खानाबदोशी के सिलसिले
खानाबदोशी के सिलसिले
खानाबदोशी के सिलसिले भी अजब अफ़रोज़ रहे
दोस्त खूब रहे फिर भी तनहा रोज़ रहे
साक़ी की तरह हर किसी का जाम हर किसी तक पहुंचा दिया
खुद खाली गिलास लिए शाम को रात में ढाल कर सुला दिया
तुम समझते हो ये तजुर्बे हैं जो रोज़ कागज़ पर उतरते हैं
ये तो पानी पर पानी की तरह 'पानी' लिखी हुई एक कहानी सी हैं
पूरी से थोड़ी कम अधूरी से थोड़ी ज़्यादा हैं
कहानी से थोड़ी ज़्यादा ज़िन्दगी से थोड़ी कम सी हैं
भरी हैं हथेली पर, पर रेत सी निकल भी जाती हैं
मौत तो सफर में रहती हैं ज़िन्दगी तो मर जाती हैं ----