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मुलाकात – एक अजनबी से ..

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आज सुबह से ही बहुत बारिश हो रही थी। मैं ऑफिस जाने को तैयार हो ही रहा था की अचानक सुधा की जोर से चीख सुनाई पड़ी। वह बेहोश हो कर जमीन पर पड़ी थी। जल्दी जल्दी मैंने उसे उठाया, पानी के छींटे दिए। उसे होश आ गया पर उसका शरीर बुखार से तप रहा था।

 

"कितनी बार कहा है अपना ख्याल रखा करो, देखो क्या हाल बना रखा है। अगर मेरी बात मान लोगी तो क्या बिगड़ जाएगा तुम्हारा?” मैं गुस्से में बड़बड़ा रहा था। सुधा की हालत कुछ दिनों से खराब थी, उसे बार बार बुखार आ रहा था। मैंने डॉक्टर से भी दिखाया था, पर न जाने क्यों उसकी तबीयत ठीक नहीं हो रही थी।

 

“आज मेरी इतनी जरूरी मीटिंग है, और फिर डॉक्टर का चक्कर लगवा दोगी।” मुझे गुस्सा आ रहा था। सुधा अपना ख्याल बिलकुल भी नहीं रखती। मैं दवाइयां देता हूँ तो खाना भूल जाती है।

 

"चलो अब जल्दी डॉक्टर के पास। मैं आधे दिन की छुट्टी ले लूँगा। बच्चों को उनके नानी के घर छोड़ देता हूँ, तुम घर पर आराम करना” - मैंने सुधा को उठाते हुए कहा।

 

"नहीं जी! अब माँ की उम्र हो गयी है, और बच्चे छोटे है उन पर अकेले ज्यादा देर कैसे छोड़ दूँ?” - सुधा ने तर्क दिया।

 

मुझे पता था कि वह कुछ ऐसा ही बोलेगी, और उसकी ये बात मुझे और गुस्सा दिला देती है।

 

"अच्छा तो तुम आओ, मैं कार में तुम्हारा इंतज़ार कर रहा हूँ।” - मैं जा कर कार में सुधा का इंतज़ार करने लगा, मुझे पता था कि कुछ नहीं करते हुए भी उसे दस मिनट तो लगेंगे ही।

 

"इन्हें एडमिट करना होगा, डेंगू भी हो सकता है। ये बहुत कमज़ोर दिखती हैं” - डॉक्टर ने परचा लिखते हुए कहा।

"क्या?”  मैंने आश्चर्य से  पूछा।

"एडमिट करना होगा" - डॉक्टर ने उसी शांत स्वर में अपनी बात दोहराई।

"मगर...."

"देखिये हम कोई रिस्क नहीं ले सकते। आप लोग बाहर वेट कीजिये। मैं इनके एडमिट होने की तैयारी करवा कर आपको बता दूंगा” - मेरी बात काटते हुए डॉक्टर ने कहा।

 

मैं अब भी गुस्से में था, मुझे मीटिंग कैंसल करनी होगी। अगर सुधा ने अपना ख्याल रखा होता तो शायद ये सब नहीं होता।

 

“मैं बच्चों को नानी के पास छोड़ आता हूँ, तुम यहाँ रहोगी तो उनका ख्याल कौन रखेगा? कुछ जरूरी हो तो मुझे फोन पर बता देना।"

 

लौटते वक्त काफी देर हो गयी, जाम लगा था। इस बीच सुधा का फ़ोन आ गया की उसे कमरा मिल गया है। हॉस्पिटल पहुँचते पहुँचते मैं काफी थक गया था।

 

“उफ्, पता नहीं क्यों सुधा को भी अभी ही बीमार होना था, अब जब तक वह हॉस्पिटल में है तब तक सब कुछ कैसे होगा" - यह सब सोचते हुए, न जाने कब मेरे कदम हॉस्पिटल के पार्क की ओर मुड़ गए।

 

अपने हाथ में सिगरेट लिए ना जाने मैं वहां कितनी देर तक बैठा रहा। अँधेरा हो चुका था। तभी कोई मेरे बगल में आ बैठा। मैंने उसे आते नहीं देखा। पर मेरी नज़र उसपर पड़ी तो देखा की वह भी मुझे देख रहा है। वह मुस्कुरा दिया। मैंने हलके से सर हिला दिया।देखने में वह आदमी बड़ा अमीर मालूम पड़ रहा था।पर यूँ ही किसी से बात करने ही आदत नहीं थी मुझे।

 

"बड़े परेशान दिख रहे हो?” उस अजनबी ने बात आगे बढ़ाने की कोशिश की।

"हूँ’’ मैंने बात ख़त्म करने की कोशिश की, मैं अभी किसी से भी बात करने के मूड में नहीं था।"

“कोई अपना एडमिट है?” उसने कोशिश ज़ारी रखी।

"हाँ” - मैंने उसे टालते हुए जवाब दिया।

"मैं तो यहाँ तीन साल से आ रहा हूँ।”

 

उसकी बात सुन कर  मैं चकरा गया। मैं यहाँ एक दिन में पागल सा हो गया हूँ और ये इतनी शांति से बैठा है। मज़ाक कर रहा है या बेवकूफ बना रहा है। कहीं किसी गैंग का मेम्बर तो नहीं - मैं सोचने लगा।

 

“तुम जो भी सोच रहे हो वह सब गलत है, मेरा कोई अपना रूम नंबर 416 में है। मेरा नाम रौशन, रौशन कुमार, और आपका?"  जैसे उसने मेरे दिमाग को पढ़ लिया हो।

"मैं विजय राज”

“आप इतने गुस्से में क्यों हैं विजय जी?” उसने बड़े अपनेपन से पुछा।

“कुछ नहीं” मैं अभी भी किसी तरह की जान पहचान से बचना चाहता था। आखिर किसी अजनबी से कुछ भी बोलने से क्या फायदा और मेरा नुकसान हो गया सो अलग। अब मुझे छुट्टियाँ लेनी होगी, हॉस्पिटल के चक्कर लगाने पड़ेंगे, बच्चों को देखना होगा और दो महीने का बजट फिर से बनाना होगा... इस अमीर से दिखने वाले के पास इतनी परेशानियां तो नहीं होंगी, इसलिए यहाँ बैठे बैठे दूसरों का टाइम बर्बाद कर रहा है।”

"मुझे चलना चाहिए” - मैं बोलते हुए उठ कर, सुधा के कमरे की तरफ चल पड़ा।

 

सुधा बेड पर सोयी हुई थी, उसका शरीर कमज़ोर और चेहरा काला पड़ा गया था। आहट सुनते ही वह मेरी तरफ देखने लगी।

“बच्चे ठीक है। मैंने उसके पूछने से पहले ही बता दिया।

“और तुम?” उसने धीमे से पुछा।

“तुम अपना ख्याल रखो, मैं अपना रख लूँगा।”

“यहाँ स्टाफ बहुत अच्छे हैं, तुम्हें फिक्र करने की जरूरत नहीं, तुम चाहो तो घर जा सकते हो।”  

“नहीं मैं यहीं रुक रहा हूँ।”

 

रात में सुधा के सोने के बाद मैं न जाने क्यों फिर उसी पार्क की ओर चल पड़ा।

 

“तुम फिर आ गए” एक जानी पहचानी सी आवाज आई। मैंने मुड़ कर देखा, तो उसी इंसान को अपने पीछे खड़ा देखा जिससे मैं कुछ देर पहले मिला था।

 

अब समय काटना ही है तो चलो एक से भले दो। चलो अच्छा है मेरा भी वक्त कट जाएगा। इतनी रात में तो यहाँ सिर्फ एडमिट हुए मरीजों के परिवार वालों को ही घुसने देते हैं। मैंने अपने दिमाग को इत्मीनान दिया।

 

“आप रोज़ यहाँ आते हैं?” मैंने पूछा।

“तीन साल से तो रोज़ ही आ रहा हूँ, आपको कितने दिन की ड्यूटी मिली है?” उसने मुस्कुराते हुए पुछा -

“तीन चार दिन।”

“खुशकिस्मत हो।”

“क्या खाक खुशकिस्मत हूँ? मेरी नौकरी छूट सकती है, सैलेरी कटेगी, घर में सब अस्तव्यस्त, और वह भी सिर्फ इसलिए कि मेरी बीवी अपना ख्याल नहीं रख सकती – “मैं झुंझलाहट में एक ही सांस में बोल गया।”

“तुम्हारा ख्याल कौन रखता है?” उसने पूछा।

“सुधा... मेरी बीवी....”

“फिर तुम उसका ख्याल क्यों नहीं रखते?”

“मैं ख्याल तो रखता हूँ, देखो अभी हॉस्पिटल में हूँ। इससे क्या लगता है?”

“हूँ... ख्याल रखते हो तो इतने परेशान और गुस्से में क्यों दिख रहे हो? प्यार से भी ख्याल रखा जा सकता है.”

“देखो मैं गुस्सा था, पर अभी सिर्फ परेशान हूँ... इतनी सारी ज़िम्मेदारी है, उस पर ये हॉस्पिटल का चक्कर।”

“अब चक्कर लगा रहे हो क्योंकि कोई अपना है, परिवार है, बच्चे हैं तो तुम परेशान हो... अगर ये कुछ ना रहे, तो तुम क्या करोगे?”

 

किसी अजनबी से ऐसी बातें सुनना मेरे लिए कुछ अजीब था। मुझे थोड़ा बुरा लग रहा था, बेकार ही मैंने उससे बात की। मैं चुप हो कर बैठ गया।

 

मुझे चुप  देख वह भी थोड़ी देर चुप रहा, लेकिन उसने फिर अपनी बात आगे बढ़ाई..

“संभवतः तुम्हें मेरी बातें अच्छी ना लगे पर तुम कभी अकेले में बैठ कर सोचना, आज तुम्हारी बीवी बीमार है। तुम्हें ये पता है कि वह वापस आएगी। तुम्हारा घर है, बच्चे हैं, पर अगर एक दिन तुम सुबह उठो और तुम इस दुनिया में पूरे अकेले हो, तो क्या तुम्हारी नौकरी या पैसे तुम्हें प्यार और परिवार दे पाएंगे? आज तुम्हारी बीवी बीमार है, कल तुम भी हो सकते हो.. पर बस एक चीज़ का अंतर होगा.. वह कभी तुम्हें किसी और चीज़ के सामने नहीं रखेगी। तुम और सिर्फ तुम ही उसके लिए दुनिया में सबसे ज़रूरी होगे.. है ना?” उसके चेहरे पर एक अजीब सा शून्य तैर रहा था.. उसकी वह उदास आँखें मेरी आत्मा तक देख रहीं थी।

 

उसके इस सवाल को सुन मैं कुछ बोल नहीं पाया। मुझे पता था की वह जो भी बोल रहा है सब सच है..

 

मैं अपने परिवार को भले ही वक्त ना दे पाऊं, पर मैं अपनी बीवी और बच्चों के बिना इस दुनिया के बारे में सोच भी नहीं सकता। उसके इस सवाल ने मुझे झकझोर कर रख दिया।

 

“आपसे बात कर के मुझे बहुत अच्छा लगा पर अब मुझे चलना चाहिए। आपकी बातें मुझे भले ही कड़वी लगीं हो पर आपकी सारी बातें बिलकुल सच है। मैं अपनी बीवी से बहुत प्यार करता हूँ। आपसे फिर मिलूँगा” - कहते हुए मैं आगे बढ़ चला। तभी मुझे याद आया की मैंने उसके बारे में तो कुछ पुछा ही नहीं, बस अपने में ही लगा रहा और मुझे उससे थैंक्स भी बोलना चाहिए था। मैं पीछे मुड़ा तो वह जा चुका था, “कोई बात नहीं कल मिलेगा तो ज़रूर बोल दूंगा।”

 

मैं सुधा के पास गया, देखा वह जाग रही है।

“तुम जल्दी ठीक हो जाओगी “मैंने उसको बड़े प्यार से कहा। मैं उससे ज्यादा अपने आपको समझा रहा था। मुझे पता था कि सुधा के बिना मेरी ज़िन्दगी कितनी अकेली है। वह मेरी जिंदगी का हिस्सा ही नहीं, मेरी पूरी ज़िन्दगी है। कभी कभी ये एहसास, कोई अजनबी दिला जाता है कि - आप अपनी ज़िन्दगी से कितनी दूर चले गए हैं।

“मैं सुबह ही बच्चों को ले आऊंगा और मैंने छुट्टी भी ले ली है। तुम ठीक हो जाओ बस।”

सुधा चुप थी पर मैंने उसके चेहरे पर अचानक ही, एक नयी चमक देखी।

“मैं कल ही ठीक हो जाऊंगी आप देख लेना,” उसने मुस्कुराते हुए कहा।

 

दूसरे  दिन सच में सुधा पहले से बेहतर थी। डॉक्टर ने उसे घर जाने की अनुमति भी दे दी। अब मैं अपने उस एक रात के दोस्त को थैंक्स बोलना चाहता था।

 

मैं डिस्चार्ज के पेपर का इंतज़ार कर रहा था कि ...तभी एक नर्स ने स्टाफ को बोला “रूम नंबर 416 खाली हो गया है, उनके रिलेटिव को बुला दीजिये।”

एक अनजान आदमी वहाँ आ कर बैठ गया। मैंने पूछा “आप रौशन जी के रिश्तेदार हैं?”

वह मेरी तरफ देखा और बोला “मैं उनके कम्पनी का स्टाफ हूँ, उनका कोई रिश्तेदार नहीं, तभी तो मुझे ही सारा कुछ देखना पड़ता है। देखो अब उनकी बॉडी भी मुझे ही ले जानी होगी। और “हाँ” - आप रौशन जी को कैसे जानते हैं?”

मैं खामोश था... 

 

 

 


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