किसी बच्चे की तरह आता है और मासूमियत भरा सवाल करता, सलमा मुस्कराकर छोटा सा जवाब देती, फिर वह चला जाता। रोज-रोज उन दोनों का इस तरह मिलना एक रिश्ते में बदल चुका था।
मई के दिन थे, आज लू सुबह से ही चल रही थी, सलमा के फूल बिक चुके थे। वह जैसे ही घर जाने के लिए उठी, पहले से घात लगाये बैठी हवाओं ने अपना रूप अक्रामक कर लिया, धूल उड़ाती हुयी आँधी ने लोगों को मन्दिर और सामने बने घरों में छुपने पर मजबूर कर दिया।
भानू ने सलमा का हाथ पकड़ा और थोड़ी दूर पर बने घर के बाहर लाकर छोड़ दिया, सलमा को देखकर उस लवारिस घर से उसके दोस्त तेज़ी से निकलकर चले गये।
"अन्दर आ जाओ सलमा" भानू ने घर के अन्दर से आवाज़ दी।
"नहीं मैं ठीक हूँ" सलमा अपना हिजाब ठीक करती हुयी बोली, उसका हिजाब ही उसके फूल से चेहरे का रक्षक था।
भानू ने सलमा का हाथ पकड़ा और कमरे के अन्दर धूल से सने लकड़ी के तख्ते पर बिठा दिया। गन्दे जिन्न जैसे दिखने वाले कमरें में जल रहे दीपक की लौ तेज हो गयी। सलमा अन्दर से घबराई हुयी थी लेकिन उसके चेहरे पर कोई शिकन ना थी। भानू के प्रति उसका विश्वास मजबूत था।
"भानू तुम कहाँ हो? चले गये क्या? सलमा ने अपने आस-पास हाथ से उसे टटोलते हुए पुकारा।
भानू ने कुछ जवाब ना देते हुए सलमा का हाथ पकड़ लिया। सलमा सिमट गयी।
कमरें का जिन्न टूटे हुए दाँतों से खिलखिलाने लगा। हँसी कमरे की गर्मी बढ़ा  रही थी।
"सलमा! मैं तुमसे बहुत मोहब्बत करता हूँ" भानू कान में फुसफुसाया तो जिन्न की हँसी छिन गयी। सलमा उठ खड़ी हुयी। भानू ने सलमा का हाथ पकड़ कर अपनी ओर खींच लिया। जिन्न की आँखें बड़ी हो गयी। सलमा अब उसके कैद में छटपटा रही थी। जिन्न तालियाँ बजा रहा था, कमरे में जल रहे दीपक की लौ भी सलमा की ओर खिंची चली आ रही थी। कमरे के अन्दर सबकुछ जिन्न के इशारों पर चल रहा था।
एक तेज चीख सुनकर जिन्न डरकर चुपचाप कमरे के कोने में दुबक गया। भानू ने दरवाज़ा खोला और चला गया, साथ में आँधी भी चीखों को अपने पंजे में दबाकर उड़ गयी।
अगली सुबह जब पुजारी मन्दिर के अन्दर गया तो सलमा त्रिशूल में डमरू की तरह टँगी थी। पुजारी ने फौरन लाश को हटवाकर बाहर रखवाया। मन्दिर के बाहर पूजा की थाली लिए हुए श्रद्धालुओं की भीड़ थी। भीड़ में भानू था।


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