मुख़ौटे
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मुख़ौटे
"तुम्हारी तस्वीर बहुत प्यारी है, ख़ास कर वो छोटे लाल ड्रेस वाली. क्या तुम्हारे घर वाले तुम्हे ऐसे कपड़े पहनने से मना नही करते ?",निशा ने यामिनी से पूछा .
"धन्यवाद, दरअसल मै अकेली हूं, मेरे घर मे कोई नही है. मै यहां एक बहुराष्ट्रीय कंपनी मे सेक्रेटरी हूं. वैसे तुम भी कम प्यारी नही हो. उस पार्टी वाली पिक मे तो गज़ब ही ढा रही हो. आज अपनी एक अकेली पिक लगाओ ना",
यामिनी ने इसरार किया.
हाय-हेलो से शुरू हुई निशा और यामिनी की दोस्ती दिनो दिन गहराने लगी थी. दोनो एक दूसरे से अपने दिल की बातें शेयर करतीं, सुख-दुःख साझा करतीं. उन्हींं दिनो बातों-बातों मे मालूम हुआ कि निशा के पापा का देहांत हो गया है और वह बिल्कुल अकेली हो गयी है. उसे यामिनी के कंधे की बेहद ज़रुरत थी जहां वह सर रख अपना दुःख हल्का करती. यामिनी भी अपनी सखी से मिलने को बेचैन थी. आभासी दुनिया से निकल कर असलियत का जामा पहनाने को दोनो दोस्त बेचैन हो उठीं. एक पार्क मे, एक ख़ास पेड़ के नीचे मिलने की जगह और समय निश्चित किया गया. चित्र से तो दोनो ही एक दूसरे को पहचानतीं ही थीं. नियत समय पर दोनों पूर्वनिर्धारित स्थल पर पहुंचीं. पर न तो निशा को यामिनी मिली और ना ही यामिनी को निशा. अलबत्ता दो लड़के बड़ी देर तक उस पेड़ के आसपास मंडराते रहे और यहां वहां बिख़रे कुछ मुख़ौटों के राज़ बेनकाब होते रहें